Wednesday, August 1, 2012

रेंजलाल

पिछले दिनों अदालत ने एक बड़ा फैसला सुनाया। रोहित शेखर नाम के एक नौजवान के नाजायज बाप का पता चल गया जो देश का एक बड़ा राजनेता हैं। डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट नहीं बदली और साबित हो गया कि नाजायज बाप कौन है। लेकिन रेंजलाल की किस्मत ऐसी नहीं है। उसकी मां ने लंबी लड़ाई लड़ी और हार गई। वह एक आदिवासी औरत  है इसलिए उसके बच्चे के नाजायज बाप ने डीएनए रिपोर्ट बदलवा दी। लेकिन पूरा गांव जानता है कि रेंजलाल का नाजायज बाप कौन है इसलिए तो उन्होंने इसका नाम रेंजलाल रखा क्योंकि उसका नाजायज बाप एक रेंजर है। सबसे पहले यह कहानी केसला में समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय महासचिव सुनील ने सुनाई। फिर वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता बाबा मायाराम के साथ हम विस्थापित बोरी गांव पहुंचे और रघुवती से मिले। यह सच्ची कहानी देश की न्याय व्यवस्था की पोल खोल देती है।
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रघुवती बाई के चेहरे पर थकान नजर आती है। बुझी-बुझी सी आंखें, जैसे कहीं शून्य में खोई रहती हैं। मानो उदासी ने वहां घर बना लिया हो। हमेशा काम में जुटी रहती है, लगातार। मां है तो सहारा है। नई बोरी में भी करने को बहुत कुछ है। घर और खेती जमाने में ही सारा दिन निकल जाता है। जितनी जरूरत हो, उतना ही बोलती है। ज्यादातर समय चुप ही रहती है।

क्या रघुवती हमेशा से ऐसी ही है या रेंजलाल के जाने से दुखी है। बताने लगी ‘ रेंजलाल यहां आवारा हो गया था। घूमते रहता था इसलिए उसे छात्रावास में भेज दिया। कुछ तो पढ़ेगा। कहकर रघुवती फिर उदास हो जाती है।

रघुवती कहे भी तो क्या? उसका दर्द जैसे उसके चेहरे पर उतर आता है। कई बातें शब्दों में नहीं कही जा सकती। कई बार एक चुप्पी भी बहुत कुछ कह देती है। रघुवती आज तक खुद को माफ नहीं कर पाई है। आखिर कैसे वह एक रेंजर की वहशी दबंगता के आगे तार-तार हो गई। क्यों नहीं पहले ही दिन उसने रेंजर के मुंह पर साफ कह दिया होता। जो लड़ाई बाद में लड़कर वह हार गई, अगर पहले ही लड़ी होती तो आज..। रघुवती सिहर उठती है। हे खैरा माई मुझे उठा क्यों न लिया उसी समय।

तभी अचानक उसके भीतर से ही एक आवाज आती है ‘अम्मां, मुझे भूल गई क्या?’ अरे यह तो रेंजलाल है। रघुवती के चेहरे पर बसी उदासी में जैसे ममता ने सेंध लगा दी। यह रेंजलाल ही तो है, जिसके लिए वह आठ साल तक लड़ती रही। कितनी चिट्ठी पत्री, कितने कागज, कितनी जांच और हुआ क्या?

रेंजलाल को उसके पिता का नाम नहीं मिला। वह तो सिर्फ अपनी मां का बेटा है और वह इस कोरकू आदिवासी समाज का भी है जिसने उसे अपने दिल में जगह दी। रेंजलाल भी यह जानता है। वह कहता भी है, अब मैं छोटा पप्पू नहीं हूं।

रघुवती को इसलिए खाली बैठना पसंद नहीं है। कुछ करते रहो तो मन लगा रहता है। हाथ को कोई काम न हो तो जाने क्या-क्या सोचने लगती है। गुजरी हुई कितनी ही घटनाएं किसी चुड़ैल की तरह उसके पीछे ही खड़ी रहती हैं। जैसे ही वह खाली होती है, वे उस पर टूट पड़ती हैं और फिर तो गुजरे जमाने की एक-एक चोट जैसे हरी हो जाती है। जख्मों के टांके खुल जाते हैं और उनमें दर्द बाहर बहने लगता है।

रघुवती की आंखें छलछला जाती हैं। वह गुस्से से सिहर उठती है। एक दबंग रेंजर ने उसे मां बना दिया। हर कदम पर उसे लड़ना और हारना पड़ा। और एक दिन वे फिर आए। कई बड़े साहब लोग। उसे एक जगह ले गए। कोर्ट कचहरी या कोई दफ्तर जाने कहां। एक लड़का भी साथ था। थोड़ी सी लिखा-पढ़ी हुई। उस लड़के को कुछ पैसे दिए। कहते हैं कि उसे 25 हजार रुपए दिए। साहब लोगों ने रघुवती से कहा खुश हो जा तेरी शादी हो गई। रघुवती बस डर और गुस्से से कांपती रही। वह लड़का रुपए लेकर अपने घर चला गया। साहब लोग हंसते हुए गाड़ी में बैठकर निकल गए और रघुवती समझ ही नहीं पाई कि वे लोग उसके साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं।

जब नई बोरी बसी तो सरकार ने पुरानी बोरी के हर वयस्क को पांच एकड़ जमीन और ढाई लाख रुपए नकद दिए, लेकिन रघुवती को कुछ नहीं मिला। सरकारी अफसरों ने कहा रघुवती की शादी हो गई है, उसे मुआवजा नहीं मिलेगा। इतना बड़ा झूठ! रघुवती तो जैसे बर्दाश्त करने के लिए ही पैदा हुई है। क्या करती, कहां जाती। आखिर अपनी मां के साथ नई बोरी आ गई। अब वह अकेली भी नहीं थी। जब नई बोरी आई तो रेंजलाल छोटा  ही था।

कहते हैं न उजड़ने वालों को सहारा देने वाले भी मिल जाते हैं। तभी तो रघुवती जिंदा है और रेंजलाल छात्रावास में पढ़ रहा है। अगर रघुवती हिन्दू समुदाय की होती तो उसके परिजन ही उसे मार डालते और रेंजलाल को पैदा होने का मौका ही नहीं मिलता, लेकिन कोरकू मवासियों में ऐसा नहीं होता। वहां कुंआरी मां की न जिंदगी ली जाती है, न उसे हिकारत की नजर से देखा है। उसे दोबारा जीने का मौका दिया जाता है। चाहे तो रघुवती भी अपनी मर्जी से घर बसा सकती है।

लेकिन रघुवती अब ऐसा कुछ नहीं सोचती। उसने नियति को स्वीकार कर लिया है। उसने सरकारी अफसरों और दूसरे उजले लोगों की ईमानदारी देख ली है। कहते थे कि जांच से सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। वो क्या कहते हैं....डीएनए की जांच होगी और बस रेंजर बच नहीं पाएगा। रेंजलाल की किस्मत संवर जाएगी। किसान आदिवासी संगठन वाले भी आए थे। सुनील भैया ने फोन भी किया था हैदराबाद, जहां जांच होती है। कोई राव साहब थे, कहने लगे रिपोर्ट बदलने या सैंपल बदलने का डर है तो मैं खुद आ जाता हूं। सच कहा था, राव साहब खुद आए थे। उधर, रघुवती निश्चिंत थी कि जांच में सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा, लेकिन कमाल देखिए कि खुद राव साहब ने ही रिपोर्ट बदल दी और रेंजर का सैंपल रेंजलाल के सैंपल से मैच नहीं खाया, रेंजर बच गया।

पर रघुवती तो जिंदा थी और उसका बच्चा भी दुनिया में आ चुका था। उस बिना नाम और बिना बाप के बच्चे को गांव के लोगों ने नाम दिया रेंजलाल, क्योंकि वह एक रेंजर की औलाद है। भले ही सफेदपोश लोगों ने झूठ के जीतने की घोषणा कर दी हो, लेकिन रघुवती ही नहीं गांव का बच्चा-बच्चा जानता है कि वह रेंजर का बेटा है। अब रेंजर का बेटा है तो रेंजलाल से बेहतर नाम और क्या हो सकता है, लेकिन बात कहीं ज्यादा गहरी है।

असल में यह है कोरकू समाज के विरोध करने का तरीका। मां और बच्चे की समाज में वही हैसियत है जो पहले थी। उनके पास आजादी से सांस लेने, अपनी बात कहने और जीने का मौका है, लेकिन रेंजलाल नाम देकर जैसे कोरकू समाज ने इस विशाल लोकतंत्र और न्यायपालिका को आइना दिखाने का काम किया है। रेंजलाल नाम रातोंरात पूरे इलाके में मशहूर हो गया। उस दिन बरसों बाद रघुवती मुसकुराई थी और रेंजलाल ऐसे तनकर खड़ा था जैसे पूरी दुनिया को चुनौती दे रहा हो।
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