Sunday, December 5, 2010

इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं |

वह एक उजली सुबह थी, जैसे नहा धोकर शहर तैयार हो। गली मोहल्लों से लेकर छोटे-बड़े घर साफ सुथरे और ताजा नजर आ रहे थे। सड़कों पर चहल पहल ज्यादा थी। जिस घर के सामने से गुजरे वहां चमकते हुए आंगन रंगोली के इंतजार में नजर आए। वह दिवाली की सुबह थी, बाकी दिनों से अलग। जैसे त्योहार के लिए उसने भी सफेद झक पोशाक पहन ली हो। मैं अपने छोटे बेटे अमल के साथ समय पर ही जबलपुर पहुंच गया था। यह पहला मौका था जब दिवाली के दिन मैं इस शहर में मौजूद था। बचपन से इस शहर से नाता है। यहां मेरा ननिहाल है और बाद यह मेरी ससुराल भी बना। यहां आने का कारण मेरी पत्नी आरती की छोटी बहन ज्योति है। उसका फोन आते ही आरती और हमारा बड़ा बेटा अबीर फौरन जबलपुर रवाना हो गए। हम आज पहंुचे।

ज्योति का घर दूर से आम घरों की तरह ही नजर आया। हालांकि उसमें वह चमक नहीं थी जो अन्य घरों में नजर आ रही थी, लेकिन बिना लिपा पुता घर भी जिंदा इंसानों की धमक से महक रहा था। मेरे सामने ही ज्योति के छोटे बेटे सोभित ने सामने वाली दीवार की पुताई की थी। ज्योति की शादी के बाद पिछले बीस बरस में मैें यहां कई बार आ चुका हूं। सिविल लाइंस के पास बसे इस कोने को गोविंद भवन कहा जाता है। यह ज्योति और राजकुमार का घर है। राजकुमार घासीराम विश्वविद्यालय बिलासपुर में नौकरी करता है। घर के बगल में ही एक पुरानी बावड़ी के खंडहर हैं। वह सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी तो होगी ही। घर में दाखिल होते ही एक बड़ा हाॅल है। उसके एक कोने मे ज्योति का बिस्तर है। वह बात करने की हालत में नहीं है। लगातार कराह रही है। दर्द उसे एक पल चैन नहीं लेने दे रहा है। उसने एक बार नजर उठाकर देखा जरूर, कुछ कहना चाहती थी लेकिन जुबान से शब्दों की जगह बस कराह ही निकली। बेबसी में उसने आंखें भींच लीं।

ज्योति स्तन कैंसर से जूझ रही है। पांच साल से भी ज्यादा समय हो गया, वह कैंसर से हार मानने को तैयार नहीं है। इतने बरस टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई में उसका इलाज चला। पांच साल पहले की बात है। आरती जबलपुर में थी। उसका फोन आया कि ज्योति के सीने में गांठ है। मैंने फौरन जांच की सलाह दी। जांच में कैंसर की पुष्टि हो जाने के बाद आरती उसे मुंबई ले गई। बरसों पहले उनके पिता उन्हें मुंबई घुमाने ले गए थे और इतने बरस बाद वह अपनी बहन का इलाज करवाने उसे मुंबई लाई थी। उसके बाद इलाज का लंबा दौर और कभी न खत्म होने वाले संघर्ष की शुरुआत। ज्योति ने हर कदम पर अदभुत साहस का परिचय दिया। उसके सीने में एक नली डालकर कमर के पास एक बोतल लटका दी गई थी। उसमें से बंूद बूंद काला रक्त टपकता था। ज्योति मुंबई की लोकल ट्रेन में भी वह बोतल संभाले सफर कर लेती थी। जब जरूरत बड़ी हो तो हर कदम पर संभल कर चलना पड़ता है। ज्योति ने कभी शिकायत नहीं की। उसने टाटा मेमोरियल में इलाज करवाने के दौरान एक एनजीओ के लिए सिलाई का काम भी किया है। वह जूझने को तैयार थी। बस उसे यह बात समझ में नहीं आती थी कि उसे स्तन कैंसर क्यों हो गया। आखिर वह ही क्यों?

कीमोथेरेपी का एक दौर खत्म हो चुका था। ज्योति को ठीक होने का भरोसा होने लगा। तभी कैंसर ने फिर करवट ली। कुछ गांठे निकल आईं। वह फिर मुंबई पहुंची। डाॅक्टर आपरेशन की तैयारी करने लगे, लेकिन तब तक गांठे दो से शायद चार-पांच हो गईं। डाॅक्टरों ने आपरेशन नहीं किया। कहा, अब हाईपावर कीमोथेरेपी करना पड़ेगा। उसका खर्च बहुत अधिक था। एक बार में 35 हजार रुपए। तभी दवा बनाने वाली एक अमेरिकन कंपनी आगे आई। उसने खर्च उठाने का जिम्मा लिया। फिर एक साल तक हाईपावर कीमोथेरेपी का दौर चला। कहते हैं हर शरीर हाईपावर कीमोथेरेपी बर्दाश्त नहीं सकता। उसके साइड इफेक्ट बहुत खतरनाक होते हैं। ज्योति का जिस्म भीतर और बाहर छालों से भर गया। नाखून गलकर उतरने लगे। एक दर्द से बचने के लिए दूसरे दर्द को अपनाने के सिवा कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था। ज्योति ने फिर भी हार नहीं मानी। वह उस अवस्था में भी घर के काम करती और अपनी देखभाल भी खुद कर लेती। कई बार सुनकर हमें आश्चर्य होता, लेकिन कैंसर धीरे-धीरे उसे भीतर से तोड रहा था। वह लगातार कमजोर होती जा रही थी। उसने मुंबई जाना बंद कर दिया। एक बार दिल्ली आई। हमने हौजखास में एक होम्योपैथिक महिला डाॅक्टर को दिखाया। वह दवा लेकर लौट गई, लेकिन उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ।

इस बीच उसके बड़े बेटे मोहित ने टीवी पर कृष्णा कैंसर हास्पिटल दिल्ली का एक विज्ञापन देखा। वह अस्पताल कैंसर की अंतिम स्टेज पर दवा देकर ठीक करने का दावा करता है। राजकुमार दिल्ली आया। हम फ्रैंड्स कालोनी स्थित कृष्णा कैंसर हास्पिटल पहुंचे। मुझे ऐसे अस्पतालों पर कतई भरोसा नहीं था, लेकिन राजकुमार को हम निराश नहीं करना चाहते थे इसलिए उनसे दवा ली। एक दिन की दवा हजार रुपए की और न उसकी रसीद मिली और न ही दवा का नाम बताया गया। दो माह दवा खाना जरूरी है यानी 60 हजार रुपए खर्च करने की हिम्मत हो तो इलाज करवाओ अन्यथा रहने दो। यह बात अस्पताल के एक अफसर ने कही। अस्पताल के इस चेहरे ने मुझे अविश्वास से भर दिया, फिर भी हमने दस दिन की दवा ले ली। तीन-चार बार राजकुमार ने जबलपुर से रकम भेजकर कोरियर से भी दवा मंगवाई। शुरू में लगा जैसे दवा से आराम लग रहा है, लेकिन बाद में उसका असर कुछ समझ में ही नहीं आया। जिनके अपने कैंसर से पीड़ित हैं वे अंतिम समय में भी चमत्कार होने की उम्मीद पाले रहते हैं। कुछ लोग हैं जो उम्मीद की इस भावना को भी भुनाने से बाज नहीं आते। 

अब ज्योति पूरी तरह बिस्तर पर है। उसके हाथ-पांवों में जबर्दस्त सूजन है। वह अपना शरीर नहीं संभाल पाती। ज्यादातर समय दर्द से कराहती रहती है। दिवाली की शाम उसने पेनकिलर ली। थोड़ी देर बात भी की। फिर उठी और घर के मंदिर के सामने बैठकर पूजा की तैयारी में कुछ हाथ बंटाया। रंगोली की कुछ लकीरें खींचीं। चंद मिनट में ही वह थक गई। फिर बिस्तर पर बैठकर बच्चों को समझाती रही कि पूजा में क्या और कैसे करना है। पूजा हुई, पल भर के लिए उसके चेहरे पर मुसकान आई, फिर उस पर थकान हावी हो गई। ज्योति का बड़ा बेटा मोहित 11वीं में है। वह जरूरत से ज्यादा सीधा है। हमेशा पढ़ता ही रहता है। छोटा बेटा सोभित छठवीं में है। वह पढ़ने में कमजोर है, लेकिन कबाड़ से जुगाड़ करने का उसमें अदभुत गुण है। वह कुछ न कुछ बनाते रहता है। उसने स्पीकर बनाया है और भी कई चीजें बनाई हैं। दिवाली में उसने थोड़े से पेड़े बनाए थे। वह बताने लगा, मुझे चाकलेट पावडर की जरूरत थी पर वह महंगा था, इसलिए दो डेयरी मिल्क का उपयोग किया। उसने बहुत स्वादिष्ट पेड़े बनाए थे और सुंदर ढंग से डिब्बे में सजाया था। उसने सबको खिलाया और यह बताना भी नहीं भूला कि यह किसने बनाए हैं। पूजा के बाद दीये जलाए गए। हमने भी एक उम्मीद का दीया जलाया।
मेरी पत्नी पांच बहनें और दो भाई हैं। भाई के बेटे की पहली सालगिरह पर 2004 में ज्योति ने खूब डांस किया था। उसकी सीडी है। ज्योति के बच्चे बार-बार वह सीडी देखते हैं, मैंने भी देखी। ज्योति पूरे मूड में नाच रही है। उसका वह अंदाज देखते ही बनता है। बच्चों ने उसके बाद अपनी मां को कभी इतना स्वस्थ नहीं देखा। वे बार-बार सीडी देखकर जैसे पुराने दिनों को फिर ताजा करना चाहते हैं।

ज्यादा देर नहीं लगी, अपने-अपने घर की पूजा करने के बाद ज्योति की बहनों और भाई के बच्चे आ गए। बच्चों के आने से जैसे त्योहार की कोई बड़ी कमी पूरी हो गई हो। सब पहले ज्योति मौसी और ज्योति बुआ से मिले। कुछ फोटो खिचीं, कुछ धमाचैकड़ी हुई। फिर आंगन और बगीचे में बच्चों ने देर तक पटाखे चलाए। इस बीच ज्योति बहुत थक गई थी। वह लेट गई। रात को बाकी बच्चे अपने घर लौट गए। मैं अपने परिवार समेत वहीं रहा। दूसरे दिन अमल और हमें लौटना था। ज्योति बहुत थक गई थी। आज वह देर तक बैठी और बात भी की। देर रात अंधेरे में उसकी कराहटें गूंजती रहीं।

सुबह हुई। फिर सूरज निकला और उजाला फैल गया। रात के शोर शराबे के बाद सुबह बहुत शांत और चुप सी लगी। एक बीमार के लिए तो यह एक और दर्द भरी सुबह थी। कितना अजीब लगता है जब आप किसी का दर्द नहीं बांट पाते। उसे कराहते देखकर भी कुछ न कर पाने की टीस हमेशा सालती रहेगी। जब हम वहां से चले तो वह विदा करने की स्थिति में भी नहीं थी। उसके हाथों को अपने हाथ में लिया तो दर्द से बोझल पलकें उठीं। मुसकुराहट होठों तक आते आते रह गई। और फिर दर्द की तीखी लहर। ट्रेन में भी जैसे वह दर्द हमारे साथ यात्रा कर रहा था। वही बेबसी, वही कराहटें, एक रात - एक सुबह के सफर में बहुत कुछ ऐसा है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।

इस दौरान मुझे अपनी अम्मा की बहुत याद आई। 1993 में स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी। उसी साल नवम्बर में आरती के पिता की मौत भी कैंसर से हुई थी। अगले बरस दोनों को गए 18 साल हो जाएंगे। इस बीच कितने दोस्त, कितने साथी और कितने परिचित कैंसर ने छीन लिए हैं, सोचने लगो तो बेचैनी बढ़ जाती है। कुछ दर्द कितने स्थायी होते हैं।
परिवार के साथ  ज्योति |
1
लड़ियां बांधी हैं न पटाखे चलाएं हैं
इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं
सहम न जाएं कहीं आज उजाले डरकर
घर के कोनों में धुप्प अंधेरे छिपाए हैं
बार-बार चला कर पटाखे भी बच्चे
गहरी खामोशी को कहां तोड़ पाए हैं
न जाने देवता क्यों उससे खार खाए हैं
उसने बस जिंदगी के चार पल चुराए हैं
2
देखने भर को है जैसे नाम जिस्म
बन गया है दर्द का गोदाम जिस्म
ढेरों सपनों का ठिकाना था कभी
अब दवाओं का बना मुकाम जिस्म
दूसरों के हो गए मोहताज यूं
हो गया लाचार बस नाकाम जिस्म
दर्द, दहशत और हैं सिसकारियां
कैसे कह दें खुदा का इनाम जिस्म
आत्मा बच्चों की मुट्ठी में दबा
कर दिया है कैंसर के नाम जिस्म 
3
दर्द के तोहफे इतने पाए हैं
हौसलों के दीये जलाए हैं
टिमटिमाते दीये की आंखों में
कितने ही ख्वाब झिलमिलाए हैं
मौत के डर के बीच भी हमने
गीत तो जिंदगी के गाए हैं

Monday, November 1, 2010

पिपरिया: अपना कस्बा-अपना घर (2)


देवगांव, पोसार फिर, कहें पिपरिया आज,
गोंड बने मजदूर अब, कभू करत थे राज |

पेड़ तो बूढ़े हो गए, गलियां हुईं जवान,
और सयाने हो गए, आंगन और दहलान |

कहां बैल, गाड़ी कहां, कहां होय चूं चर्र,
सबरे मिलके ढूंढ़ रये, कहां गोरैया फुर्र |

दिन बदले और कट गई चैराहे की नीम,
चैराहे की टीस यह, जैसे हुआ यतीम |

बाग बगीचे लापता, फूल गए मुरझाय,
मालन का माला गुंथे, कोई देय समझाय |

चैगड्डा, टप पान के, या गलियों के छोर,
टूटे से न टूटती, थी बातों की डोर |

कैसे रपटत जात थे, मछवासा के पास,
अब न वो रिपटा रहो, न नदिया की आस |

माटी नहीं कुम्हार की, न बसोड़ के बांस,
पुश्तैनी धंधे मिटे, रोजी बन गई फांस  |

होली के हुड़दंग में, गाली लागत थी खीर,
सुर में ही गरियात थे, कहते उसे कबीर |

बब्बू भैया से मिले, गया जमाना बीत,
कबसे रस्ता देख रये, कई अधूरे गीत | 

डग डग करता डगडगा, धड़धड़ करती रेल,
पुल पर बच्चों ने करे, जाने कितने खेल |

आज जो है वो कल नहीं, यह कुदरत की रीत,
काहे फिर खोजत फिरे, कहां गए दिन बीत |

बाबा बैरागी मिले, साधु-संत, फकीर,
पर अपने संगे चलो, पांव-पांव कबीर |

चाहे गलियों में चलें, चाहे चढ़ें पहाड़
जब तक रागी न बने, झोंकत रहिए भाड़ |

Monday, October 18, 2010

पिपरिया: अपना कस्बा - अपना घर (1)

पिपरिया अब एक कस्बा नहीं, बिछड़ा हुआ पुराना दोस्त नजर आता है। ऐसा दोस्त जो रोजी रोटी कमाने के चक्कर में बिछुड़ गया, लेकिन जिसे कभी भुलाया नहीं जा सका। एक उम्र के बाद पुराने दोस्त बहुत आते हैं। पिपरिया की भी बहुत याद आ रही है। 1990 में वह मई का कोई एक दिन था जब मुझे भी अपने कस्बे से निकलना पड़ा। अपने शहर को लेकर जो सपने संजोये थे वे एक झटके में बिखर गए और दिल्ली की भीड़ में पिपरिया का एक शख्स भी गुम हो गया।

मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले का एक कस्बा है पिपरिया। एक साधारण कस्बा, जो अब तेजी से शहर बनने की ओर अग्रसर है। शायद जल्द ही यह जिला भी बन जाए। फिलहाल तो यह जिले की तहसील और देश की बड़ी अनाज मंडियों में से एक है। अनाज और सब्जी की पैदावार में अव्वल। अरहर की दाल का स्वाद तो अब तक जुबान पर है। शरबती गेहूं और बासमती धान, वैसे धान की देसी किस्में भी इस इलाके में हैं। आज भी खेतीबाड़ी इलाके की जान है। दम तोड़ते हुए पुश्तैनी धंधे पुराने दिनों की याद दिलाने के लिए ही बचे हैं। गांव-कस्बों में मजदूरों की तादाद बढ़ रही है। सरकारी नौकरियों का रुतबा कल भी था और आज भी है। गैरसरकारी नौकरियां भी बढ़ रही हैं। सारे देश में ही बाजार बढ़ रहा है तो भला पिपरिया पीछे कैसे रहता। यहां भी पिछले बीस साल में कई दुकानें खुल गई हैं। आधुनिक शहर की पहचान अपराध भी हैं। इस मामले में भी पिपरिया पीछे नहीं है। यहां भी चेन झपटमारी होने लगी है। नशे का पाउडर यानी स्मैक भी यहां मिलने लगा है।

बीस साल पहले तक हथवांस और सिलारी पिपरिया के नजदीकी गांव थे लेकिन आज वे पिपरिया के उपनगर बन गए हैं। रिपटा यानी मछवासा नदी पर पुल बन गया है और सिलारी में बड़ा चैराहा नजर आने लगा है। यहां भी टोल रोड बन गई है। रेलवे स्टेशन भी बड़ा हो गया है। तीसरा प्लेटफार्म भी नजर आने लगा है और डगडगा यानी पुल की सीढ़ियां तीसरे प्लेटफार्म तक पहुंच गई हैं।

एक जमाने में रेलवे स्टेशन, रिपटा और सिलारी फार्म पिपरिया के युवाओं के लिए दर्शनीय स्थल से कम नहीं थे। रेलवे स्टेशन के पुल को तब डगडगा कहा जाता था। डगडगा पर खड़े होकर रेलगाड़ी देखने का आनंद ही कुछ और था। तब गिनती की रेलगाड़ियां ही यहां से गुजरती थीं। प्लेटफार्म के बाहर पटरियों के निकट सीमेंट की बेंचों पर कितनी ही गोष्ठियां हुई होंगी। वहां कविता, कहानी- किस्सों की अनवरत दास्तान जारी रहती थी। कालेज के दिनों में कितनी ही रातों में स्टेशन की चाय पीकर पढ़ाई की है।

उन दिनों सांडिया रोड पर रिपटा था, रिपटा यानी लंबा उतार और फिर नाक सुड़कती मछवासा नदी। फिर लंबा चढ़ाव और सिलारी फार्म। 1975-80 तक इस नदी में पानी था। फिर धीरे-धीरे यह बरसाती नदी बनकर रह गई। इसके पानी को ऊपर ही रोक दिया गया। बांध का पहला असर मछवासा पर ही देखने को मिला और देखते ही देखते मछवासा भी मृत नदियों में शुमार हो गई। पिपरिया की दूसरी नदी रेलवे फाटक के पास पासा थी। उस पर बने रेलवे पुल से गुजरती गाड़ियों की धड़धड़ाहट अच्छी लगती थी। इस नदी के किनारे ही धोबी मोहल्ला था। हालत यह थी कि नदी की रेत में गड्ढा खोदकर धोबी कपड़े धोते थे। 1985 के बाद तो गड्ढों में भी पानी नहीं आता था और धोबियों का रोजगार चैपट हो गया।

आंख बंद करके पिपरिया के बारे में सोचो तो कान में घंटियां बजने लगती हैं, बैलगाड़ियों में जुते बैलों के गले में बंधी घंटियां। एक जमाने में पिपरिया में सबसे अधिक दिखने वाला वाहन बैलगाड़ी ही थी। सड़क पर बैलगाड़ियों की चर्र चर्र की आवाज अलग ही धुन छेड़ती थी। स्थानीय लोग भी गाय, भैंस, बकरी पालते थे। ग्रामीण महिलाएं सिर पर गट्ठर लिए चारा बेचने आती थीं। आसपास के गांवों की बैलगाड़ियां अनाज, सब्जियां और अन्य सामान लेकर आती थीं। कई बार बच्चे बैलगाड़ियों से पीछे से सामान खींच लेते थे। खासकर जब बैलगाड़ी में गन्ना या हरा चना होता था। काम के बाद बैलगाड़ियां सड़क किनारे ढील दी जातीं। इस बीच गाड़ी वाले बाजार या मिलना जुलना कर लेते थे।

सांडिया और माछा में संक्रांति पर मेला लगता था, आज भी लगता है। फर्क यह है कि अब लोग बस और कार से जाते हैं, लेकिन उन दिनों मेलों के दौरान सड़क पर बैलगाड़ियां ही नजर आती थीं। हमारे मोहल्ले से हम और पड़ोसी साहू परिवार बैलगाड़ियों से सांडिया जाते थे। पिताजी कभी साइकिल से साथ चलते थे या फिर सुबह बस से आते थे। हम सब भाई-बहन बहुत मस्ती करते थे। चांदनी रात में बैलगाड़ी से पैदल उतरकर चलना, अंताक्षरी और कहानी किस्सों के खेल के बीच कब नींद लग जाती थी, पता ही नहीं चलता था। सुबह सांडिया के घाट पर बैलगाड़ियां ढील दी जाती और सब नहाने-धोने, पूजा पाठ और बाटियां बनाने में व्यस्त हो जाते। 1980 के बाद बैलगाड़ियां कम होते गई और आजकल तो यदाकदा ही बैलगाड़ी नजर आती है।

पिपरिया में आप परमानंद के तांगे को कैसे भूल सकते हैं। परमानंद साडिया रोड पर रहते हैं। उस जमाने में परमानंद के पिता तांगा चलाते थे। पिपरिया मे पिछले 30-40 साल से एक ही तांगा चल रहा है। मैं भी 1985 में अपनी दुल्हन को स्टेशन से इसी तांगे पर बिठाकर घर लाया था। हांलाकि कहा जाता है कि एक जमाने में पिपरिया में कई तांगे थे। नगरपालिका आफिस के पीछे कोचवान मोहल्ला था, लेकिन यह 1950 के आसपास की बात होगी। 1970 से तो हम पिपरिया में एक ही तांगा देख रहे हैं। अपने पिता के बाद जब परमानंद ने तांगा चलाने का ही फैसला किया तो हम और बालेंद्र ने उसकी बहुत हौसलाअफजाई की थी। तब पिपरिया में दो रिक्शे और एक तांगा था। अब तो आटो और रिक्शा की भीड़ में तांगा कहीं खो गया लगता है।

रेलवे फाटक के पास हनुमान व्यायामशाला थी। सुबह की शिफ्ट में वहां बाल मंदिर लगता था। बालमंदिर की मुखिया सरजूबाई ढिमोले थीं। उन्हें सब सरजू बहनजी कहते थे। वे हमारी अम्मां की करीबी सहेली थीं इसलिए हम उन्हें मौसी कहते थे। शाम को वहां दो कमरे और बरामदे में वर्जिश होती थी। वहां वर्जिश करने बहुत से युवा पहुंचते थे। कुछ समय हमने भी वहां वेट लिफ्टिंग, डबलवार और दंड-बैठक की है। चंदू ऊमरे से यहीं दोस्ती हुई। संतोष दुबे और हमने इकट्ठे खूब वर्जिश की है। उस जमाने में एक मौला थे जो खूब वर्जिश करते थे। मैंने उन्हें फकीरों की तरह मांगते खाते देखा है। दशहरा पर व्यायामशाला वाले अखाड़ा निकालते थे। उसमें यानी तलवार और बनेटी चलाई जाती थी। बनेटी एक गोल लट्ठ होता था। उसके दोनों ओर जालियों में तेल भीगा कपड़ा रखकर आग लगा दी जाती। फिर दोनों हाथों से आग लगी बनेटी को घुमाना होता था। अलग अलग ढंग और कौशल से। वैसे बिना आग लगाए भी बनेटी चलाई जाती थी। इसके अलावा भी कई तरह के वीरतापूर्ण कारनामे अखाड़े में अंजाम दिए जाते थे। मुझे बनेटी चलाने में मजा आता था। मैंने भी आग लगाकर बनेटी घुमाई है। उस समय भंगी समाज के लोग शेर नाच भी करते थे। वे अपने शरीर पर बाघ की धारियां पेंट कर लेते थे। दशहरा पर चैराहे पर सभी दुर्गा प्रतिमाएं इकट्ठी होती थीं। चैराहे तक अखाड़ा आता था और यहां देर तक जौहर दिखाए जाते थे।

श्याम टाकीज में दशहरा पर सुबह तक फिल्में दिखाई जाती थीं। हालांकि कांटछाट खूब होती थी, लेकिन फिल्म देखने खूब भीड़ उमड़ती थी। लंबे समय तक पिपरिया में श्याम टाकीज ने ही फिल्मों का मजा उपलब्ध करवाया। शाम छह बजे रेलवे स्टेशन के पार श्याम टाकीज का लाउडस्पीकर शुरू हो जाता, उन दिनों गर्मियों में टट्टा टाकीज भी सीमेंट रोड के दांई तरफ जीन में खुल जाती थी। उसे बांस के टट्टों से घेरकर बनाया गया था इसलिए उसे टट्टा टाकीज कहा जाता था। प्रोजेक्टर पर फिल्म चलती थी और तीन बार इंटरवल होता था। टट्टा टाकीज में छत नहीं होती थी इसलिए आसपास के ऊंचे पेड़ों पर बैठकर भी फिल्म का आनंद लिया जा सकता था। टिकट शायद पच्चीस पैसे थी। कहते हैं पुराने बस स्टैंड के पीछे सितारा टाकीज थी। सीमेंट रोड पर प्रदीप टाकीज की शुरुआत जरूर हुई लेकिन वह जल्दी ही बंद हो गई। बाद में अलका और फिर पदमश्री टाकीज खुलीं।

पुराने दिनों की पिपरिया में पेड़ ही पेड़ थे। चैराहे पर नीम के विशाल पेड़ पर ही श्याम टाकीज में लगने वाली फिल्मों का बोर्ड लगता था। नीम और पीपल बहुतायत में थे। अशोक वार्ड में हमारे घर के सामने भी कभी नीम का एक शानदार पेड़ था। गर्मियों के दिनों में मोहल्ले में सभी लोग घर के बाहर चारपाई बिछाकर सोते थे। सुबह नीम की पकी निबोलियां सीधे चेहरे पर ही गिरती थीं। नीम की दतौन का चलन ज्यादा था, हालांकि टूथपेस्ट ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, लेकिन नीम की दतौन का ताजा बंडल भी सस्ते में मिल जाता था। मंगलवारा चैराहे से सांडिया रोड से लेकर सिलारी फार्म तक और उधर मंगलवारा चैराहे से शोभापुर रोड से लेकर हथवांस तक पेड़ों की लंबी श्रंृखला थीं। उनमें से ज्यादातर पेड़ अब गायब हो गए हैं।

कस्बे में बगीचों की भी बहार थी। कस्बे के बीचोंबीच आनंद बाग था। खूब हरा भरा और हमेशा फूलों से गुलजार रहने वाला। कई मौकों पर मैं यहां से फूल लेकर गया हंू। फिर सिलारी फार्म का तो कहना ही क्या। उस जमाने में कस्बे में यही एकमात्र जगह थी जहां परिवार के साथ घूम फिर सकते थे। सिलारी फार्म एक तरह का खूबसूरत पार्क है। विभिन्न प्रजातियोंा के रंग बिरंगे फूल, कायदे से बनीं क्यारियां और मुलायम घास, हमने कई बार यहां कुलटानी खाई है। एक बार बचपन में शायद छह-सात की उम्र में मैं परिवार के साथ घूम रहा था कि अचानक क्यारियांे में पानी पहंुचाने वाली नहर की टंकी में गिर गया। टंकी करीब आठ-दस फुट गहरी थी। अगर चाची ने न देखा होता तो मेरी मौत निश्चित थी। वे सबसे पीछे चल रही थीं। उन्होंने दौड़कर हाथ पकड़ा और चिल्लाकर दूसरों को बुलाया। तब जाकर मुझे पानी से निकाला गया।

अशोक वार्ड में 1970 में हमारा घर बना। उसके बाद चार-पांच घर और थे, फिर गणेशराम शर्माजी का बगीचा शुरू हो जाता था। इसी परिवार के पराग से बाद में गहरी मित्रता हुई। बचपन में शर्माजी के अमरूद के बगीचे में हम अंडाडावरी खेल खेलते थे। खेलने का मौका सीजन के बाद मिलता था। अमरूद के सीजन में तो चैकीदार सजग रहता था। उस जमाने में हम जैसे न जाने कितने बच्चों के हाथ अमरूद तक पहुंच ही जाते थे। अब इस जगह बहुत अच्छी कालोनी बन गई है। अब यहां पुराने जमाने का एक भी ठूंठ नहीं बचा है।

कस्बे का सबसे पुराना हाईस्कूल रामनारायण अग्रवाल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय यानी आरएनए स्कूल के पीछे भी दो बगीचे थे। एक शायद झंवरजी का था और दूसरा किसी मुस्लिम का था। अक्सर स्कूल के लड़के उन बगीचों में धावा बोल देते थे। कच्ची मटर, हरा चना या अमरूद जो कुछ भी हो, बच्चों की मौज हो जाती थी। स्कूल में शिकायत होती और प्राचार्य समेत समी शिक्षक उदंड बच्चों पर निगाह भी रखते थे। कई बार चैकीदार ने लड़कों को दौड़ाया भी है। इसी स्कूल की जमीन पर ही एक कोने मे महाविद्यालय की शुरुआत हुई। बाद में काॅलेज का दूसरा भवन बना। आरएनए स्कूल के प्राचार्य श्रीराम तिवारी की अब तक याद है। वे स्कूल के शरारती लड़कों को काबू करके ही मानते थे। एक बार हमारी कक्षा के नेपाल सिंह ने कक्षा में अगरबत्ती जलाकर उसमें रस्सी बम पटाखा बांध दिया। हमारे एकाउंटेंसी के मास्साब के पीरियड में थोड़ी देर के बाद धमाके साथ वह रस्सी बम फटा। सारे स्कूल के बच्चे अपनी कक्षाएं छोड़कर बाहर निकल आए। हमारी कक्षा को तिवारीजी ने मैदान में लाइन से खड़ा करवा दिया, लेकिन किसी ने नहीं बताया कि पटाखा किसने रखा था। सबको पांच-पांच रूल की सजा मिली थी। उस जमाने में शरारती लड़के कक्षा की खिड़की की रेलिंग की एक-दो छड़ तोड़कर भाग जाते थे। तिवारीजी ने एक आदमी ही स्थायी तौर पर रख लिया था। उसके साथ रोज शाम को वे स्कूल की हर खिड़की की जांच करते थे और अगर कोई छड़ टूटी या निकली मिली तो उसे तुरंत ठीक करवा देते थे। उनकी अनुशासनप्रियता ने पूरे स्कूल को अच्छा पाठ पढ़ाया था।

१९७७ में पिपरिया कॉलेज के मंच पर किशन व्यास
के सांथ "जनता पागल हो गई है" का मंचन |
 इसी तरह पिपरिया कालेज के प्राचार्य महालहा साहब को भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने एक दबंग छात्र नेता की नकल पकड़ ली थी। उन्होंने कहा था, इस कालेज में दो दादा नहीं रह सकते। जब मैं आ गया हूं तो तुम्हारा क्या काम है। इस घटना के बाद महालहा साहब के खिलाफ छा़त्रों की सबसे हड़ताल हुई थी। शायद वह हड़ताल 110 दिन तक चली थी। महालहा साहब जल्दी चले गए। शायद उनका रिटायरमेंट भी नजदीक था। वे एम्बेसी सिगरेट पीते थे और एक सिगरेट से ही दूसरी सुलगा लेते थे। रोज करीब दस-बारह पैकेट सिगरेट पीते थे। बोलते बहुत अच्छा थे। सोशल गेदरिंग में उनके भाषण ने बहुत प्रभावित किया था। महालहा साहब के छोटे से कार्यकाल में ही हम जैसे कई छात्र उनसे बहुत प्रभावित थे। वे दिखने में भले ही कमजोर लगते हों लेकिन दबंगई के आगे झुकना नहीं जानते थे।

एक दोस्त की याद


यह फोटो संभवतः 1977 का है।
नाटक का नाम याद नहीं आ रहा,
लेकिन हम और मदन नाटक में
महत्वपूर्ण किरदार निभा रहे थे।

प्रिय गोपाल,

मदन गुप्ता के निधन की खबर मिली। दिल उदास हो गया। उसके साथ बिताए गए कितने ही पल याद आ गए। ये कमबख्त कैंसर बीमारी ही ऐसी हैं। इस बीमारी ने कई अपनों को छीन लिया है। जब तुमने मदन के बारे में बताया तो एक क्षण के लिए मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। यह सच है कि एक जमाने से हमारी मुलाकात नहीं हुई थी, लेकिन एक जमाना ऐसा भी था जब कोई दिन नहीं होता था जब हम मिले न हों। हम लोग स्कूली दिनों से लेकर कालेज तक साथ थे। चाहे छात्र राजनीति हो या सांस्कृतिक कार्यक्रम हम हर जगह साथ थे। वैसे दिनेश और हम एक कक्षा में थे, लेकिन गंभीर वार्तालाप मदन से ही होता था। मुझे याद है 1976 से लेकर 1980 तक हमने कई बार कालेज के मंच पर एक  साथ काम किया है। पुराने लोग जानते हैं कि उन दिनों फिजिक्स के प्रोफेसर मृणाल सेन कालेज में थे। वे सोशल गेदरिंग की तैयारी करवाते थे। मुख्य नाटक के चयन से लेकर कलाकारों का चुनाव और रिहर्सल सब सेन साहब के जिम्मे होता था। मुख्य नाटक करीब एक-डेढ़ घंटे का होता था। रिहर्सल में मदन सबसे अधिक व्यवस्थित और अनुशासित रहता था। रिहर्सल भी करीब महीने भर चलती थी। उस जमाने का कालेज का वार्षिकोत्सव अनूठा होता था। पूरा शहर ही आरएनए स्कूल में इकट्ठा हो जाता था। तीन-चार घंटे तक दर्शक सिर्फ कार्यक्रम ही देखते रहते थे।

एक बार शायद 1978 में, महालहा साहब प्रिंसिपल थे। तब एक दबंग छात्र संघ अध्यक्ष ने किसी बात पर प्रोफेसर सेन को बेइज्जत कर दिया। उनका हाथ पकड़कर झटक दिया। सेन साहब इतने आहत हुए कि उन्होंने सोशल गेदरिंग की तैयारी से हाथ खींच लिया। हम कुछ सीनियर कलाकारों को भी यह बात बुरी लगी। हमने तय किया कि इस साल हम गेदरिंग में भाग नहीं लेंगे। हम और मदन ने ही इस मुहिम को आगे बढ़ाया और एक भी सीनियर कलाकार मंच पर नहीं उतरा। हांलाकि बाद में राजेंद्र ने बहुत कोशिश की कि पुराने कलाकार भी काम करें और गेदरिंग में जान आ जाये, लेकिन कलाकारों को ठेस लगी थी, उनके गुरु का अपमान हुआ था इसलिए वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। इस घटना के बाद फिर कभी कालेज की सोशल गेदरिंग में वो बात नहीं आ पाई।

कालेज की राजनीति में भी मदन और हम साथ थे। उन दिनों कालेज में दबंगई का ही बोलबाला था। उनके खिलाफ होना ही बड़ी बात थी। कालेज के पूरे पांच साल हमारी राह अलग ही रही। उम्र के इस मोड़ पर पुराने साथियों का बिछड़ना बहुत सालता है। मैं जल्द ही पिपरिया आकर दिनेश और मदन के परिवार से मिलूंगा। इस वक्त तो मैं बस उनके लिए दुआ कर सकता हूं। ईश्वर उन्हें यह अपार दुख सहने की हिम्मत दे। और अपने प्रिय दोस्त के लिए कहूंगा ‘जल्दी विदा हो गए दोस्त, लेकिन तुमने शानदार जीवन जिया। तुम्हारे साथ बिताए गए पल हमेशा याद रहेंगे।’

तुम्हारा नरेन्द्र |

हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात और प्रलेस का जबलपुर सम्मेलन

एक बार पिपरिया रेलवे स्टेशन पर हरिशंकर परसाई दो रात और तीन दिन अटके रहे। बुक स्टाल वाले गौतम ने बताया कि गाड़ी रात ढाई बजे आती है, तब तक परसाईजी पीकर टुल्ल हो जाते हैं और गाड़ी छूट जाती है। गौतम तो परसाईजी से इतना घबराता था कि उन्हें देखते ही स्टाल छोड़कर भाग जाता था। असल में गौतम परसाईजी को पहचानता था। पहले ही दिन उन्हें बुक स्टाल में बैठाकर आवभगत की। परसाईजी वहां दो-तीन घंटे तक बैठे रहे और लगातार बतियाते रहे। इस बीच गौतम के बुक स्टाल पर धंधा ठप रहा।

एक शाम मैं अपने दोस्त नवल अग्रवाल के साथ रेलवे स्टेशन के गेस्ट हाउस में उनसे मिलने जा पहंुचा। परसाईजी बाथरूम में थे। मेज पर नोटबुक खुली थी जिसमें कुछ लाइनें लिखी थीं। बेड के पास एक स्टूल पर प्लेट में डबलरोटी के कुछ स्लाइस रखे थे। उसके पास कांच का गिलास गुलाबी रंग की शराब से भरा रखा था। यह देसी शराब दोबारा थी। मैं चकित रह गया, मुझे डबलरोटी और शराब का मेल समझ नहीं आया। थोड़ी देर में परसाईजी बाथरूम से बाहर निकले। कुछ थके हुए से लग रहे थे। उन्होंने हमें गौर से देखा। हमने अपना परिचय दिया कि हम उनके कितने बड़े प्रशंसक हैं। परसाईजी सुनते रहे और फिर बोले, प्रशंसक तो हो, पर तुम्हें यह ख्याल नहीं आया कि परसाई यहां भूखा होगा। उसके लिए कुछ खाने को ले चलें। परसाईजी ने हमारी जमकर क्लास ली। हम हड़बड़ा गए। हमें यह उम्मीद नहीं थी। हमने कहा, बताएं क्या लाना है, हम अभी ले आते हैं। परसाईजी फिर शुरू हो गए, क्या लगता है मैं कुछ अनोखा खाता हूं। अरे जो सब इंसान खाते हैं, वहीं मैं भी खाऊंगा। हम और नवल तुरंत निकले और एक ढाबे से सब्जी-रोटी लेकर वापस आए। परसाईजी ने दोने से सारी सब्जी खा ली। रोटियों को उन्होंने छुआ तक नहीं। फिर वे हमसे बिना कुछ कहे सो गए। हम और नवल अपने को कोसते हुए बाहर निकले कि पहले ही खाने का कुछ सामान लेकर आना था। यह 1980 से कुछ पहले की बात है। परसाईजी तीसरे दिन किसी तरह जबलपुर की ट्रेन पकड़ पाए।

इसके बाद हम परसाईजी से 1980 में मिले। उस साल हम प्रेमचंद की जन्म शताब्दी मनाना चाहते थे। इस मौके पर नवलेखन शिविर आयोजित करने की योजना थी। इसे लेकर पिछले कई माह से हम पूरे क्षेत्र का दौरा कर रहे थे और नवरचनाकारों से मुलाकात कर रहे थे। हमारे झोले में पहल, साक्षात्कार जैसी कई लघु पत्रिकाएं और साहित्यिक सामग्री होती थी। हम परसाईजी को शिविर में आमंत्रित करना चाहते थे। परसाईजी उन दिनों कुछ अस्वस्थ थे। उन्होंने विनम्रता से हमें मना कर दिया। हमने जबलपुर मे उनके घर पर ही उनसे मुलाकात की थी। इसके बाद तीसरी और अंतिम बार हम उनसे 1981 में जबलपुर में हुए प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में मिले थे। तब मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने मंच पर आकर उनका सम्मान किया था। परसाईजी के एक पैर में फैक्चर था इसलिए वे कुर्सी पर बैठे थे और अर्जुन सिंह ने खड़े होकर उनका सम्मान किया था। उन दिनों सुना था परसाईजी ने शराब से तौबा कर ली है।
1981 में जबलपुर में हुए प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में हम और बालेंद्र शरीक हुए थे। हमने कविताओं के करीब बीस पोस्टर बनाए थे। वे हमारे पढ़ाकू दिन थे। ज्ञानरंजन की दो किताबें हम पढ़ चुके थे। और सम्मेलन में जो स्टार कवि-लेखक आने वाले थे उनमें से ज्यादातर को हम पढ़ चुके थे या पढ़ रहे थे। हम बहुत रोमांचित थे। हम बिना टिकट जबलपुर गए और बिना टिकट ही आए, लेकिन उस दिन पिपरिया में फ्लाइंग स्काॅट की टीम थी इसलिए धर लिए गए। फिर राकेश जैन को फोन किया गया। वह खाना खाने बैठा ही था कि हमारा फोन आ गया और उसे स्टेशन आना पड़ा, तब कहीं हम छूटे।
सच तो यह है कि हमने उस सम्मेलन का पूरा आनंद लिया। सम्मेलन शुरू होने की पूर्व संध्या को हम जबलपुर के एक कालेज में बीच मैदान में बैठे थे। ज्ञानरंजन और दूसरे कार्यकर्ता मौजूद थे। कइ्र्र कवि-लेखक आ चुके थे। कुछ देर रात और कुछ तड़के आने वाले थे। कुछ इसी तरह की बातें हो रही थीं कि एक आदमी दौड़ता हुआ वहां आया। वह कुछ घबराया हुआ था। उसने कहा, राजथान भवन में (विभिन्न राज्यों के आगंतुकों को जिस कमरे में ठहरा गया था उसे उनके राज्य का नाम दे दिया गया था।) कुमार विकल ने दरवाजा बंद कर दिया है और न किसी को बाहर जाने दे रहे हैं और न सोने दे रहे हैं। उन्होंने सबको उठा दिया है और सबको अपनी कविताएं सुना रहे हैं। उन्होंने एलान कर दिया है कि सबको उनकी कविता सुनना पड़ेगा जो सोने या भागने की कोशिश करेगा उसकी खैर नहीं। मैं बहुत मुश्किल से भागकर आपको बताने आया हूं। सब बहुत परेशान हैं और घबराये हुए हैं। आखिर ज्ञानजी को वहां जाकर कुमार विकल को संभालना पड़ा था। दूसरे दिन सुबह हमने उन्हें कालेज के पास बने एक मिल्क बूथ में देखा। वे वहां सुबह से ही शुरू हो गए थे।

यहीं मैंने शमशेर बहादुर सिंह को अपनी कई गजलें सुनाई थीं। वे धैर्यपूवर्क सुनते रहे और मुझे उर्दू सीखने की सलाह दी। एक रात नागार्जुन को कविता सुनाने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने कई कविताएं सुनाई। इंदूजी इंदूजी वाली कविता तो पूरे हाव भाव के साथ नाचकर सुनाई। अमृत राय, एके हंगल, कामतानाथ, काशीनाथ सिंह और न जाने कितने राष्ट्रीय स्तर के कवि-लेखकों और कलाकारों को वहां देखने, सुनने और मिलने का मौका मिला। प्रवीण अटलूरी उस समय सीपीआई का बहुत जुझारू कार्यकर्ता था। सम्मेलन को सफल बनाने में उसकी टीम का बड़ा योगदान था। वह रूस की यात्रा भी कर आया था। उससे कई बरस बाद नोएडा में राष्ट्रीय सहारा के दफ्तर में अचानक मुलाकात हो गई थी। वह किसी से मिलने आया था। उस समय उसकी हालत बहुत खराब थी। मेरे लिए यह चैंकाने वाली बात थी। उस और इस प्रवीण अटलूरी में बहुत फर्क था। कहां वह जोश से भरा हुआ चहकता नौजवान और कहां केंटीन में मेरे साथ बैठा उदास और कमजोर व्यक्ति। उसके पास समय कम था इसलिए ज्यादा बात नहीं हो पाई। इस बात को भी जमाना बीत गया। अब पता नहीं वह कहां और किस हाल में है। लेकिन उस घटना से इतना तो साफ हो गया कि वामपंथी आंदोलन की टूट का असर स्थानीय कार्यकर्ताओं पर कितना गहरा होता है।
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