Monday, October 18, 2010

पिपरिया: अपना कस्बा - अपना घर (1)

पिपरिया अब एक कस्बा नहीं, बिछड़ा हुआ पुराना दोस्त नजर आता है। ऐसा दोस्त जो रोजी रोटी कमाने के चक्कर में बिछुड़ गया, लेकिन जिसे कभी भुलाया नहीं जा सका। एक उम्र के बाद पुराने दोस्त बहुत आते हैं। पिपरिया की भी बहुत याद आ रही है। 1990 में वह मई का कोई एक दिन था जब मुझे भी अपने कस्बे से निकलना पड़ा। अपने शहर को लेकर जो सपने संजोये थे वे एक झटके में बिखर गए और दिल्ली की भीड़ में पिपरिया का एक शख्स भी गुम हो गया।

मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले का एक कस्बा है पिपरिया। एक साधारण कस्बा, जो अब तेजी से शहर बनने की ओर अग्रसर है। शायद जल्द ही यह जिला भी बन जाए। फिलहाल तो यह जिले की तहसील और देश की बड़ी अनाज मंडियों में से एक है। अनाज और सब्जी की पैदावार में अव्वल। अरहर की दाल का स्वाद तो अब तक जुबान पर है। शरबती गेहूं और बासमती धान, वैसे धान की देसी किस्में भी इस इलाके में हैं। आज भी खेतीबाड़ी इलाके की जान है। दम तोड़ते हुए पुश्तैनी धंधे पुराने दिनों की याद दिलाने के लिए ही बचे हैं। गांव-कस्बों में मजदूरों की तादाद बढ़ रही है। सरकारी नौकरियों का रुतबा कल भी था और आज भी है। गैरसरकारी नौकरियां भी बढ़ रही हैं। सारे देश में ही बाजार बढ़ रहा है तो भला पिपरिया पीछे कैसे रहता। यहां भी पिछले बीस साल में कई दुकानें खुल गई हैं। आधुनिक शहर की पहचान अपराध भी हैं। इस मामले में भी पिपरिया पीछे नहीं है। यहां भी चेन झपटमारी होने लगी है। नशे का पाउडर यानी स्मैक भी यहां मिलने लगा है।

बीस साल पहले तक हथवांस और सिलारी पिपरिया के नजदीकी गांव थे लेकिन आज वे पिपरिया के उपनगर बन गए हैं। रिपटा यानी मछवासा नदी पर पुल बन गया है और सिलारी में बड़ा चैराहा नजर आने लगा है। यहां भी टोल रोड बन गई है। रेलवे स्टेशन भी बड़ा हो गया है। तीसरा प्लेटफार्म भी नजर आने लगा है और डगडगा यानी पुल की सीढ़ियां तीसरे प्लेटफार्म तक पहुंच गई हैं।

एक जमाने में रेलवे स्टेशन, रिपटा और सिलारी फार्म पिपरिया के युवाओं के लिए दर्शनीय स्थल से कम नहीं थे। रेलवे स्टेशन के पुल को तब डगडगा कहा जाता था। डगडगा पर खड़े होकर रेलगाड़ी देखने का आनंद ही कुछ और था। तब गिनती की रेलगाड़ियां ही यहां से गुजरती थीं। प्लेटफार्म के बाहर पटरियों के निकट सीमेंट की बेंचों पर कितनी ही गोष्ठियां हुई होंगी। वहां कविता, कहानी- किस्सों की अनवरत दास्तान जारी रहती थी। कालेज के दिनों में कितनी ही रातों में स्टेशन की चाय पीकर पढ़ाई की है।

उन दिनों सांडिया रोड पर रिपटा था, रिपटा यानी लंबा उतार और फिर नाक सुड़कती मछवासा नदी। फिर लंबा चढ़ाव और सिलारी फार्म। 1975-80 तक इस नदी में पानी था। फिर धीरे-धीरे यह बरसाती नदी बनकर रह गई। इसके पानी को ऊपर ही रोक दिया गया। बांध का पहला असर मछवासा पर ही देखने को मिला और देखते ही देखते मछवासा भी मृत नदियों में शुमार हो गई। पिपरिया की दूसरी नदी रेलवे फाटक के पास पासा थी। उस पर बने रेलवे पुल से गुजरती गाड़ियों की धड़धड़ाहट अच्छी लगती थी। इस नदी के किनारे ही धोबी मोहल्ला था। हालत यह थी कि नदी की रेत में गड्ढा खोदकर धोबी कपड़े धोते थे। 1985 के बाद तो गड्ढों में भी पानी नहीं आता था और धोबियों का रोजगार चैपट हो गया।

आंख बंद करके पिपरिया के बारे में सोचो तो कान में घंटियां बजने लगती हैं, बैलगाड़ियों में जुते बैलों के गले में बंधी घंटियां। एक जमाने में पिपरिया में सबसे अधिक दिखने वाला वाहन बैलगाड़ी ही थी। सड़क पर बैलगाड़ियों की चर्र चर्र की आवाज अलग ही धुन छेड़ती थी। स्थानीय लोग भी गाय, भैंस, बकरी पालते थे। ग्रामीण महिलाएं सिर पर गट्ठर लिए चारा बेचने आती थीं। आसपास के गांवों की बैलगाड़ियां अनाज, सब्जियां और अन्य सामान लेकर आती थीं। कई बार बच्चे बैलगाड़ियों से पीछे से सामान खींच लेते थे। खासकर जब बैलगाड़ी में गन्ना या हरा चना होता था। काम के बाद बैलगाड़ियां सड़क किनारे ढील दी जातीं। इस बीच गाड़ी वाले बाजार या मिलना जुलना कर लेते थे।

सांडिया और माछा में संक्रांति पर मेला लगता था, आज भी लगता है। फर्क यह है कि अब लोग बस और कार से जाते हैं, लेकिन उन दिनों मेलों के दौरान सड़क पर बैलगाड़ियां ही नजर आती थीं। हमारे मोहल्ले से हम और पड़ोसी साहू परिवार बैलगाड़ियों से सांडिया जाते थे। पिताजी कभी साइकिल से साथ चलते थे या फिर सुबह बस से आते थे। हम सब भाई-बहन बहुत मस्ती करते थे। चांदनी रात में बैलगाड़ी से पैदल उतरकर चलना, अंताक्षरी और कहानी किस्सों के खेल के बीच कब नींद लग जाती थी, पता ही नहीं चलता था। सुबह सांडिया के घाट पर बैलगाड़ियां ढील दी जाती और सब नहाने-धोने, पूजा पाठ और बाटियां बनाने में व्यस्त हो जाते। 1980 के बाद बैलगाड़ियां कम होते गई और आजकल तो यदाकदा ही बैलगाड़ी नजर आती है।

पिपरिया में आप परमानंद के तांगे को कैसे भूल सकते हैं। परमानंद साडिया रोड पर रहते हैं। उस जमाने में परमानंद के पिता तांगा चलाते थे। पिपरिया मे पिछले 30-40 साल से एक ही तांगा चल रहा है। मैं भी 1985 में अपनी दुल्हन को स्टेशन से इसी तांगे पर बिठाकर घर लाया था। हांलाकि कहा जाता है कि एक जमाने में पिपरिया में कई तांगे थे। नगरपालिका आफिस के पीछे कोचवान मोहल्ला था, लेकिन यह 1950 के आसपास की बात होगी। 1970 से तो हम पिपरिया में एक ही तांगा देख रहे हैं। अपने पिता के बाद जब परमानंद ने तांगा चलाने का ही फैसला किया तो हम और बालेंद्र ने उसकी बहुत हौसलाअफजाई की थी। तब पिपरिया में दो रिक्शे और एक तांगा था। अब तो आटो और रिक्शा की भीड़ में तांगा कहीं खो गया लगता है।

रेलवे फाटक के पास हनुमान व्यायामशाला थी। सुबह की शिफ्ट में वहां बाल मंदिर लगता था। बालमंदिर की मुखिया सरजूबाई ढिमोले थीं। उन्हें सब सरजू बहनजी कहते थे। वे हमारी अम्मां की करीबी सहेली थीं इसलिए हम उन्हें मौसी कहते थे। शाम को वहां दो कमरे और बरामदे में वर्जिश होती थी। वहां वर्जिश करने बहुत से युवा पहुंचते थे। कुछ समय हमने भी वहां वेट लिफ्टिंग, डबलवार और दंड-बैठक की है। चंदू ऊमरे से यहीं दोस्ती हुई। संतोष दुबे और हमने इकट्ठे खूब वर्जिश की है। उस जमाने में एक मौला थे जो खूब वर्जिश करते थे। मैंने उन्हें फकीरों की तरह मांगते खाते देखा है। दशहरा पर व्यायामशाला वाले अखाड़ा निकालते थे। उसमें यानी तलवार और बनेटी चलाई जाती थी। बनेटी एक गोल लट्ठ होता था। उसके दोनों ओर जालियों में तेल भीगा कपड़ा रखकर आग लगा दी जाती। फिर दोनों हाथों से आग लगी बनेटी को घुमाना होता था। अलग अलग ढंग और कौशल से। वैसे बिना आग लगाए भी बनेटी चलाई जाती थी। इसके अलावा भी कई तरह के वीरतापूर्ण कारनामे अखाड़े में अंजाम दिए जाते थे। मुझे बनेटी चलाने में मजा आता था। मैंने भी आग लगाकर बनेटी घुमाई है। उस समय भंगी समाज के लोग शेर नाच भी करते थे। वे अपने शरीर पर बाघ की धारियां पेंट कर लेते थे। दशहरा पर चैराहे पर सभी दुर्गा प्रतिमाएं इकट्ठी होती थीं। चैराहे तक अखाड़ा आता था और यहां देर तक जौहर दिखाए जाते थे।

श्याम टाकीज में दशहरा पर सुबह तक फिल्में दिखाई जाती थीं। हालांकि कांटछाट खूब होती थी, लेकिन फिल्म देखने खूब भीड़ उमड़ती थी। लंबे समय तक पिपरिया में श्याम टाकीज ने ही फिल्मों का मजा उपलब्ध करवाया। शाम छह बजे रेलवे स्टेशन के पार श्याम टाकीज का लाउडस्पीकर शुरू हो जाता, उन दिनों गर्मियों में टट्टा टाकीज भी सीमेंट रोड के दांई तरफ जीन में खुल जाती थी। उसे बांस के टट्टों से घेरकर बनाया गया था इसलिए उसे टट्टा टाकीज कहा जाता था। प्रोजेक्टर पर फिल्म चलती थी और तीन बार इंटरवल होता था। टट्टा टाकीज में छत नहीं होती थी इसलिए आसपास के ऊंचे पेड़ों पर बैठकर भी फिल्म का आनंद लिया जा सकता था। टिकट शायद पच्चीस पैसे थी। कहते हैं पुराने बस स्टैंड के पीछे सितारा टाकीज थी। सीमेंट रोड पर प्रदीप टाकीज की शुरुआत जरूर हुई लेकिन वह जल्दी ही बंद हो गई। बाद में अलका और फिर पदमश्री टाकीज खुलीं।

पुराने दिनों की पिपरिया में पेड़ ही पेड़ थे। चैराहे पर नीम के विशाल पेड़ पर ही श्याम टाकीज में लगने वाली फिल्मों का बोर्ड लगता था। नीम और पीपल बहुतायत में थे। अशोक वार्ड में हमारे घर के सामने भी कभी नीम का एक शानदार पेड़ था। गर्मियों के दिनों में मोहल्ले में सभी लोग घर के बाहर चारपाई बिछाकर सोते थे। सुबह नीम की पकी निबोलियां सीधे चेहरे पर ही गिरती थीं। नीम की दतौन का चलन ज्यादा था, हालांकि टूथपेस्ट ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, लेकिन नीम की दतौन का ताजा बंडल भी सस्ते में मिल जाता था। मंगलवारा चैराहे से सांडिया रोड से लेकर सिलारी फार्म तक और उधर मंगलवारा चैराहे से शोभापुर रोड से लेकर हथवांस तक पेड़ों की लंबी श्रंृखला थीं। उनमें से ज्यादातर पेड़ अब गायब हो गए हैं।

कस्बे में बगीचों की भी बहार थी। कस्बे के बीचोंबीच आनंद बाग था। खूब हरा भरा और हमेशा फूलों से गुलजार रहने वाला। कई मौकों पर मैं यहां से फूल लेकर गया हंू। फिर सिलारी फार्म का तो कहना ही क्या। उस जमाने में कस्बे में यही एकमात्र जगह थी जहां परिवार के साथ घूम फिर सकते थे। सिलारी फार्म एक तरह का खूबसूरत पार्क है। विभिन्न प्रजातियोंा के रंग बिरंगे फूल, कायदे से बनीं क्यारियां और मुलायम घास, हमने कई बार यहां कुलटानी खाई है। एक बार बचपन में शायद छह-सात की उम्र में मैं परिवार के साथ घूम रहा था कि अचानक क्यारियांे में पानी पहंुचाने वाली नहर की टंकी में गिर गया। टंकी करीब आठ-दस फुट गहरी थी। अगर चाची ने न देखा होता तो मेरी मौत निश्चित थी। वे सबसे पीछे चल रही थीं। उन्होंने दौड़कर हाथ पकड़ा और चिल्लाकर दूसरों को बुलाया। तब जाकर मुझे पानी से निकाला गया।

अशोक वार्ड में 1970 में हमारा घर बना। उसके बाद चार-पांच घर और थे, फिर गणेशराम शर्माजी का बगीचा शुरू हो जाता था। इसी परिवार के पराग से बाद में गहरी मित्रता हुई। बचपन में शर्माजी के अमरूद के बगीचे में हम अंडाडावरी खेल खेलते थे। खेलने का मौका सीजन के बाद मिलता था। अमरूद के सीजन में तो चैकीदार सजग रहता था। उस जमाने में हम जैसे न जाने कितने बच्चों के हाथ अमरूद तक पहुंच ही जाते थे। अब इस जगह बहुत अच्छी कालोनी बन गई है। अब यहां पुराने जमाने का एक भी ठूंठ नहीं बचा है।

कस्बे का सबसे पुराना हाईस्कूल रामनारायण अग्रवाल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय यानी आरएनए स्कूल के पीछे भी दो बगीचे थे। एक शायद झंवरजी का था और दूसरा किसी मुस्लिम का था। अक्सर स्कूल के लड़के उन बगीचों में धावा बोल देते थे। कच्ची मटर, हरा चना या अमरूद जो कुछ भी हो, बच्चों की मौज हो जाती थी। स्कूल में शिकायत होती और प्राचार्य समेत समी शिक्षक उदंड बच्चों पर निगाह भी रखते थे। कई बार चैकीदार ने लड़कों को दौड़ाया भी है। इसी स्कूल की जमीन पर ही एक कोने मे महाविद्यालय की शुरुआत हुई। बाद में काॅलेज का दूसरा भवन बना। आरएनए स्कूल के प्राचार्य श्रीराम तिवारी की अब तक याद है। वे स्कूल के शरारती लड़कों को काबू करके ही मानते थे। एक बार हमारी कक्षा के नेपाल सिंह ने कक्षा में अगरबत्ती जलाकर उसमें रस्सी बम पटाखा बांध दिया। हमारे एकाउंटेंसी के मास्साब के पीरियड में थोड़ी देर के बाद धमाके साथ वह रस्सी बम फटा। सारे स्कूल के बच्चे अपनी कक्षाएं छोड़कर बाहर निकल आए। हमारी कक्षा को तिवारीजी ने मैदान में लाइन से खड़ा करवा दिया, लेकिन किसी ने नहीं बताया कि पटाखा किसने रखा था। सबको पांच-पांच रूल की सजा मिली थी। उस जमाने में शरारती लड़के कक्षा की खिड़की की रेलिंग की एक-दो छड़ तोड़कर भाग जाते थे। तिवारीजी ने एक आदमी ही स्थायी तौर पर रख लिया था। उसके साथ रोज शाम को वे स्कूल की हर खिड़की की जांच करते थे और अगर कोई छड़ टूटी या निकली मिली तो उसे तुरंत ठीक करवा देते थे। उनकी अनुशासनप्रियता ने पूरे स्कूल को अच्छा पाठ पढ़ाया था।

१९७७ में पिपरिया कॉलेज के मंच पर किशन व्यास
के सांथ "जनता पागल हो गई है" का मंचन |
 इसी तरह पिपरिया कालेज के प्राचार्य महालहा साहब को भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने एक दबंग छात्र नेता की नकल पकड़ ली थी। उन्होंने कहा था, इस कालेज में दो दादा नहीं रह सकते। जब मैं आ गया हूं तो तुम्हारा क्या काम है। इस घटना के बाद महालहा साहब के खिलाफ छा़त्रों की सबसे हड़ताल हुई थी। शायद वह हड़ताल 110 दिन तक चली थी। महालहा साहब जल्दी चले गए। शायद उनका रिटायरमेंट भी नजदीक था। वे एम्बेसी सिगरेट पीते थे और एक सिगरेट से ही दूसरी सुलगा लेते थे। रोज करीब दस-बारह पैकेट सिगरेट पीते थे। बोलते बहुत अच्छा थे। सोशल गेदरिंग में उनके भाषण ने बहुत प्रभावित किया था। महालहा साहब के छोटे से कार्यकाल में ही हम जैसे कई छात्र उनसे बहुत प्रभावित थे। वे दिखने में भले ही कमजोर लगते हों लेकिन दबंगई के आगे झुकना नहीं जानते थे।

7 comments:

  1. नरेन्‍द्र भाई ब्‍लाग की इस दुनिया में स्‍वागत है। पिपरिया का शब्‍द चित्र पिपरिया की यात्रा करवाता है।
    अरे भैया यह वर्ड वेरिफेकशन हटाओ।

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  2. काश आपका ये घर-कस्बा मेरा भी बन सकता चाचू. लेकिन मेरे पास भी एक प्यारा घर-गाँव है नौगांवखाल...आप वहाँ आये हो ...आपसे प्रेरणा लेकर अब उसके बारे में कुछ लिखना शुरू करना चाह्ताहूँ. मेरी मानों तो इस सुमरनी को कुछ लोगों के लिए खोल दो...ताकि वे भी यहाँ कुछ वैसा सुमिरन कर सकें. मुझे, गोपाल चाचा, बीरेंद्र चाचा, बालेन्दु चाचा....कई लोग हो सकते हैं...आप सोचना इस बारे में...

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  3. पढ़ते हुए लगा कि मेरा भी बचपन पिपरिया में ही गुजरा या आपने जगहों, लोगों का नाम बदल कर मेरे गांव को याद किया है.

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  4. आपकी सुमरन तो खूब है. पढ़ते हुए, गाने का मन करता है.

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  5. प्रिय नरेंद्र
    तुम्हारा ब्लॉग आखिर शरू हो ही गया | बधाई मेरे दोस्त |
    अपना शहर और अपना अतीत सबको अच्छा लगता है | मेरा
    चश्मदीद गवाह के नाते पढ़कर रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है |
    स्व .ललित अग्रवाल के निधन के कारण स्थगित हुए नवलेखन
    शिविर के ज़माने से अब तक की सारी घटनाये चलचित्र की तरह
    स्मृति पटल पर उभर रही है | खैर ..........|
    रपटे वाली मछ्वासा और पुल वाली पासा अलग अलग नदी नहीं है
    एक ही नदी के दो नाम है |आगे जाकर अजेरा के पास यह नदी कुब्जा के
    नाम से नर्मदा में मिलती है |जिसे सरस्वती की साधना स्थली के रूप में
    मान्यता मिल रही है | एक बार फिर से शुभकामनाये |

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  6. भैया आपकी इस पोस्ट ने पिपरिया की याद दिला दी इस हफ्ते पिपरिया जाने का मन बना लिया है..
    -अखिलेश सोनी
    Mo. : 74891 54689

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  7. वाह यार नरेंद्र, तुमने मुझे ३५ साल पुरानी यादों का चलचित्र दिखा दिया| १९८० में पिपरिया छोडने के बाद से आज तक पिपरिया मेरी यादों में मुझे गुदगुदाता रहा है| तुमने रेलवे स्टेशन के एक तरफ का ब्योरा पेश किया है, चूँकि पिताजी रेलवे में कार्यरत थे, हमारा निवास रेलवे स्टेशन के दूसरी ओर रेल पटरी के बिल्कुल समीप हुआ करता था| शाम का ज़्यादातर वक़्त भी पचमढ़ी रोड और इतवारा बाज़ार की तरफ बीतता था| कई सालों तक पचमढ़ी रोड के बजरंग बलि के मंदिर पे हाज़री लगाना जैसे हर शाम का नियम सा बन गया था| कभी रेलवे स्टेशन पर पड़ी सीमेंट की बेंच पे तो कभी मेरे घर के सामने पड़े रेल पटरी के नीचे लगने वाले सीमेंट के स्लीपर्स के ढेर पर बैठकर हम तीनों (बालेंद्र परसाई, तुम और मैं) का प्रगतिशील कविता पे बहस करना शायद तुम्हे भूला नही होगा...
    दोस्त, वो दिन तो वापस नही आ सकते, लेकिन पुराने दोस्तों के साथ उन्ही सब जगहों पे बैठ के उन दिनों की बातों का लुत्फ़ तो उठाया ही जा सकता है! क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता की हम सब एक बार फिर साथ मिल बैठें?

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