Sunday, March 13, 2011

सुमरना ऐसे दोस्त को जो बिना मिले ही चला गया, बहुत दूर.....


कृष्णमूर्ति
कैसे सुमरें यार अब फटो कलेजा जाय
तूही अब जो ने रहो, आल्हा कौन सुनाय
तेरे संगे बीत गए कितने ही दिन-रात
टेम भी पूरो ने पड़ो, रही अधूरी बात
मिलके खूब उड़ाई है गांव-गैल की धूल
दिन समता - संघर्ष के कैसे जाएं भूल


दोस्तों को ऐसे भी सुमरना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था। कृष्णूमूर्ति अब नहीं है, विश्वास नहीं होता। उम्र में हमसे छोटा, सेहत में बेहतर और जवानी के दिनों की ऊर्जा से लबरेज वह दोस्त अब कभी नहीं मिलेगा, यह कलेजा चीरने वाली बात है। बीच में कई बरस हम नहीं मिले। पिपरिया छूटा तो बहुत से दोस्तों का साथ भी छूट गया। कृष्णमूर्ति भी उनमें से एक था। करीब पांच साल पहले जब मैं सहारा समय साप्ताहिक में बच्चों का पेज देखता था तब एक दिन आफिस में उसका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था, जब मैं बच्चों से कहता हूं कि सहारा समय के बचपन वाले नरेंद्र मौर्य पिपरिया के हैं तो उन्हें आश्चर्य होता है। फिर पिपरिया में गुूलेल कला कांरवा कार्यक्रम में वह पत्नी-बच्चों समेत मौजूद था। उसके बाद एक बार नोएडा भी आया, एक रात रुका। तब ढेरों बातें हुई थीं। बरसों से जो कड़ी टूट गई थी वह फिर जुड़ने लगी। इसमें नया पन्ना जोड़ा सुरजीत ने। उसे इंडिया फाइन आर्ट आॅॅफ बेंगलुरू की फेलोशिप मिली थी। फेलोशिप हमारे 22 साल पुराने एक अनुभव से जुड़ी थी, ‘आल्हा से न्यू मीडिया तक’। कृष्णमूर्ति, वीरेंद्र और मैंने 1988 में एक गांव पर पुलिस अत्याचार की कहानी आल्हा के शिल्प में कही थी। सुरजीत हम तीनों रचनाकारों से इकट्ठे बात करना चाहता था। 29-30 जून 2010 के दो दिन हम चार लोगों ने एक साथ गुजारे। ढेरों बातें की। आगे की योजनाएं भी बनीं।

एक पूरी दोपहर हमने मशहूर चित्रकार और नर्मदा परकम्मावासी अमृतलाल वेगड़ के घर गुजारी। वेगड़जी से बात हुई तो उन्होंने पूछा लोकल का कौन है आपके साथ जिसे वे बताएं कि उनके घर कैसे पहुंचना है। तब कृष्णमूर्ति ने ही वेगड़जी से बात की थी और हमें उनके घर ले गया था। वेगड़जी से ढेरों बातें कीं। उनके काम और परकम्मा के अनुभव सुने। मूर्ति ने हमारे ठहरने का इंतजाम कृषि विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में किया था। वहां हमने बुदनी कांड की आल्हा को लेकर लंबी बातचीत की। हम सभी रोमांचित थे। 22 साल पुराने रचनात्मक अनुभव को मिलकर याद करना बहुत सुखद था। बातचीत चल ही रही थी कि अचानक बाहर तेज बारिश शुरू हो गई। मूर्ति ने कहा, लो हम आल्हा की बात कर रहे हैं और बाहर पानी बरसने लगा। बुंदेलखंड में आल्हा बरसात के दिनों में ही गाई जाती है।

यह भी संयोग हैं कि सबसे पहले हमारा रिश्ता मूर्ति के पिताजी के साथ बना। हम उन्हें जमना काका कहते थे। असल में जमना काका की दुकान पर ललित अग्रवाल बैठते थे। खासकर शाम को वहां बैठक जमती थी। उन दिनों वीरेंद्र, बालेंद्र और हम ललित भाई के साथ साहित्य चर्चा के लिए वहां पहुंच जाते थे। जमना काका का हम तीनों पर ही बहुत स्नेह था। 1980 के बाद जब समता युवजन सभा में हम लोग सक्रिय हुए तो मूर्ति का साथ मिला। उसके बाद दस साल हम लोग लगातार साथ रहे। भगतसिंह पुस्तकालय हम लोगों के मिलने और काम करने का अड्डा बना। जब मूर्ति होशंगाबाद के पास पंवारखेड़ा कृषि फार्म में लेब असिस्टेंट बन गया, तब भी उसका अड्डा भगतसिंह पुस्तकालय ही बना रहा। कितनी ही बार वह पंवारखेड़ा में हाजिरी लगाकर अगली गाड़ी से लौट आता था। फिर देर रात राजनीतिक - सांस्कृतिक गतिविधियों में जुटा रहता।

उस समय हम लोग लोक गीत-संगीत का उपयोग जनसंघर्षों में करने की सोच रहे थे। 25 दिसम्बर, 1985 को केसला में आदिवासी मजदूर संगठन का पहला सम्मेलन हुआ। उसके लिए हमने ‘एका ऐसो बनाएं’ नाम से जन गीतों का प्रकाशन किया था। इसके बाद जब बुदनी कांड हुआ तो आल्हा लिखने का तय हुआ। इसमें कृष्णमूर्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। असल में उस पूरे आंदोलन में मूर्ति की खास भूमिका थी। वह कितनी ही बार वीरेंद्र के साथ बुदनी गया। फ्रंट लाइन की विशेष संवाददाता वसंता सूर्या तीन-चार दिन के लिए पिपरिया आईं। मूर्ति ही उन्हें बुदनी ले गया था। वे मूर्ति से बहुत प्रभावित थीं। वे 50-55 के आसपास की थीं और उन्हें मूर्ति अपने बेटे जैसा लगता था। उन्होंने 1988 के एक अंक में बुदनी आंदोलन को लेकर पांच पेज की कवर स्टोरी लिखी थी। उन्होंने बुदनी की आल्हा का अंग्रेजी अनुवाद भी किया जो बाद में प्रकाशित भी हुआ। आल्हा को आंदोलन के दिनों में ही पूरा करवाकर छपवाना और फिर रिकार्ड कर गली.मोहल्लों में कैसेट बजवाने तक मूर्ति ने जिस तेजी के साथ काम किया था वह अद्भुत था।

बुदनी की आल्हा के बाद हमने जंगल रामायण लिखने की योजना बनाई। समता का काम जंगल पट्टी में बढ़ रहा था। गोंड-कोरकू आदिवासी लगातार उत्पीड़ित किए जा रहे थे। गांवों में हमारे दौरे बढ़ गए थे। हमने रामचरित मानस की तर्ज पर अलग-अलग कांडों में जंगल की कहानी कहना तय किया। तीनों के बीच विषय बंट गए, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। हम तीनों ने ही जंगल कांड को अलग-अलग हिस्सों में लिखा लेकिन एक-दूसरे को सुनाने का मौका नहीं मिला। हम सब लोगों का पिपरिया से ठियां उजड़ गया। बरसों बाद मेरे हिस्से के जंगल कांड का पाठ 2005 के गुलेल कला कारवां में किया गया। कृष्णमूर्ति ने ठीक ही कहा था, बुदनी की आल्हा इसलिए पूरी होकर अपनी भूमिका निभा पाई क्योंकि उसके साथ आंदोलन चल रहा था। जंगल रामायण के साथ कोई आंदोलन नहीं था इसलिए वह पूरी नहीं हो पाई।

30 जून 2010 को लंबी बातचीत के हमने आल्हा गाई। हमेशा की तरह कृष्णमूर्ति आगे रहा। उसने पूरी आल्हा बहुत मजे के साथ गाई। हम और वीरेंद्र ने तो बीच-बीच में मूर्ति का साथ दिया। मूर्ति फिर पुराने रंग में दिखा। सुरजीत ने पूरे गायन को रिकार्ड कर लिया। यह अनुभव अहसास करवाते रहता है कि मूर्ति यही आसपास है। आप भी सुनिये।


आल्हा

आल्हा: अपनी-तुपनी


आल्हा कि सुमरनी


बुदनी कि कहानी #1


बुदनी कि कहानी #2


बुदनी कि कहानी #3


ना डारे कोई डाका रे



आल्हा (1) 
आल्हा (2)
आल्हा (3)
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