Tuesday, May 8, 2012

मूर्खता का दरबार

       बचपन में एक कहानी सुनी थी। शायद पंचतंत्र से, एक बनिये का बेटा नालायक निकल गया। वह उसे घर से निकाल देता है और कहता है कि अगर तू मेरा बेटा है तो मरे चूहे से भी कमा सकता है। जब कमा लेना तब घर आना। कहानी के नायक को सचमुच एक मरा चूहा मिल जाता है और वह उसे एक बिल्ली वाले को देकर उससे मटका लेता है। फिर मटके से पानी पिलाने का काम, फिर मटका बदलकर कुछ और...इस तरह कुछ समय में ही वह धनवान बन जाता है।
      लेकिन हकीकत कहानी से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। आधुनिक युग में एक बाबा ने यही साबित किया। मरे चूहे से कमाना पुराने जमाने का कौशल था। नए जमाने में चूहे को भी नहीं मरना पड़ता और आदमी धनकुबेर बन सकता है।    चाहे तो भगवान बन सकता है और अगर भगवान बनने का दिल न चाहे तो भगवान का एजेंट भी बना जा सकता है। बाबा ने कहा आदमी अगर गुणी है तो वह मुफ्त में मिलने वाली चीज को भी बेच सकता है। प्रापर्टी से लेकर कई तरह के धंधों में हाथ आजमा चुके बाबा ने अंततः ईश्वर की कृपा बेचना तय किया। जो भी जीव संसार में आया है, वह इसलिए आ पाया क्योंकि उस पर ईश्वर की कृपा है, तमाम तरह के धर्मग्रंथ ऐसा ही कहते हैं। बाबा के नाते रिश्तेदार और दोस्त यार बिगड़े, बहुत मूखर्तापूर्ण बात है भला ईश्वर की कृपा भी कोई बेच सकता है। तुम्हें लगता है दुनिया इतनी मूर्ख है कि तुम्हारी कृपा खरीदने लाइन में लग जाएगी। बाबा बोले यही तो इस काम का मजा है कि लोगों की मूखर्ता से मुनाफा कमाओ और महान भी बन जाओ।
       बिना प्रचार प्रसार के कौन मूर्ख बाबा की कृपा खरीदने आता। इसके लिए बाबा ने कृपा का नकली दरबार लगाया। उसकी वीडियोग्राफी करवाई और फिर आकर्षक विज्ञापन तैयार करवाकर न्यूज चैनलों से संपर्क साधा। न्यूज चैनल ज्यादा कमाने की लालसा में बाबा के मूखर्ता के दरबार का प्रचार प्रसार करने को तैयार हो गए। बाबा ने उन्हें अच्छी खासी रकम दी। इधर न्यूज चैनलों की कमाई बढ़ी और उधर बाबा का धंधा भी चल निकला। कुछ दिनों में ही बाबा टीवी पर छा गए।
लोगों की जागरूकता का स्तर यह है कि वे समझें कि यह न्यूज चैनलों की लाइव रिपोर्टिंग है। वे यह सोच ही नहीं पाए कि यह विज्ञापन भी हो सकता है। बाबा की योजना कामयाब रही और बाबा का मूखर्ता का दरबार सजने लगा। बाबा विज्ञापन में बकायदा बैंकों के एकाउंट नम्बर देता है जिसमें रकम जमाकर आप दरबार में सीट बुक करवा सकते हैं। और दरबार में होता क्या है? एक ऊंचे सिंहासननुमा कुर्सी पर विराजमान बाबा किसी राजा-जमींदार की तरह जो मन में आए बोल देते हैं और वह ब्रह्म वाक्य बन जाता है। उनके उपाय और कृपा बरसाने वाली साधारण बातें भी लोगों को असाधारण लगने लगती हैं और भक्त अपनी बात कहते कहते बिलख पड़ते हैं।
        आखिर 33 करोड़ देवी देवता वाले धर्म के लोगों को कितने ईश्वर चाहिए? कितने बाबा चाहिए? बाबा के भक्तों में ज्यादातर शिक्षित हैं, लेकिन उनकी शिक्षा कितनी अधूरी है यह एक लंपट बाबा के सामने उनके समर्पण से जाहिर है। जिन आदि शक्तियों और ईश्वर की कृपा की बात की जाती है वह दलालों के माध्यम से मुमकिन ही नहीं है। उसके लिए तो बस निर्मल मन से ध्यान लगाना ही काफी है।

तीस साल पहले अंधविश्वास और जागरूकता

 1982 की बात है। किशोर भारती संस्था में अंधविश्वासों के खिलाफ एक कार्यशाला आयोजित की गई। हम जैसे आसपास के कुछ नौजवान उसमें शिरकत कर रहे थे। लोक विज्ञान संगठना महाराष्ट्र के नेतृत्च में यह कार्यशाला हो रही थी। शायद पांच दिन या हफ्ते भर की थी। कार्यशाला के दौरान लोक विज्ञान संगठना वालों ने हमें कई तरह के चमत्कारों को करने का विज्ञान समझाया। जैसे खाली हथेली से भभूत निकालना, कलश के ऊपर रखे नारियल में अचानक आग लगा देना, अंगारों पर चलना। अंतिम दिन तय हुआ कि इस प्रशिक्षण का गांव में प्रदर्शन किया जाए और अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम शुरू की जाए। बनखेड़ी से कोई आठ-दस किलोमीटर पर मछेरा कलां गांव है। इसी गांव से शुरुआत करनी थी। हमने एक नाटक तैयार किया कि कैसे एक बाबा चमत्कार दिखाकर जनता को भ्रमित करता है और गांव के कुछ नौजवान उसका भंडाफोड़ करते हैं और उसके चमत्कारों के पीछे का विज्ञान जनता को बताते हैं। एकलव्य, भोपाल के कमल सिंह को बाबा की भूमिका दी गईं। नाटक के पहले पांच मिनट बाबा के थे और उसके बाद दस मिनट चमत्कारों के विज्ञान पर केंद्रित थे। लेकिन गजब हो गया, बाबा के पांच मिनट होने से पहले ही उपस्थित जनसमूह उनके कदमों पर लोटने लगा। बाबा की जयकार होने लगी। ऐसा माहौल बन गया मानो सचमुच कोई महान बाबा अचानक गांव पर कृपा करने कहीं से आ गया है। हम सबको बहुत श्रम करना पड़ा यह समझाने में कि यह बाबा नहीं, हमारे नाटक का पात्र है। एक झटके में कमल सिंह की नकली दाढ़ी उखाड़ दी गई। काफी देर लगी माहौल को फिर बनाने में और तब कहीं जाकर हम पूरा नाटक कर पाए।

कैसे लगे ईश्वर का सुराग

हम सबको ही ईश्वर की बहुत जरूरत है पर अक्सर हम दलालों में उलझ जाते हैं और कुछ कर्मकांड करके ही मान लेते हैं कि हमने ईश्वर की निकटता पाली है। ईश्वर की तलाश हर इंसान करता है, हमने भी की और जो कुछ सुराग मिले वह गजल के रूप में आपके सामने है -

न मंदिरों में है कहीं, न मस्जिदों में है
भगवान तेरे मेरे सभी के दिलों में है

दाने की शक्ल में कहीं फसलों में जड़ा है
पानी की बूंद की तरह वो बादलों में है

भूख में है, प्यास में है, आस में है वो
चूल्हे की आग बनके वो सबके घरों में है
 
बच्चों की हंसी में है वो, मांओं के दिलों में
कहकहे बांटता हुआ वो पागलों में है

लालच की नाव पे’ है न तन के सुखों में है
चीखों में, घायलों में, हमारे दुखों में है

मजदूर के पसीने की खुशबू में है बसा
खेत की मिट्टी में वो हल बक्खरों में है

मुल्लाओं-पंडितों की गलतफहमियां हैं ये
वो उनके ही खींचे हुए कुछ दायरों में है

उल्फत के इस सफर में अकेला कहां हॅै तू
हरेक कदम पे’ वो तो तेरे रास्तों में है
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