Sunday, December 30, 2012

दर्द के दोहे

दिसम्बर जाते जाते बहुत जख्म दे गया। नए साल का स्वागत करने के लिए मेरे पास सिर्फ दर्द के दोहे ही हैं। जुल्म की शिकार उस अनाम लड़की को हम दर्द के सिवा कुछ नहीं दे पाए। क्या वक्त हमें माफ कर पाएगा?

फिर वहशत के सामने टूट गई उम्मीद
देश जगाकर सो गई बिटिया गहरी नींद

देह में गहरे घाव थे, दिल था लहूलुहान
हैवानों से जूझती, कब तक नाजुक जान

अबके दब पाई नहीं, उस लड़की की आह
जुल्म के नंगे नाच का, सड़कें बनी गवाह

वह लड़की बेनाम सी, बन गई बड़ी मिसाल
सड़क पे उतरे लोग फिर गुस्से में हो लाल

दिल में सबके आग थी, आंखें थीं अंगार
औरत क्यों सहती रहे, मर्द के अत्याचार

खूब बढ़ी ये गंदगी, कर न पाए साफ
हम भी हैं दोषी बड़े, बिटिया करना माफ

इनको कैसे झेलता यह सारा संसार
इन नामर्दांे के लिए औरत सिर्फ शिकार

मानवता को नोंचते, जुल्मी के नाखून
बस डंडा फटकारता, नपुंसक कानून

सबको आजादी मिली, इतना रहा मलाल
औरत कब आजाद हुई, भारत मां बेहाल

शोकाकुल हैं लोग सब, सदमे में है देश
जाते जाते दे गई सबको बिटिया संदेश

दुनिया सुंदर है बहुत, वहशी आंखें खोल
हमला मत कर किसी पर आजादी अनमोल

 

Wednesday, December 12, 2012

घनघोर तरक्की

महंगाई की बन गई है सिरमोर तरक्की
क्या खूब हुई देश की घनघोर तरक्की

शातिरों ने पैसे को पावर में जो बदला
क्या हो गई है और सीनाजोर तरक्की

आगे जो बढ़ना है तो फिर दाम चुकाओ
जाने कहां ले जाएगी घुसखोर तरक्की

घर गया, जमीन गई, गांव भी गया
सुख चैन तक तो ले उड़ी ये चोर तरक्की

कुछ हुए अमीर, कई हो गए कंगाल
कितनों को भरमाये है चितचोर तरक्की

अफसर अगर चाटेंगे चापलूसी की चटनी
पा जाएंगे जल्दी ही चुगलखोर तरक्की

कुछ लोग है विकास की ही चाशनी में तर
गंावों के किनारे खड़ी कमजोर तरक्की

न जाने कभी आएगा क्या ऐसा जमाना
उस ओर तरक्की हो तो इस ओर तरक्की

Monday, November 19, 2012

कौन बुरा है, अच्छा कौन

कौन बुरा है, अच्छा कौन
अपनी धुन का पक्का कौन

दुनिया इक बाजार है प्यारे
सब महंगे हैं, सस्ता कौन

आंखों पर जो पड़ा हुआ है
यार हटाए पर्दा कौन

सारी जनता को मालूम है
नेता और उचक्का कौन

हम झूठों की नगरी में ही
खोज रहे हैं सच्चा कौन

जिसने थामा, याद रहा
मगर दे गया धक्का कौन
सुनने वाले कबके सो गए
और सुनाए किस्सा कौन

शहर में जा अंकल बन बैठे
भूले गांव का कक्का कौन

रंगी सियासत सब जाने है
कौन मशीन है, पुर्जा कौन

कौन उठाता है दीवारें
और बनाए रस्ता कौन

साबित तो करना ही होगा
कौन है जि़न्दा, मुर्दा कौन

Thursday, October 18, 2012

कतरा कतरा जिंदगी लगे

इन दिनों सिर्फ दर्द का दरिया ही है। डुबकी लगाते रहिए या डूब कर मर जाइए। बीते दिनों बहुत कुछ लिखा गया, यात्राएं हुईं,  मगर इस दिल को तसल्ली न हुई। दर्द कुछ ऐसे बयान होता है -

कतरा कतरा जिंदगी लगे
दर्द की तन्हा नदी लगे

मेहमान बनके आई है खुशी
और उधार की हंसी लगे

अपने से लगें ये अंधेरे
क्यों पराई रोशनी लगे

ढह गए यकीन के किले
दिलफरेब आशिकी लगे

है वही जमीन ओ आस्मां
बदला बदला आदमी लगे

झूठ और गवाह पर टिका
इंसाफ भी तेरा ठगी लगे

पीछा करना भी ख्वाब का
क्यों उन्हें आवारगी लगे

सहमा सहमा सा है ये समा
और उदास चांदनी लगे

तेरी रहनुमाई भी कमाल
रहबरी भी राहजनी लगे

झूठ बोलना गुनाह है
सच कहूं तो दिल्लगी लगे

मुझको देगा क्या खुदा पनाह
उसमें भी तो पैरवी लगे

Wednesday, August 1, 2012

रेंजलाल

पिछले दिनों अदालत ने एक बड़ा फैसला सुनाया। रोहित शेखर नाम के एक नौजवान के नाजायज बाप का पता चल गया जो देश का एक बड़ा राजनेता हैं। डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट नहीं बदली और साबित हो गया कि नाजायज बाप कौन है। लेकिन रेंजलाल की किस्मत ऐसी नहीं है। उसकी मां ने लंबी लड़ाई लड़ी और हार गई। वह एक आदिवासी औरत  है इसलिए उसके बच्चे के नाजायज बाप ने डीएनए रिपोर्ट बदलवा दी। लेकिन पूरा गांव जानता है कि रेंजलाल का नाजायज बाप कौन है इसलिए तो उन्होंने इसका नाम रेंजलाल रखा क्योंकि उसका नाजायज बाप एक रेंजर है। सबसे पहले यह कहानी केसला में समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय महासचिव सुनील ने सुनाई। फिर वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता बाबा मायाराम के साथ हम विस्थापित बोरी गांव पहुंचे और रघुवती से मिले। यह सच्ची कहानी देश की न्याय व्यवस्था की पोल खोल देती है।
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रघुवती बाई के चेहरे पर थकान नजर आती है। बुझी-बुझी सी आंखें, जैसे कहीं शून्य में खोई रहती हैं। मानो उदासी ने वहां घर बना लिया हो। हमेशा काम में जुटी रहती है, लगातार। मां है तो सहारा है। नई बोरी में भी करने को बहुत कुछ है। घर और खेती जमाने में ही सारा दिन निकल जाता है। जितनी जरूरत हो, उतना ही बोलती है। ज्यादातर समय चुप ही रहती है।

क्या रघुवती हमेशा से ऐसी ही है या रेंजलाल के जाने से दुखी है। बताने लगी ‘ रेंजलाल यहां आवारा हो गया था। घूमते रहता था इसलिए उसे छात्रावास में भेज दिया। कुछ तो पढ़ेगा। कहकर रघुवती फिर उदास हो जाती है।

रघुवती कहे भी तो क्या? उसका दर्द जैसे उसके चेहरे पर उतर आता है। कई बातें शब्दों में नहीं कही जा सकती। कई बार एक चुप्पी भी बहुत कुछ कह देती है। रघुवती आज तक खुद को माफ नहीं कर पाई है। आखिर कैसे वह एक रेंजर की वहशी दबंगता के आगे तार-तार हो गई। क्यों नहीं पहले ही दिन उसने रेंजर के मुंह पर साफ कह दिया होता। जो लड़ाई बाद में लड़कर वह हार गई, अगर पहले ही लड़ी होती तो आज..। रघुवती सिहर उठती है। हे खैरा माई मुझे उठा क्यों न लिया उसी समय।

तभी अचानक उसके भीतर से ही एक आवाज आती है ‘अम्मां, मुझे भूल गई क्या?’ अरे यह तो रेंजलाल है। रघुवती के चेहरे पर बसी उदासी में जैसे ममता ने सेंध लगा दी। यह रेंजलाल ही तो है, जिसके लिए वह आठ साल तक लड़ती रही। कितनी चिट्ठी पत्री, कितने कागज, कितनी जांच और हुआ क्या?

रेंजलाल को उसके पिता का नाम नहीं मिला। वह तो सिर्फ अपनी मां का बेटा है और वह इस कोरकू आदिवासी समाज का भी है जिसने उसे अपने दिल में जगह दी। रेंजलाल भी यह जानता है। वह कहता भी है, अब मैं छोटा पप्पू नहीं हूं।

रघुवती को इसलिए खाली बैठना पसंद नहीं है। कुछ करते रहो तो मन लगा रहता है। हाथ को कोई काम न हो तो जाने क्या-क्या सोचने लगती है। गुजरी हुई कितनी ही घटनाएं किसी चुड़ैल की तरह उसके पीछे ही खड़ी रहती हैं। जैसे ही वह खाली होती है, वे उस पर टूट पड़ती हैं और फिर तो गुजरे जमाने की एक-एक चोट जैसे हरी हो जाती है। जख्मों के टांके खुल जाते हैं और उनमें दर्द बाहर बहने लगता है।

रघुवती की आंखें छलछला जाती हैं। वह गुस्से से सिहर उठती है। एक दबंग रेंजर ने उसे मां बना दिया। हर कदम पर उसे लड़ना और हारना पड़ा। और एक दिन वे फिर आए। कई बड़े साहब लोग। उसे एक जगह ले गए। कोर्ट कचहरी या कोई दफ्तर जाने कहां। एक लड़का भी साथ था। थोड़ी सी लिखा-पढ़ी हुई। उस लड़के को कुछ पैसे दिए। कहते हैं कि उसे 25 हजार रुपए दिए। साहब लोगों ने रघुवती से कहा खुश हो जा तेरी शादी हो गई। रघुवती बस डर और गुस्से से कांपती रही। वह लड़का रुपए लेकर अपने घर चला गया। साहब लोग हंसते हुए गाड़ी में बैठकर निकल गए और रघुवती समझ ही नहीं पाई कि वे लोग उसके साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं।

जब नई बोरी बसी तो सरकार ने पुरानी बोरी के हर वयस्क को पांच एकड़ जमीन और ढाई लाख रुपए नकद दिए, लेकिन रघुवती को कुछ नहीं मिला। सरकारी अफसरों ने कहा रघुवती की शादी हो गई है, उसे मुआवजा नहीं मिलेगा। इतना बड़ा झूठ! रघुवती तो जैसे बर्दाश्त करने के लिए ही पैदा हुई है। क्या करती, कहां जाती। आखिर अपनी मां के साथ नई बोरी आ गई। अब वह अकेली भी नहीं थी। जब नई बोरी आई तो रेंजलाल छोटा  ही था।

कहते हैं न उजड़ने वालों को सहारा देने वाले भी मिल जाते हैं। तभी तो रघुवती जिंदा है और रेंजलाल छात्रावास में पढ़ रहा है। अगर रघुवती हिन्दू समुदाय की होती तो उसके परिजन ही उसे मार डालते और रेंजलाल को पैदा होने का मौका ही नहीं मिलता, लेकिन कोरकू मवासियों में ऐसा नहीं होता। वहां कुंआरी मां की न जिंदगी ली जाती है, न उसे हिकारत की नजर से देखा है। उसे दोबारा जीने का मौका दिया जाता है। चाहे तो रघुवती भी अपनी मर्जी से घर बसा सकती है।

लेकिन रघुवती अब ऐसा कुछ नहीं सोचती। उसने नियति को स्वीकार कर लिया है। उसने सरकारी अफसरों और दूसरे उजले लोगों की ईमानदारी देख ली है। कहते थे कि जांच से सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। वो क्या कहते हैं....डीएनए की जांच होगी और बस रेंजर बच नहीं पाएगा। रेंजलाल की किस्मत संवर जाएगी। किसान आदिवासी संगठन वाले भी आए थे। सुनील भैया ने फोन भी किया था हैदराबाद, जहां जांच होती है। कोई राव साहब थे, कहने लगे रिपोर्ट बदलने या सैंपल बदलने का डर है तो मैं खुद आ जाता हूं। सच कहा था, राव साहब खुद आए थे। उधर, रघुवती निश्चिंत थी कि जांच में सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा, लेकिन कमाल देखिए कि खुद राव साहब ने ही रिपोर्ट बदल दी और रेंजर का सैंपल रेंजलाल के सैंपल से मैच नहीं खाया, रेंजर बच गया।

पर रघुवती तो जिंदा थी और उसका बच्चा भी दुनिया में आ चुका था। उस बिना नाम और बिना बाप के बच्चे को गांव के लोगों ने नाम दिया रेंजलाल, क्योंकि वह एक रेंजर की औलाद है। भले ही सफेदपोश लोगों ने झूठ के जीतने की घोषणा कर दी हो, लेकिन रघुवती ही नहीं गांव का बच्चा-बच्चा जानता है कि वह रेंजर का बेटा है। अब रेंजर का बेटा है तो रेंजलाल से बेहतर नाम और क्या हो सकता है, लेकिन बात कहीं ज्यादा गहरी है।

असल में यह है कोरकू समाज के विरोध करने का तरीका। मां और बच्चे की समाज में वही हैसियत है जो पहले थी। उनके पास आजादी से सांस लेने, अपनी बात कहने और जीने का मौका है, लेकिन रेंजलाल नाम देकर जैसे कोरकू समाज ने इस विशाल लोकतंत्र और न्यायपालिका को आइना दिखाने का काम किया है। रेंजलाल नाम रातोंरात पूरे इलाके में मशहूर हो गया। उस दिन बरसों बाद रघुवती मुसकुराई थी और रेंजलाल ऐसे तनकर खड़ा था जैसे पूरी दुनिया को चुनौती दे रहा हो।
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Friday, July 13, 2012

उजड़े गांवों का राग - तीन

विस्‍थापन की दुनिया  - नया धांईं 
क्राय की फेलोशिप विकास, विस्थापन और बचपन के दौरान रोरीघाट, इंदिरानगर और नये धांई की यात्रा की गई। काम के दौरान लिखी डायरी के कुछ पन्ने यहां सबसे साझा कर रहा हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की तीसरी किस्त।
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 नये धांई की सच्चाई 
        
माया
नया धांई मुझे कई बातों के लिए याद आएगा। सविता, माया और रवीना जैसी बच्चियां भी बहुत याद आएंगी। ऐसे ही होते हैं आदिवासी जरा देर मेंतीन ही आप उनके घर के सदस्य हो जाते हैं। पांच साल पहले अपना पुराना गांव छोड़कर आए लोगों का स्वभाव अब भी पहाड़ों जैसा ही है सबको अपना बना लेने का। उस शाम मुकेश बहुत परेशान था। कहां रहेंगे, कौन खाने को देगा। कैसे सुबह होगी। वरसों बाद मुकेश पुरोहित मेरे साथ था। नौजवानी में वह हमारी नाटक टीम का हिस्सा था। लेकिन उसे मेरे साथ अजनबी गांव में रात बिताने का मौका नहीं मिला था। फिलहाल वह इंदौर के एक निजी स्कूल में पढ़ाता है। इन दिनों छुट्टियों में पिपरिया आया हुआ था सो मेरे साथ चला आया।

हमने इकराम सिंह के आंगन में बिछे पलंग पर अधिकार जमा लिया था। शाम गहरी  होने लगी। मुकेश चिंता में डूब गया। तभी माया अचानक आई और पूछने लगी ‘अंकल बाटी बना रही हूं। खा लोगे या आपके लिए रोटी बनाऊ। हमने कहा बाटी ही खाएंगे। चौंकने की बारी मुकेश की थी। माया ने अपने पिता के साथ हाथ धुलवा कर खाना खिलाया। दूसरे दिन और गजब हो गया। बिरजूखापा गांव से एक हमारी उम्र का व्यक्ति और एक नौजवान आया। पता चला कि यह माया के होने वाले ससुर और देवर है। माया की शादी तय हो गई। लड़का इंदौर में काम करता है।

उस शाम इकराम सिंह को उनके दोस्त अपने साथ ले गए थे। जब वे लौटे तो जमकर पिये हुए थे। कहने लगे, आपके कारण मैं तीन दिन से पी नहीं रहा था लेकिन आज मेरे दोस्त मुझे खींच ले गए। माया के अंकल कहने पर उन्होंने एतराज किया और मेरी उम्र पूछी। मेरे बताने पर कहने अरे आप तो मुझसे बड़े हैं और यह आपको अंकल कह रही है। बस तभी से माया मुझे ताऊ कहने लगी। उधर उसके पिता ने खाने से पहले हमें महुआ पिलाने की जिद ठान ली। घर में महुआ की शराब नहीं थी इसलिए माया को पड़ोस में भेजा गया और वह जरा देर में ले भी आई। हमें इकराम का साथ देना पड़ा। मैंने माया की शादी के बारे में पूछा तो इकराम कहने लगे मैंने माया से पहले पूछ लिया था। उसे कोई दिक्कत नहीं है, वह राजी है। मैंने माया को देखा वह मुसकुरा रही थी। कहने लगी हां पापा ने पूछा था।

माया तेज लड़की है। उसकी मां बचपन में ही गुजर गई। वह मामा के यहां रही मानसिंहपुरा में। वहीं प्राइमरी तक पढ़ी। फिर नये धांई आ गई। इस साल दसवीं की परीक्षा दी है। मोटरसाइकिल चला लेती है। कहती है उसके बुआ के लड़के ने सिखाई है। उसने सच कहा था कि गांव में कोई  उसकी तरह खुलकर बात नहीं करेगा। माया सीधी बात कहती है। उसने कमजोर शिक्षा के लिए माता-पिता और शिक्षकों को दोषी ठहराया। सविता से उसी ने मिलवाया। छठवीं पढ़ने वाली सविता की शादी तय हो गई है। उसकी पढ़ाई छूट गई। वह बहुत उदास है। बात करने को बिलकुल तैयार नहीं है। माया ने समझाया मैंने भी कोशिश की लेकिन सविता चुप। तब मैंने कहा मैं इतना कर सकता हूं कि एक बार तुम्हारे माता-पिता से बात करूं कि वे तुम्हे पढ़ने का पूरा मौका दें और अभी शादी न करें। इसके बाद सविता ने मेरी तरफ देखा और धीमे से कहा बात जरूर करना। उसने अपनी पढ़ाई और अपने सपने के बारे में बताया। उसकी लिखावट अच्छी है। उसने लिखकर दिया है कि वह पढ़ना चाहती है लेकिन घरवाले उसकी शादी कर रहे हैं जो गलत है।
सविता की मां लक्ष्मी बाई
सविता
वह अपनी मां से परेशान है। सुबह से ही महुआ की शराब पी लेती है। उसके पिता भी पीते हैं। वे कुछ नहीं कहते। इसलिए सविता को अपनी मजदूरी के पैसे भी मां से छिपाने पड़ते हैं। सविता की कहानी मन को दुखी कर देती है। कैसी मासूमियत से उसने बताया था, लड़का अपने पिता के साथ आया था। सविता इतनी दुखी थी कि उसने लड़के को अलग बुलाकर डांटा था और शादी के लिए मना करने को कहा था, लेकिन लड़का मुसकुराता रहा और आखिर में बोला कि मैं मना नहीं करूंगा। मैं तो शादी करूंगा। कहते कहते सविता उदास हो गई। उसे लड़के पर बहुत गुस्सा आया था मगर वह कुछ नहीं कर पाई और इधर मां कहती है कि शादी नहीं करेगी तो मारकर जंगल में फेंक देंगे। अब सविता क्या करे?

इकराम के घर अचानक सविता की मां लक्ष्मी बाई से भेंट हो गई। दिन के 12 बजे थे और वे सचमुच बहुत पिये हुए थीं। उन्होंने कहना शुरू किया तो फिर रुकी नहीं। डिप्टी रेंजर पांडे को खूब गालियां दीं। कहने लगीं -मादरचोद कहता था कि जोतने के लिए बैल देंगे। अब किसकी गांड में घुस गए बैल। लक्ष्मी बाई सचमुच बहुत गुस्से में थी। सरकार ने वादे तो बहुत किए पर बाद आदिवासियों को अकेला छोड़ दिया। ज्यादातर लोगों के लिए गुजर बसर करना भी मुश्किल हो रहा है। पांच एकड़ जमीन तो इन्ह्रंे मिली लेकिन वह इतनी उबड़ खावड़ थी कि खेती करना मुश्किल। लक्ष्मी के पति सुमरन सिंह ने जमीन किराए पर सेमरी के एक पटेल को दे दी और खुद उसके मजदूर बन गए। लक्ष्मी बाई सुमरन से भी बहुत नाराज हैं। वह जुए सट्टे में बबा्र्रदी कर रहा है। सविता की शादी की बात पर वे अडिग थी। हां उसकी शादी करना है। यह साल तो मुश्किल लग रहा है पर अगले साल शुरू में ही उसकी शादी कर दे्रेगे। उन्होंने साफ कहा, अब माहौल नहीं है वैसा कि लड़कियों को पढ़ाओ। जितना पढ़ लिया बहुत है, अब अपने घर पढ़ना। लक्ष्मी बाई से बहस करना आसान नहीं हैं और जब वे भरपूर नशे में हों तो ऐसी हिमाकत करना समझदारी नहीं थी।

रसंती बाई के घर हम कई लोग थे। बाबा मायाराम, राकेश कारपेंटर और तहलका के पत्रकार शिरीष खरे। नये धांई में नदी के न होने से रसंती बाई बहुत दुखी हैं। वे पुरानी धांई के पास बहने वाली सोनभद्रा नदी को याद करती हैं। उनके पति अघन सिंह वहीं पास में बैठे हैं। उनके दो बच्चे आसपास उछलकूद कर रहे हैं। बातचीत रसंती बाई से हो रही है। मेरे बार-बार कहने पर उन्होंने एक गीत सुनाया जिसे वे पुरानी धांई में नदी पर जाते हुए गाती थीं। उन्हें छिंदवाड़ा जाना था इसलिए बात बीच में ही रुक गई। रसंती बाई भी सिर पर लकड़ी का गट्ठा लेकर बेचने जाती हैं। उन्होंने गहरी बात कही  ‘जंगल में जानवर को तो हू हू करके भगा सकते हैं लेकिन आदमी को ऐसे नहीं भगाया जा सकता।’ इसलिए वे समूह में जंगल जाती हैं लकड़ी काटने। यहां औरते सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें अपनी आजादी दांव पर लगानी पड़ी है। माया ने भी कहा था कि स्कूली लड़कियों को सेमरी के पटेलों के लड़के छेड़ते हैं। वे भी समूह में स्कूल जाती हैं और लड़कों के मुंह नहीं लगतीं। माया ने कहा था इस साल छह लड़कियों ने आठवीं पास की है लेकिन उनमें एक भी आगे पढ़ने के लिए बाबई नहीं जाएगी। आठवीं तक भी खरदा व आश्रम का स्कूल ही है। वहां तक भी बहुत कम लड़कियां पहुंच पाती हैं।

सुमरन और अघन सिंह के बाद सबसे मुफलिसी की हालत राजेश की है। उसकी नन्ही चार साल की बिटिया रवीना बहुत प्यारी है। उसकी पत्नी और मां भी सिर पर लकड़ी का गट्ठर रखकर सेमरी बेचने जाती हैं। राजेश नए धांई में आकर पछता रहे हैं। उन्हें लगता है इससे बेहतर तो पुराने धांई में थे। यहां पहली उनके घर की औरतों को मूड़ गट्ठा बेचना पड़ रहा है। यहां खेती बिलकुल चैपट है। पानी ही नहीं है। वे बरसात पर ही निर्भर है। उनके खेत की हालत देखकर भी यही लगता है। उनके दोनों बच्चों की मासूमियत खीच लेती है। रवीना बिलकुल चुप है। वह गहरे संकोच में है। जो बातें हो रही हैं उसकी समझ से बाहर हैं। वह सयानेपन के साथ हमारे आसपास ही घूमती रही।
राजेश की चार साल की बिटिया रवीना
8-15 साल के बच्चे अलग ही खेल में मसरूफ़ दिखे। वे सिक्कों पर निशाना साधने का खेल खेल रहे थे। हम अपने बचपन में कंचों पर निशाना लगाया करते थे लेकिन अब नए धांई के बच्चे पैसों पर निशाना साधने लगे हैं। बड़े कस्बे के नजदीक आने के बाद किशोरों के लिए नई दुनिया खुल गई है। वे सेमरी के खूब चक्कर लगाते थे। इकराम ने कहा भी था बच्चों के पास दस रुपए हुए तो वे सेमरी चले जाते हैं। प्राइमरी के बाद ज्यादातर बच्चों के लिए कोई मौके नहीं हैं। उन्हें अपने आसपास से सीखना समझना है। राजकुमार जैसे किशोरों को डर है कि कहीं युवा नशे के चक्कर में न फंस जाएं।        

यह महुआ बीनने का मौसम है। सेमरी के एक पटेल ने इकराम सिंह के यहां कांटा लगा दिया है। वे सीधे महुआ खरीद रहा है और नकद पैसे दे रहा है। वह 12 रुपए किलो महुआ ले रहा है। सब जानते हैं कि बरसात बाद यही महुआ 20-25 रुपए किलो बिकेगा, लेकिन आदिवासी को तो पैसों की जरूरत है इसलिए बहुत से लोग महुआ बेच रहे हैं। रात को लोग दो बजे महुआ बीनने निकलते हैं और दूसरे दिन दोपहर को लौटते हैं। इकराम सिंह के यहां आंगन में महुआ सूख रहा है।

एक दिन अचानक फागराम आ गए। वे मंगल सिंह के गांव से लौट रहे थे। हमारा पता चला था सो मिलने चले आए। फागराम समाजवादी जन परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता है। किसान आदिवासी संगठन के नेता है और जनपद सदस्य है। इकराम सिंह का बेटा कमलेश उन्हें जानता है। वहीं आंगन में कुछ देर हमने बातचीत की। उसके बाद फागराम अपनी बाइक से रवाना हुए। और मैं भी नये धांई की बहुत सी यादे लेकर लौटा।
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Monday, June 25, 2012

उजड़े गांवों का राग - दो

(क्राय की फेलोशिप विकास, विस्थापन और बचपन के दौरान रोरीघाट, इंदिरानगर और नये धांई की यात्रा की गई। काम के दौरान लिखी डायरी के कुछ पन्ने यहां सबसे साझा कर रहा हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की दूसरी किस्त)

इंदिरानगर में मृत्यु उत्सव

        इंदिरानगर, न नगर है न गांव, वह तो विस्थापितों का एक मोहल्ला भर है। वहां पर होशंगाबाद और छिंदवाड़ा जिले के कई दुखियारों ने पनाह ली। सब रोजी रोटी की तलाश में भटकते हुए आए और यहां बस गए। रोरीघाट के तीन परिवारों ने भी यहीं पनाह ली और 1981 में नीमघान से भगाए गए आदिवासियांे को भी यहां ठिकाना मिला। बाद में इन सबको इंदिरा आवास योजना के तहत मकान के लिए 15 सौ रुपए मिले तो इसका नाम इंदिरानगर हो गया। इस बात को जमाना बीत गया लेकिन इंदिरानगर अनहोनी गांव का एक टोला ही बना रहा। अपने गांव से इस टोले की दूरी तीन किलोमीटर है।
        नीमघान के आठ परिवार अब भी इंदिरानगर में हैं। 1981-82 में जब सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के चलते नीमघान उजड़ा तो 150 घरों का गांव बिखर गया। लोगों को जबरन भगाया गया बिना किसी पुनर्वास के। तब 30-40 परिवार इंदिरानगर आ गए थे और दूसरे कई गांवों में बस गए, नांदिया, घोड़ानार, डापका, बिरजूढाना आदि। लखन दादा कुछ परिवारों के साथ इंदिरानगर में ही डटे रहे। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें राजस्व विभाग ने जमीन दी। आज उनके तीनों बेटों के पास पांच-पांच एकड़ जमीन है। इंदिरानगर में सभी के पास एक-दो एकड़ जमीन है। जो उन्हें बहुत बाद में राजस्व विभाग की मेहरबानी से मिली। दूसरी सुविधाओं ंमें एक प्राइमरी स्कूल और तीन सरकारी नलकूप, तीन-चार हैंडपंप और बस। देखकर ही लगता है प्रशासन ने इस गांव की सुध नहीं ली है।
        लखन दादा से बहुत बात हुई। उन्हें अपना पुराना गांव नीमघान सबसे ज्यादा याद था। वे उन अंतिम लोगों में से थे जिन्हें वन विभाग ने घरों में आग लगाकर भगाया था। तीन अप्रैल 2011 की वह यादगार दोपहर मैंने झोपड़े के पीछे खेत में लखन दादा के साथ गुजारी थी। उनकी हालत जर्जर थी। वे बीमार थे। खेत में टपरिया डाले चारपाई पर बैठे थे। उनके एक पैर में तकलीफ थी। उन्होंने उस पैर को रस्सी से बांधकर एक लकड़ी के सहारे लटका रखा था। अजीब दृश्य था। ऐसे पैर बांधकर लटकाने से उन्हें आराम मिल रहा था। मैंने कुछ फोटो भी लीं लेकिन उन्हें एकलव्य के कम्प्यूटर में सेव करना महंगा पड़ गया। तकनीकी  खराबी से सारी फोटो बेकार हो गईं।
        तकलीफ में भी नीमघान के नाम से जैसे लखन दादा खिल उठे। वे देर तक नीमघान के उजड़ने की कहानी सुनाते रहे। वन विभाग से लेकर राजस्व विभाग तक वे कई अधिकारियों से कई बार मिले। उनकी भागदौड़ का फायदा पूरे इंदिरानगर को मिला। आज सबके पास कुछ जमीन है। मैं मंत्रमुग्ध होकर उस बुजुर्ग से किस्से सुनता रहा। उनके बड़े बेटे जबर सिंह और पिपरिया के मित्र मायाराम भी साथ थे।
         लखन दादा शहद तोड़ने मे उस्ताद थे। उन्होंने सतपुड़ा की ऊंची चट्टानों से भी शहद के छत्ते तोड़े हैं जहां जाने की दूसरे सोच भी नहीं पाते। देर तक हम उन्हें सुनते रहे। वे थक गए थे। पैर बहुत दर्द कर रहा था। मैं सोच रहा था एक-दो मुलाकात और हो जाए तो मजा आ जाएगा। पर इसके लिए उनके स्वस्थ होने का इंतजार करना था, लेकिन खबर मिली की दूसरे दिन यानी चार अप्रैल2011 को ही ल खन दादा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
         यह अजीब संयोग था कि मुझे लखन दादा की मौत के बाद के कार्यक्रमों में शामिल होने का मौका मिला। यह सुन रखा था कि कोरकू समाज मृत्यु उत्सव मनाता है। सब मिलकर पीते-खाते और नाचते-गाते हैं, लेकिन कभी नजदीक से कोरकू समाज की इस रस्म को देखने का मौका नहीं मिला था। जैसे हिन्दुओं में मौत के बाद 11वीं पर खाना खिलाते हैं। लखन दादा की ग्यारहवीं भी हुई। हमने भी खाया। उसके दूसरे दिन ‘गाता’ कार्यक्रम हुआ जिसे जागर भी कहा जाता है। यह कोरकू समाज की सबसे महत्वपूर्ण रस्म है। इसमें लोग जरूर पहुंचते हैं। कुल मिलाकर चार-पांच दिन तक यह मृत्यु उत्सव चलता है।
        जबर सिंह ने अपने दो छोटे भाइयों के साथ मिलकर पूरे कार्यक्रम को आयोजित किया था। करीब 20 गांवों के सौ-डेढ सौ लोग इंदिरानगर मंे मौजूद थे। हमने देर तक गाता को गाते-नाचते देखा-सुना। ढोल बाजों के साथ औरत-मर्द सब झूमकर नाच-गा रहे थे। सबने महुआ की शराब छान रखी थी। युवा भी झूम रहे थे और वृद्ध भी। बीच में भोजन भी हुआ जिसमें गोश्त का एक सूखा टुकड़ा भी मिला। फिर नाच-गाना शुरू हो गया।
       सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए थे। उसे एक कपड़े में बांधा गया था। पटिए और कपड़े पर हल्दी लगी थी। एक ग्रामीण उसे अपने कंधे पर लेकर झूम रहा था। बीच में दो बाजे वाले बजा रहे थे और आदिवासी स्त्री-पुरुष गोल घेरे में नाच रहे थे। उनके गीतों में जीवन और मौत का दर्शन था तो जीवन के आनंद की धमक भी थी। पूरे दिन में उन्हें नाचते देखता रहा। नाच इतना तेज था कि कल एक ढोलक टूट गई। अब तक दो ढोल टूट चुके हैं। शराब के बारे में कहा गया कि कमी नहीं होने दी जाएगी। कल रात से लोग नाच रहे हैं और पी रहे हैं। गांव में करीब सौ-डेढ़ सौ लोगों का जमावड़ा था।
सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए हैं।
गाता का एक गीत 
ये जिंदगानी माटी पुतला
पानी गिरे घुल जाएंगे
ये जिंदगानी कागज का पुतला
पानी गिरे गल जाएंगे
       शाम को सब लोग नाचते गाते गांव के बाहर महुआ के पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां पटिए को पेड़ से टिकाकर रख दिया गया। लोग उस पर महुआ छिड़क रहे थे। उसी वक्त मैंने लखन दादा की बेटी को रोते हुए देखा। मुझे पहला कोई व्यक्ति मिला जिसकी आंखों में आंसू थे वर्ना यहां तो सभी झूम रहे हैं और नाच-गा रहे हैं। दूर से कोई शादी का जश्न समझ सकता है लेकिन यह गाता है। बैतूल में कोरकू इसे जागर कहते हैं। 
         रात भर के लिए उस पटिए को महुआ के पेड़ के ऊपर रख दिया। सुबह सब लोग इसे लेकर पगारा रवाना होंगे। पगारा पचमढ़ी के पास है। वहां एक पेड़ के नीचे इस इलाके के कोरकू मृत आत्मा के नाम का सागोन का पटिया गाड़ देते हैं।
अलविदा लखन दादा
          जबर सिंह ने बताया सुबह सब लोग पैदल पगारा जाएंगे। जो यहां से करीब 30-35 किलोमीटर पड़ेगा। उसके बाद शाम तक सब वापस आ जाएंगे। इस तरह मौत के बाद का उत्सव चार-पांच दिन तक चलता है। इसमें समाज के सभी लोगों का आना अनिवार्य है। जबर सिंह ने बताया करीब तीस हजार का खर्चा आया है।
            इंदिरानगर में गाता कार्यक्रम को देखकर मन हल्का हो गया। विस्थापन के बाद भी इंदिरानगर के कोरकू अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोये हुए हैं। अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद ‘गाता’ उन्हें एक दूसरे से जोड़े हुए है।  


          

Wednesday, June 6, 2012

उजड़े गांवों का राग-एक

(क्राय की फेलोशिप के तहत विकास, विस्थापन और बचपन पर होशंगाबाद जिले के तीन गांवों में अध्ययन किया गया रोरीघाट, इंदिरानगर और नया धांई। रोरीघाट अभी विस्थापित नहीं हुआ है पर 30 साल से विस्थापन की राह देख रहा है। गांवों की यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी के कुछ पन्ने यहां आप सब से साझा करना चाहता हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की पहली किस्त)

तब से अब तक रोरीघाट

        रोरीघाट जाते हुए सचमुच में मैं रोमांचित था। इतने बरसों बाद फिर उस गांव की यात्रा। रोरीघाट में 1981-82 में बहुत समय गुजरा है। उन दिनों की डायरी ने हमेशा मेरी स्मृतियों में इस गांव को ताजा रखा। हर माह एक हफ्ता, साल भर तक। वह मेरी उम्र का 25वां साल था। जंगल-पहाड़ और आदिवासियांे के जीवन में झांकने का पहला मौका। किशोर भारती के एक शोध अध्ययन कार्यक्रम के तहत यह यात्राएं की गई थीं। इसका नेतृत्व इलीना सेन कर रही थीं। 29 साल बाद क्राय की फेलोशिप ने एक बार फिर रोरीघाट जाने का मौका दे दिया। सचमुच यह सपने जैसा लग रहा था। श्रीगोपाल की बाइक के पीछे बैठा में जैसे सतपुड़ा के जंगलों में खो गया था।
         उस जमाने में गांव के एक बुजुर्ग परसन सिंह जिन्हें नेत्रहीन होने के कारण सब सूरदास कहते थे, मैं उनके झोपड़े में ठहरता था। बीच में हमेशा अलाव जलता रहता था। उसी में मैं अपना और सूरदास का खाना बनाता था। सुबह-शाम आदिवासियों से चर्चा होती और दोपहर को मैं सतपुड़ा के जंगलों की खाक छानता रहता।  पहली बार इलीना सेन के साथ जीप से गांव तक गए थे। उसके बाद साल भर तक पचमढ़ी से पैदल आना-जाना ही हुआ। रास्ते में तुलतुला पड़ता था। वहां चट्टान से पानी रिसता था और नीचे कटोरेनुमा चट्टान के टुकड़े में भर जाता था। राहगीर उसी से पानी पीते थे। वे पत्तों से गिलास का काम लेते।
         श्रीगोपाल ने बताया उस तुलतुले से ही सिद्धबाबा तक पानी पहुंचाया गया है। सिद्धबाबा एक ऊंची पहाड़ी पर है। वहां वन विभाग की चैकी है। हमारी बाइक जिन रास्तों पर गुजर रही थी वहां बाइक चलाना सचमुच बड़ी बात थी। ऊबड़ खाबड़ पंगडंडी, कहीं-कहीं तो जैसे रास्ते में चट्टानें ही उग आई हों। पचमढ़ी से सीधा उतार। कितने ही पहाड़ों की चोटी पर खड़े होकर हमने रोरीघाट को देखा। बरसों पुराना गांव, वैसे ही पहाड़ों और हरियाली से घिरा हुआ।
        आज के रोरीघाट में कदम रखते हुए पुराने दिनों की स्मृतियां ताजा हो गईं। वहीं पथरीली राह, चार मोहल्ले और नई बात सभी मोहल्लों में सोलर लाइट, घर में भी और हर मोहल्ले में एक रास्ते पर। बड़ाढाना में अब पहाड़ी झरने चवनार से पानी आ गया है। दूसरे मोहल्ले वाले अब भी नदी से ही पानी लाते हैं। चवनार पहाड़ी पर हमने कई दोपहर गुजारी हैं। कुछ लिखते पढ़ते या अपनी डायरी ही पूरी करते और झरने में जमकर नहाते। होशंगाबाद के हमारे मित्र सुशील जोशी ने भी उस झरने में खूब नहाया है। उन दिनों कई दोस्तों ने मेरे साथ रोरीघाट की यात्रा की है, अशेष, अरविंद सरदाना,  मीरा, सुशील जोशी, जोगेन सेनगुप्ता, रामवचन दुबे आदि। थोड़ी देर तक तो जैसे मैं नए रोरीघाट में पुराने को ढूंढते रहा। गांव का स्कूल और आंगनबाड़ी दूर से दिखाई देते हैं।
      हम पहंुचे तो गांव सूना लगा। गुरुवार को पचमढ़ी में बाजार लगता है और रोरीघाट के लोग  पचमढ़ी गए हुए थे। सम्मर सिंह अपनी झोपड़ी में मिले। उनसे घुलने-मिलने में ज्यादा देर नहीं लगी। जब मैंने तार सिंह दादा के बारे में पूछा तो वे बोले तार सिंह मेरे दादा थे। मेरी डायरी में तार सिंह से लंबी बातचीत दर्ज है। लेकिन सम्मर सिंह को मैं नही पहचान पाया। सम्मर सिंह बोले मैं अपने दादा से बहुत डरता था। वे जहां होते थे वहां फटकता भी नहीं था इसलिए उस समय आपसे सामना नहीं हो पाया होगा। सम्मर सिंह के साथ उनकी बेटी और दामाद भी रहते हैं। उनके बच्चे हमारे आसपास घूमते रहे। मीना सम्मर सिंह की बेटी है। पांचवीं में पढ़ती है। उसी ने हमारे खाने-पीने की व्यवस्था की।

पुरानी डायरी में तार सिंह दादा
‘शाम तक पांच परिवारों के उनके कामधंधे को लेकर बातचीत हुई। इन्हीं में से एक हैं तार सिंह, उनकी उम्र 75 साल के लगभग है। एक पैर से अपंग हैं। कान में पीतल का बड़ा सा छल्ला डाले हैं। यहां के इतिहास को कुरेदते हुए उन्होंने राजा बलवंत सिंह का नाम बताया। जो पहले पचमढ़ी का कोरकू आदिवासी राजा था। उसके राज्य में 52 गांव थे। बाद में अंग्रेजों ने उससे पचमढ़ी छीन ली और पांच गांव दे दिए, रोरीघाट, काजीघाट, चूरनी, घुटकेरा और नादिया। यह नाम परसन सिंह ने बताए। बलवंत सिंह शिव का भक्त था। अंग्रेजों ने इस इलाके में खूब शिकार किया है और अच्छी बख्शीश के बदले आदिवासियों की खूब सेवा ली है। तार सिंह ने यह सब अपनी आंखों से देखा है। अंग्रेज गांव से अलग रहते थे और उनकी मेम उनसे अच्छा निशाना साध लेती थी।’
                                                                                                                                   
 22 नवम्बर 1981

           सम्मर सिंह से मैंने इकतार सिंह और रोनी बाई के बारे में पूछा, उनकी बेटी सुनीता। पता चला अब उनके परिवार में कोई नहीं हैं। अतर सिंह नाम के जिस बच्चे के साथ मैंने जंगल के खेत पर मचान में रात बिताई थी, वह बालक भी नहीं है। उसकी बीमारी में मौत हुई। कितने ही लोग उस जमाने के अब नहीं है। सम्मर सिंह ने बताया सूरदास का झोपड़ा कुछ आगे था जहां अब भी खाली जगह पड़ी है। उनके पोते दुलार और अधार ने भी बरसों पहले रोरीघाट छोड़ दिया। वे चाटुआचांदकाल गांव में बस गए। उस परिवार का अब कोई भी यहां नहीं है। कैलाश का जवान बेटा भी बीमारी में चल बसा। 15 दिन पचमढ़ी के अस्पताल में भर्ती भी रहा। कैलाश को पता ही नहीं है कि किस बीमारी से उसकी मौत हुई।
         श्यामलाल दादा की भी मौत हो गई। मेरी याददाश्त में श्यामलाल वह नौजवान है जिसने उस साल जंगल से सबसे ज्यादा रामबुहारी तोड़ी थी। उस नौजवान को ही आज की पीढ़ी श्याम दादा कहा रह रही थी। उनकी बेटी सरस्वती से मुलाकात हुई। सरस्वती सातवीं में पचमढ़ी छात्रावास मे रहकर पढ़़ाई करती है। वह श्यामलाल के बड़े बेटे रामप्रकाश के साथ रहती है। उनके तीन बेटे हैं। देखने-सुनने में बीमारियों से मौतों की बात सामने आ रही है। श्याम दादा की मौत टीबी से हो चुकी है। सुनने में आया है कि गांव में टीबी के दो-चार मरीज हैं लेकिन न वे जागरूक हैं और न व्यवस्था ही संवेदनशील है। 
          और फिर आए कुंजीलाल। वे मुझे पहचान गए। जब बात चली तो उन्हें बहुत कुछ याद आ गया। उन्हें सूरदास के घर में चलने वाले स्कूल की याद थी। तब हुआ यह था कि होशंगाबाद के जिला शिक्षा अधिकारी बशीर साहब ने कुंजीलाल से कहा था वह गांव के बच्चों को पढ़ाए उसे पक्का कर देंगे। कुछ महीने सूरदास के झोपड़े में स्कूल चला। बाद में साहब ने कुछ नहीं किया और कुंजीलाल ने पढ़ाना छोड दिया। कुंजीलाल ने बताया कि कितने ही लोग बीमारी और हादसों में चल बसे। गांव वालों की जिंदगी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। खेती वैसे ही कमजोर है। मजदूरी, मेला और वन उपज का ही सहारा है। खुद कुंजीलाल शिक्षक तो नहीं बन पाए पर वन विभाग के वाचर बन गए हैं। 
कुंजीलाल 

उनका बेटा सुखलाल भी वाचर है, लेकिन ऐसी किस्मत सबकी नहीं है। ज्यादातर लोग वैसे ही मशक्कत कर रहे हैं। वन विभाग के लोगेां की धौंस जारी है। उन्हें कुछ दिए बिना झोपड़े की मरम्मत तक नहीं कर सकते।
         तभी चतर सिंह पर नजर पड़ी। मैं उसे फौरन पहचान गया। उसका चेहरा परिपक्व हो गया था लेकिन उसमें बचपन के चतर सिंह की झलक थी। उसे मेरी कुछ भी याद नहीं थी। वह उस समय दस साल का रहा होगा। आज 38-39 साल का होगा। मैंने उसे डायरी का वह हिस्सा पढ़कर सुनाया जिसमें उसके साथ मेरी बातचीत दर्ज थी। अफसोस, उसे कुछ भी याद नहीं आया। लेकिन इससे मेरे रोमांच पर फर्क नहीं पड़ा। मैं जवान चतर सिंह से मिलकर सचमुच बहुत उत्साहित था। चतर सिंह के दो बच्चे हैं।

पुरानी डायरी में चतर सिंह

चतर सिंह

‘मैं चतर सिंह के यहां आकर बैठ गया। चतर सिंह 10-12 साल का लड़का है। घर में अकेला आग के पास बैठा था। घर के अन्य सदस्य जंगल में कुटकी की कटाई के कारण वहीं हैं। चतर सिंह सड़क निर्माण कार्य में मजदूरी करने जाता है। वह बहुत मासूमियत के साथ ठहर-ठहर कर बात करता है। उसकी बातचीत में नयापन और गहरी निश्छलता होती है। उसने पूछा तुम्हारा कितना काम हो गया, कितना रह गया है। इसके बाद कहां जाओगे। मैंने उसे सब बताया। उसने कहा हां पिपरिया और बनखेड़ी का नाम सुना है पर उधर गया नहीं।  
                                                                                24 नवम्बर, 1981

         दो-तीन घर आगे ही गनपत सिंह का मकान है। हम उनसे भी मिले। गनपत सिंह, 60-65 के बीच की उम्र के हैं। उनका पुत्र संपत सिंह गांव का सरपंच है। पचमढ़ी में रहता है। एक पुत्र की हाल ही में मौत हो गई। वह रेंजर के यहां घरेलू नौकर था। तबादले के बाद रेंजर उसे साथ ले गए, छोड़ नहीं रहे थे। फिर एक दिन उसकी आत्महत्या की खबर आई। संपत का कहना है कि यह आत्महत्या नहीं है। मामले की जांच होनी चाहिए। एक अखबार में उसका बयान भी प्रमुखता से छपा है। गनपत सिंह झ्स मुद्दे पर बात करना नहीं चाहते। वे उदास निगाहों से सतपुड़ा के पहाड़ों को निहारते हैं। फिर उदास लहजे मंे कहते हैं ‘क्या करें, पड़े हैं इस गड्ढे में।’ पहाड़ों से घिरे होने के कारण उन्होंने रोरीघाट को गड्ढे की उपमा दी और यह भी उजागर कर दिया कि यहां मौके नहीं हैं। उन्होंने बताया कि लोग तो यहां से जाना चाहते हैं लेकिन सरकार कुछ करती ही नहीं। यहां क्या है? सिर्फ मेहनत, मशक्कत और अभाव। रोरीघाट में पानी और लाइट के आने को उन्होंने कोई खास तवज्जो नहीं दी। 
          हम उनके घर के पीछे आंगन में बैठे थे। उसके सामने ही सतपुड़ा के पहाड़ हैं। गनपत दादा की उदासी टूट नहीं पाती हैं। यह शायद पूरे रोरीघाट की उदासी भी है। जंगल से निकलने के लिए नौजवानो के सामने वन विभाग की चैकीदारी की नौकरी या बड़े अधिकारियों के घर काम करने का ही रास्ता बचता है। गांव के दो-तीन युवक अब भी पचमढ़ी में अफसरों के घर काम कर रहे हैं। गनपत सिंह के बेटे की मौत के पीछे भी कोई कहानी है, लेकिन उस तक पहुंचना इतना आसान नहीं है।
          यह हैरत की बात है कि बहुत कम लोग ही लोग ही यहां से निकल पाए हैं। 30 साल पहले एक भी बच्चा पचमढ़ी या मटकुली में नहीं पढ़ता था। आज चार बच्चे मटकुली और दो पढ़मढ़ी में पढ़ रहे है। पहले पचमढ़ी से नीचे उतरने वाले इक्का दुक्का ही थे। रेलगाड़ी देखने और उसमें बैठने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे। आज यह संख्या बढ़ी हैं। कुंजीलाल बेटे के साथ पोते को डाॅक्टर को दिखाने के लिए बाइक से पिपरिया गए थे। तब भी यह हैरत की बात है कि गांव की आधी आबादी आज भी पचमढ़ी से नीचे नहीं उतरी है।
          रात को सोलर लाइट का महत्व समझ में आता है। महुआ ढाना में हम गजराज सिंह के झोपड़े के सामने आंगन में बैठे थे। मोहल्ले के कई लोग जमा हो गए थे। चंद कदम दूर ही स्ट्रीट लाइट जल रही थी। उसकी रोशनी आंगन के एक हिस्से पर पड़ रही थी। लोगों ने माना इससे सहूलियत हो गई है। सम्मर सिंह के झोपड़ी में एक बल्व जल रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे तक वह जला। इसके बाद चिमनी से काम लेना पड़ा। लोगो ंकी छतों पर रखे सोलर लाइट के पैनल दूर से चमकते हैं।
            स्कूल और आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों के चेहरों पर मुसकान है। वे कम बोलते हैं पर हमेशा खिले रहते हैं। दो बच्चों के हाथ में तीन कमान थे। इसे उन्होंने सफाई से बनाया था। थोड़ी देर निशानेबाजी का खेल भी चला। कम बच्चे ही अपने अनुभव लिख पाए, लेकिन छोटे बच्चों ने बहुत मौज ली। स्कूल और आंगनबाड़ी ने बच्चों की जिंदगी पर असर डाला है। यह दिखाई देता है, लेकिन प्राइमरी के बाद सब कुछ बदल जाता है। सिर्फ दो-चार फीसद बच्चे ही आगे पढ़ने पचमढ़ी या मटकुली जा पाते हैं। 90-95 फीसद बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। इस स्कूल को आठवीं तक करने की मांग हो रही है। आदिवासियों को उम्मीद है कि इस साल यह आठवीं तक हो जाएगा। उसके
 बाद पचमढ़ी में इन बच्चों के लिए अलग से इंतजाम किए जाने चाहिए। कई बच्चे इकट्ठे हो गए। आंगनबाड़ी और स्कूल वाले बच्चों ने थोड़ी देर के लिए माहौल को खुशगवार बना दिया था। छोटे बच्चों के खिले चेहरे और कुछ बड़े बच्चों के जुझारूपन से रोरीधाट अब भी चमक रहा है। इस नये रोरीघाट की ताकत भी यही हैं। कई चिंताएं भी हैं मगर इनके हौसले बुलंद हैं।

Tuesday, May 8, 2012

मूर्खता का दरबार

       बचपन में एक कहानी सुनी थी। शायद पंचतंत्र से, एक बनिये का बेटा नालायक निकल गया। वह उसे घर से निकाल देता है और कहता है कि अगर तू मेरा बेटा है तो मरे चूहे से भी कमा सकता है। जब कमा लेना तब घर आना। कहानी के नायक को सचमुच एक मरा चूहा मिल जाता है और वह उसे एक बिल्ली वाले को देकर उससे मटका लेता है। फिर मटके से पानी पिलाने का काम, फिर मटका बदलकर कुछ और...इस तरह कुछ समय में ही वह धनवान बन जाता है।
      लेकिन हकीकत कहानी से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। आधुनिक युग में एक बाबा ने यही साबित किया। मरे चूहे से कमाना पुराने जमाने का कौशल था। नए जमाने में चूहे को भी नहीं मरना पड़ता और आदमी धनकुबेर बन सकता है।    चाहे तो भगवान बन सकता है और अगर भगवान बनने का दिल न चाहे तो भगवान का एजेंट भी बना जा सकता है। बाबा ने कहा आदमी अगर गुणी है तो वह मुफ्त में मिलने वाली चीज को भी बेच सकता है। प्रापर्टी से लेकर कई तरह के धंधों में हाथ आजमा चुके बाबा ने अंततः ईश्वर की कृपा बेचना तय किया। जो भी जीव संसार में आया है, वह इसलिए आ पाया क्योंकि उस पर ईश्वर की कृपा है, तमाम तरह के धर्मग्रंथ ऐसा ही कहते हैं। बाबा के नाते रिश्तेदार और दोस्त यार बिगड़े, बहुत मूखर्तापूर्ण बात है भला ईश्वर की कृपा भी कोई बेच सकता है। तुम्हें लगता है दुनिया इतनी मूर्ख है कि तुम्हारी कृपा खरीदने लाइन में लग जाएगी। बाबा बोले यही तो इस काम का मजा है कि लोगों की मूखर्ता से मुनाफा कमाओ और महान भी बन जाओ।
       बिना प्रचार प्रसार के कौन मूर्ख बाबा की कृपा खरीदने आता। इसके लिए बाबा ने कृपा का नकली दरबार लगाया। उसकी वीडियोग्राफी करवाई और फिर आकर्षक विज्ञापन तैयार करवाकर न्यूज चैनलों से संपर्क साधा। न्यूज चैनल ज्यादा कमाने की लालसा में बाबा के मूखर्ता के दरबार का प्रचार प्रसार करने को तैयार हो गए। बाबा ने उन्हें अच्छी खासी रकम दी। इधर न्यूज चैनलों की कमाई बढ़ी और उधर बाबा का धंधा भी चल निकला। कुछ दिनों में ही बाबा टीवी पर छा गए।
लोगों की जागरूकता का स्तर यह है कि वे समझें कि यह न्यूज चैनलों की लाइव रिपोर्टिंग है। वे यह सोच ही नहीं पाए कि यह विज्ञापन भी हो सकता है। बाबा की योजना कामयाब रही और बाबा का मूखर्ता का दरबार सजने लगा। बाबा विज्ञापन में बकायदा बैंकों के एकाउंट नम्बर देता है जिसमें रकम जमाकर आप दरबार में सीट बुक करवा सकते हैं। और दरबार में होता क्या है? एक ऊंचे सिंहासननुमा कुर्सी पर विराजमान बाबा किसी राजा-जमींदार की तरह जो मन में आए बोल देते हैं और वह ब्रह्म वाक्य बन जाता है। उनके उपाय और कृपा बरसाने वाली साधारण बातें भी लोगों को असाधारण लगने लगती हैं और भक्त अपनी बात कहते कहते बिलख पड़ते हैं।
        आखिर 33 करोड़ देवी देवता वाले धर्म के लोगों को कितने ईश्वर चाहिए? कितने बाबा चाहिए? बाबा के भक्तों में ज्यादातर शिक्षित हैं, लेकिन उनकी शिक्षा कितनी अधूरी है यह एक लंपट बाबा के सामने उनके समर्पण से जाहिर है। जिन आदि शक्तियों और ईश्वर की कृपा की बात की जाती है वह दलालों के माध्यम से मुमकिन ही नहीं है। उसके लिए तो बस निर्मल मन से ध्यान लगाना ही काफी है।

तीस साल पहले अंधविश्वास और जागरूकता

 1982 की बात है। किशोर भारती संस्था में अंधविश्वासों के खिलाफ एक कार्यशाला आयोजित की गई। हम जैसे आसपास के कुछ नौजवान उसमें शिरकत कर रहे थे। लोक विज्ञान संगठना महाराष्ट्र के नेतृत्च में यह कार्यशाला हो रही थी। शायद पांच दिन या हफ्ते भर की थी। कार्यशाला के दौरान लोक विज्ञान संगठना वालों ने हमें कई तरह के चमत्कारों को करने का विज्ञान समझाया। जैसे खाली हथेली से भभूत निकालना, कलश के ऊपर रखे नारियल में अचानक आग लगा देना, अंगारों पर चलना। अंतिम दिन तय हुआ कि इस प्रशिक्षण का गांव में प्रदर्शन किया जाए और अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम शुरू की जाए। बनखेड़ी से कोई आठ-दस किलोमीटर पर मछेरा कलां गांव है। इसी गांव से शुरुआत करनी थी। हमने एक नाटक तैयार किया कि कैसे एक बाबा चमत्कार दिखाकर जनता को भ्रमित करता है और गांव के कुछ नौजवान उसका भंडाफोड़ करते हैं और उसके चमत्कारों के पीछे का विज्ञान जनता को बताते हैं। एकलव्य, भोपाल के कमल सिंह को बाबा की भूमिका दी गईं। नाटक के पहले पांच मिनट बाबा के थे और उसके बाद दस मिनट चमत्कारों के विज्ञान पर केंद्रित थे। लेकिन गजब हो गया, बाबा के पांच मिनट होने से पहले ही उपस्थित जनसमूह उनके कदमों पर लोटने लगा। बाबा की जयकार होने लगी। ऐसा माहौल बन गया मानो सचमुच कोई महान बाबा अचानक गांव पर कृपा करने कहीं से आ गया है। हम सबको बहुत श्रम करना पड़ा यह समझाने में कि यह बाबा नहीं, हमारे नाटक का पात्र है। एक झटके में कमल सिंह की नकली दाढ़ी उखाड़ दी गई। काफी देर लगी माहौल को फिर बनाने में और तब कहीं जाकर हम पूरा नाटक कर पाए।

कैसे लगे ईश्वर का सुराग

हम सबको ही ईश्वर की बहुत जरूरत है पर अक्सर हम दलालों में उलझ जाते हैं और कुछ कर्मकांड करके ही मान लेते हैं कि हमने ईश्वर की निकटता पाली है। ईश्वर की तलाश हर इंसान करता है, हमने भी की और जो कुछ सुराग मिले वह गजल के रूप में आपके सामने है -

न मंदिरों में है कहीं, न मस्जिदों में है
भगवान तेरे मेरे सभी के दिलों में है

दाने की शक्ल में कहीं फसलों में जड़ा है
पानी की बूंद की तरह वो बादलों में है

भूख में है, प्यास में है, आस में है वो
चूल्हे की आग बनके वो सबके घरों में है
 
बच्चों की हंसी में है वो, मांओं के दिलों में
कहकहे बांटता हुआ वो पागलों में है

लालच की नाव पे’ है न तन के सुखों में है
चीखों में, घायलों में, हमारे दुखों में है

मजदूर के पसीने की खुशबू में है बसा
खेत की मिट्टी में वो हल बक्खरों में है

मुल्लाओं-पंडितों की गलतफहमियां हैं ये
वो उनके ही खींचे हुए कुछ दायरों में है

उल्फत के इस सफर में अकेला कहां हॅै तू
हरेक कदम पे’ वो तो तेरे रास्तों में है

Tuesday, February 28, 2012

वोट तुम दइयो काका रे...

         उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र का उत्सव चल रहा है। आज नोएडा में मतदान है। हम अभी सेक्टर 34 के कम्यूनिटी सेंटर में वोट डालकर लौटे हैं। हमारा वोट किसी प्रत्याशी के लिए नहीं था। हमने लोकतंत्र को वोट दिया है इसलिए कि लोकतंत्र से बेहतर व्यवस्था कहीं नजर नहीं आती लेकिन हमारे देश के लोकतंत्र में हजारों खामियां भी हैं। नोएडा में मुझे एक भी ऐसा प्रत्याशी नहीं मिला जिसे वोट दिया जाए। सरकार बनाने को आतुर एक बेसब्र दल ने यहां से गैंग रेप के आरोपी को टिकट दिया है। कांग्रेस और भाजपा ने शहर के सबसे बड़े दो डाक्टरों को मैदान में उतारा है। दोनों डाक्टरों के बड़े क्लीनिक हैं। उन्होंने इतना पैसा कमा लिया है कि अब उन्हें मरीज देखने की जरूरत नहीं है। अब वे संसद या विधानसभा में बैठकर सत्ता का स्वाद चखना चाहते हैं। इस सीट से 29 प्रत्याशी मैदान में हैं। दो ईवीएम मशीन हैं जिनमें वोट देना है। जब हम वोट डालने पहुंचे मतदानस्थल पर सन्नाटा था। चंद पुलिस वाले, दो चार दस लोग] बस।
         कई दिनों से सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान चलाया जा रहा है। एक अखबार तो लोगों को राजनीति सिखाने का दंभ भर रहा था और खुद ही अपनी पीठ भी थपथपाता था, लेकिन उस अखबार ने भयावह होते जा रहे इस लोकतंत्र की खामियों को ठीक करने के लिए राजनीतिक दलों पर न दबाव डाला न उन्हें सुझाव दिए। कभी कहते थे अखबार लोकतंत्र का चैथा खम्बा हैं, लेकिन अब यह खम्बा पटरी से उतरी लोकतंत्र की गाड़ी के लिए जैक का काम भी नहीं पा कर रहा है।
       लोकतंत्र के उत्सव के दौरान दो पुराने गीत याद आए। एक गीत कबीर से प्रेरणा लेकर बरसों पहले लिखा गया था और दूसरे गीत में लोकतंत्र की कुछ खामियांे का जिक्र है। यह दो-तीन साल पुराना गीत है। इस मौके पर दोनों गीतों को याद करना गलत नहीं होगा, तो चलिए बरसों बाद उन गीतों को हम एक बार फिर गुनगुनाएं।

संभल अब भयो धमाका रे...

सारी दुनिया की सुनो आज उलट दें रीत
जीती पाली हार है, हारी पाली जीत
उलट दैहें जो खाका रे....

बंदरा सब मिलकर लड़ें अबकी बेर चुनाव
भाषण दैवे आएगा, कौवा कांव कांव
वोट तुम दइयो काका रे....

गदहा अब पूजा करे, बजा बजा के ढोल
मंत्र पढ़ेगी लोमड़ी, जोर जोर से बोल
न खइयो कोई सनाका रे.....

शेर करेगा चाकरी, मच्छर करहैं राज
ढोर बनेंगे मंत्री, सबको एकई काज
वे फोड़े रोज पटाखा रे......

घूम घूम के दे रओ, सियार सबहे उपदेश
बीस चार सौ सूत्र हैं, सबई एक सी डिरेस
पहने के डारो डाका रे......
ये लोकतंत्र कैसा

ये लोकतंत्र कैसा
ये लोकतंत्र कैसा
नेता वहीं है जिसके पास बहुत पैसा
ये लोकतंत्र कैसा

शोक में लोक और तंत्र है गुलजार
देश में खिजां है मगर सदन में बाहर
है जिन्दा आदमी भी कागज के वोट जैसा
ये लोकतंत्र कैसा

बड़े गुंडे और मवाली करें तंत्र की रखवाली
सहमी सी रहे जनता, डरकर बजाये ताली
अब चुनाव में भी करतब दिखाए भैंसा
ये लोकतंत्र कैसा

जनता के घर में चोरी और मुनाफाखोरी
न जाने कब भरेगी, नेताओं की तिजोरी
बुत बनाएं अपना और खर्च सबका पैसा
ये लोकतंत्र कैसा

ये लोकतंत्र कैसा
दागी के दाग जैसा, ये लोकतंत्र कैसा
पैसे से बना पैसा, ये लोकतंत्र ऐसा
न मेरे तेरे जैसा, ये लोकतंत्र कैसा
ये लोकतंत्र कैसा, ये लोकतंत्र कैसा


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