Monday, November 1, 2010

पिपरिया: अपना कस्बा-अपना घर (2)


देवगांव, पोसार फिर, कहें पिपरिया आज,
गोंड बने मजदूर अब, कभू करत थे राज |

पेड़ तो बूढ़े हो गए, गलियां हुईं जवान,
और सयाने हो गए, आंगन और दहलान |

कहां बैल, गाड़ी कहां, कहां होय चूं चर्र,
सबरे मिलके ढूंढ़ रये, कहां गोरैया फुर्र |

दिन बदले और कट गई चैराहे की नीम,
चैराहे की टीस यह, जैसे हुआ यतीम |

बाग बगीचे लापता, फूल गए मुरझाय,
मालन का माला गुंथे, कोई देय समझाय |

चैगड्डा, टप पान के, या गलियों के छोर,
टूटे से न टूटती, थी बातों की डोर |

कैसे रपटत जात थे, मछवासा के पास,
अब न वो रिपटा रहो, न नदिया की आस |

माटी नहीं कुम्हार की, न बसोड़ के बांस,
पुश्तैनी धंधे मिटे, रोजी बन गई फांस  |

होली के हुड़दंग में, गाली लागत थी खीर,
सुर में ही गरियात थे, कहते उसे कबीर |

बब्बू भैया से मिले, गया जमाना बीत,
कबसे रस्ता देख रये, कई अधूरे गीत | 

डग डग करता डगडगा, धड़धड़ करती रेल,
पुल पर बच्चों ने करे, जाने कितने खेल |

आज जो है वो कल नहीं, यह कुदरत की रीत,
काहे फिर खोजत फिरे, कहां गए दिन बीत |

बाबा बैरागी मिले, साधु-संत, फकीर,
पर अपने संगे चलो, पांव-पांव कबीर |

चाहे गलियों में चलें, चाहे चढ़ें पहाड़
जब तक रागी न बने, झोंकत रहिए भाड़ |

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