Friday, July 13, 2012

उजड़े गांवों का राग - तीन

विस्‍थापन की दुनिया  - नया धांईं 
क्राय की फेलोशिप विकास, विस्थापन और बचपन के दौरान रोरीघाट, इंदिरानगर और नये धांई की यात्रा की गई। काम के दौरान लिखी डायरी के कुछ पन्ने यहां सबसे साझा कर रहा हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की तीसरी किस्त।
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 नये धांई की सच्चाई 
        
माया
नया धांई मुझे कई बातों के लिए याद आएगा। सविता, माया और रवीना जैसी बच्चियां भी बहुत याद आएंगी। ऐसे ही होते हैं आदिवासी जरा देर मेंतीन ही आप उनके घर के सदस्य हो जाते हैं। पांच साल पहले अपना पुराना गांव छोड़कर आए लोगों का स्वभाव अब भी पहाड़ों जैसा ही है सबको अपना बना लेने का। उस शाम मुकेश बहुत परेशान था। कहां रहेंगे, कौन खाने को देगा। कैसे सुबह होगी। वरसों बाद मुकेश पुरोहित मेरे साथ था। नौजवानी में वह हमारी नाटक टीम का हिस्सा था। लेकिन उसे मेरे साथ अजनबी गांव में रात बिताने का मौका नहीं मिला था। फिलहाल वह इंदौर के एक निजी स्कूल में पढ़ाता है। इन दिनों छुट्टियों में पिपरिया आया हुआ था सो मेरे साथ चला आया।

हमने इकराम सिंह के आंगन में बिछे पलंग पर अधिकार जमा लिया था। शाम गहरी  होने लगी। मुकेश चिंता में डूब गया। तभी माया अचानक आई और पूछने लगी ‘अंकल बाटी बना रही हूं। खा लोगे या आपके लिए रोटी बनाऊ। हमने कहा बाटी ही खाएंगे। चौंकने की बारी मुकेश की थी। माया ने अपने पिता के साथ हाथ धुलवा कर खाना खिलाया। दूसरे दिन और गजब हो गया। बिरजूखापा गांव से एक हमारी उम्र का व्यक्ति और एक नौजवान आया। पता चला कि यह माया के होने वाले ससुर और देवर है। माया की शादी तय हो गई। लड़का इंदौर में काम करता है।

उस शाम इकराम सिंह को उनके दोस्त अपने साथ ले गए थे। जब वे लौटे तो जमकर पिये हुए थे। कहने लगे, आपके कारण मैं तीन दिन से पी नहीं रहा था लेकिन आज मेरे दोस्त मुझे खींच ले गए। माया के अंकल कहने पर उन्होंने एतराज किया और मेरी उम्र पूछी। मेरे बताने पर कहने अरे आप तो मुझसे बड़े हैं और यह आपको अंकल कह रही है। बस तभी से माया मुझे ताऊ कहने लगी। उधर उसके पिता ने खाने से पहले हमें महुआ पिलाने की जिद ठान ली। घर में महुआ की शराब नहीं थी इसलिए माया को पड़ोस में भेजा गया और वह जरा देर में ले भी आई। हमें इकराम का साथ देना पड़ा। मैंने माया की शादी के बारे में पूछा तो इकराम कहने लगे मैंने माया से पहले पूछ लिया था। उसे कोई दिक्कत नहीं है, वह राजी है। मैंने माया को देखा वह मुसकुरा रही थी। कहने लगी हां पापा ने पूछा था।

माया तेज लड़की है। उसकी मां बचपन में ही गुजर गई। वह मामा के यहां रही मानसिंहपुरा में। वहीं प्राइमरी तक पढ़ी। फिर नये धांई आ गई। इस साल दसवीं की परीक्षा दी है। मोटरसाइकिल चला लेती है। कहती है उसके बुआ के लड़के ने सिखाई है। उसने सच कहा था कि गांव में कोई  उसकी तरह खुलकर बात नहीं करेगा। माया सीधी बात कहती है। उसने कमजोर शिक्षा के लिए माता-पिता और शिक्षकों को दोषी ठहराया। सविता से उसी ने मिलवाया। छठवीं पढ़ने वाली सविता की शादी तय हो गई है। उसकी पढ़ाई छूट गई। वह बहुत उदास है। बात करने को बिलकुल तैयार नहीं है। माया ने समझाया मैंने भी कोशिश की लेकिन सविता चुप। तब मैंने कहा मैं इतना कर सकता हूं कि एक बार तुम्हारे माता-पिता से बात करूं कि वे तुम्हे पढ़ने का पूरा मौका दें और अभी शादी न करें। इसके बाद सविता ने मेरी तरफ देखा और धीमे से कहा बात जरूर करना। उसने अपनी पढ़ाई और अपने सपने के बारे में बताया। उसकी लिखावट अच्छी है। उसने लिखकर दिया है कि वह पढ़ना चाहती है लेकिन घरवाले उसकी शादी कर रहे हैं जो गलत है।
सविता की मां लक्ष्मी बाई
सविता
वह अपनी मां से परेशान है। सुबह से ही महुआ की शराब पी लेती है। उसके पिता भी पीते हैं। वे कुछ नहीं कहते। इसलिए सविता को अपनी मजदूरी के पैसे भी मां से छिपाने पड़ते हैं। सविता की कहानी मन को दुखी कर देती है। कैसी मासूमियत से उसने बताया था, लड़का अपने पिता के साथ आया था। सविता इतनी दुखी थी कि उसने लड़के को अलग बुलाकर डांटा था और शादी के लिए मना करने को कहा था, लेकिन लड़का मुसकुराता रहा और आखिर में बोला कि मैं मना नहीं करूंगा। मैं तो शादी करूंगा। कहते कहते सविता उदास हो गई। उसे लड़के पर बहुत गुस्सा आया था मगर वह कुछ नहीं कर पाई और इधर मां कहती है कि शादी नहीं करेगी तो मारकर जंगल में फेंक देंगे। अब सविता क्या करे?

इकराम के घर अचानक सविता की मां लक्ष्मी बाई से भेंट हो गई। दिन के 12 बजे थे और वे सचमुच बहुत पिये हुए थीं। उन्होंने कहना शुरू किया तो फिर रुकी नहीं। डिप्टी रेंजर पांडे को खूब गालियां दीं। कहने लगीं -मादरचोद कहता था कि जोतने के लिए बैल देंगे। अब किसकी गांड में घुस गए बैल। लक्ष्मी बाई सचमुच बहुत गुस्से में थी। सरकार ने वादे तो बहुत किए पर बाद आदिवासियों को अकेला छोड़ दिया। ज्यादातर लोगों के लिए गुजर बसर करना भी मुश्किल हो रहा है। पांच एकड़ जमीन तो इन्ह्रंे मिली लेकिन वह इतनी उबड़ खावड़ थी कि खेती करना मुश्किल। लक्ष्मी के पति सुमरन सिंह ने जमीन किराए पर सेमरी के एक पटेल को दे दी और खुद उसके मजदूर बन गए। लक्ष्मी बाई सुमरन से भी बहुत नाराज हैं। वह जुए सट्टे में बबा्र्रदी कर रहा है। सविता की शादी की बात पर वे अडिग थी। हां उसकी शादी करना है। यह साल तो मुश्किल लग रहा है पर अगले साल शुरू में ही उसकी शादी कर दे्रेगे। उन्होंने साफ कहा, अब माहौल नहीं है वैसा कि लड़कियों को पढ़ाओ। जितना पढ़ लिया बहुत है, अब अपने घर पढ़ना। लक्ष्मी बाई से बहस करना आसान नहीं हैं और जब वे भरपूर नशे में हों तो ऐसी हिमाकत करना समझदारी नहीं थी।

रसंती बाई के घर हम कई लोग थे। बाबा मायाराम, राकेश कारपेंटर और तहलका के पत्रकार शिरीष खरे। नये धांई में नदी के न होने से रसंती बाई बहुत दुखी हैं। वे पुरानी धांई के पास बहने वाली सोनभद्रा नदी को याद करती हैं। उनके पति अघन सिंह वहीं पास में बैठे हैं। उनके दो बच्चे आसपास उछलकूद कर रहे हैं। बातचीत रसंती बाई से हो रही है। मेरे बार-बार कहने पर उन्होंने एक गीत सुनाया जिसे वे पुरानी धांई में नदी पर जाते हुए गाती थीं। उन्हें छिंदवाड़ा जाना था इसलिए बात बीच में ही रुक गई। रसंती बाई भी सिर पर लकड़ी का गट्ठा लेकर बेचने जाती हैं। उन्होंने गहरी बात कही  ‘जंगल में जानवर को तो हू हू करके भगा सकते हैं लेकिन आदमी को ऐसे नहीं भगाया जा सकता।’ इसलिए वे समूह में जंगल जाती हैं लकड़ी काटने। यहां औरते सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें अपनी आजादी दांव पर लगानी पड़ी है। माया ने भी कहा था कि स्कूली लड़कियों को सेमरी के पटेलों के लड़के छेड़ते हैं। वे भी समूह में स्कूल जाती हैं और लड़कों के मुंह नहीं लगतीं। माया ने कहा था इस साल छह लड़कियों ने आठवीं पास की है लेकिन उनमें एक भी आगे पढ़ने के लिए बाबई नहीं जाएगी। आठवीं तक भी खरदा व आश्रम का स्कूल ही है। वहां तक भी बहुत कम लड़कियां पहुंच पाती हैं।

सुमरन और अघन सिंह के बाद सबसे मुफलिसी की हालत राजेश की है। उसकी नन्ही चार साल की बिटिया रवीना बहुत प्यारी है। उसकी पत्नी और मां भी सिर पर लकड़ी का गट्ठर रखकर सेमरी बेचने जाती हैं। राजेश नए धांई में आकर पछता रहे हैं। उन्हें लगता है इससे बेहतर तो पुराने धांई में थे। यहां पहली उनके घर की औरतों को मूड़ गट्ठा बेचना पड़ रहा है। यहां खेती बिलकुल चैपट है। पानी ही नहीं है। वे बरसात पर ही निर्भर है। उनके खेत की हालत देखकर भी यही लगता है। उनके दोनों बच्चों की मासूमियत खीच लेती है। रवीना बिलकुल चुप है। वह गहरे संकोच में है। जो बातें हो रही हैं उसकी समझ से बाहर हैं। वह सयानेपन के साथ हमारे आसपास ही घूमती रही।
राजेश की चार साल की बिटिया रवीना
8-15 साल के बच्चे अलग ही खेल में मसरूफ़ दिखे। वे सिक्कों पर निशाना साधने का खेल खेल रहे थे। हम अपने बचपन में कंचों पर निशाना लगाया करते थे लेकिन अब नए धांई के बच्चे पैसों पर निशाना साधने लगे हैं। बड़े कस्बे के नजदीक आने के बाद किशोरों के लिए नई दुनिया खुल गई है। वे सेमरी के खूब चक्कर लगाते थे। इकराम ने कहा भी था बच्चों के पास दस रुपए हुए तो वे सेमरी चले जाते हैं। प्राइमरी के बाद ज्यादातर बच्चों के लिए कोई मौके नहीं हैं। उन्हें अपने आसपास से सीखना समझना है। राजकुमार जैसे किशोरों को डर है कि कहीं युवा नशे के चक्कर में न फंस जाएं।        

यह महुआ बीनने का मौसम है। सेमरी के एक पटेल ने इकराम सिंह के यहां कांटा लगा दिया है। वे सीधे महुआ खरीद रहा है और नकद पैसे दे रहा है। वह 12 रुपए किलो महुआ ले रहा है। सब जानते हैं कि बरसात बाद यही महुआ 20-25 रुपए किलो बिकेगा, लेकिन आदिवासी को तो पैसों की जरूरत है इसलिए बहुत से लोग महुआ बेच रहे हैं। रात को लोग दो बजे महुआ बीनने निकलते हैं और दूसरे दिन दोपहर को लौटते हैं। इकराम सिंह के यहां आंगन में महुआ सूख रहा है।

एक दिन अचानक फागराम आ गए। वे मंगल सिंह के गांव से लौट रहे थे। हमारा पता चला था सो मिलने चले आए। फागराम समाजवादी जन परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता है। किसान आदिवासी संगठन के नेता है और जनपद सदस्य है। इकराम सिंह का बेटा कमलेश उन्हें जानता है। वहीं आंगन में कुछ देर हमने बातचीत की। उसके बाद फागराम अपनी बाइक से रवाना हुए। और मैं भी नये धांई की बहुत सी यादे लेकर लौटा।
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