Tuesday, June 24, 2014

देर से ही सही पर सुमरनी में वापसी अपनी ताजा ग़ज़ल से

खुदाया जिंदगानी क्या
मिरे होने के मानी क्या

क्यों दुनिया में हम आए
है किस्सा कहानी क्या

है दिल का धड़कना भी
कोई धुन पुरानी क्या

हयात ओ क़जा है खेल
इसमें मेहरबानी क्या

कातिल जान ही लेगा
उसकी मेजबानी क्या

मकसद है न महबूबा
करे जोश ए जवानी क्या

हम गूंगे हैं जन्मों के
कहेंगे मुंहजुबानी क्या

शजर गुजरे दिनांे का हूं
मिलेगा खाद-पानी क्या


घुप्प अंधेरे में जैसे चिमनी काम करती है वैसे ही कभी-कभी लफ़्ज भी करते हैं। चंद अशआर आपस में मिल कर ऐसा ताना बाना बुन लेते हैं कि मन खुश हो जाता है। कितनी मामूली खुशी है यह, लेकिन इतनी कीमती कि मुुफलिसी भी शर्मा जाए।

नरेंद्र कुमार मौर्य
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