Monday, June 25, 2012

उजड़े गांवों का राग - दो

(क्राय की फेलोशिप विकास, विस्थापन और बचपन के दौरान रोरीघाट, इंदिरानगर और नये धांई की यात्रा की गई। काम के दौरान लिखी डायरी के कुछ पन्ने यहां सबसे साझा कर रहा हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की दूसरी किस्त)

इंदिरानगर में मृत्यु उत्सव

        इंदिरानगर, न नगर है न गांव, वह तो विस्थापितों का एक मोहल्ला भर है। वहां पर होशंगाबाद और छिंदवाड़ा जिले के कई दुखियारों ने पनाह ली। सब रोजी रोटी की तलाश में भटकते हुए आए और यहां बस गए। रोरीघाट के तीन परिवारों ने भी यहीं पनाह ली और 1981 में नीमघान से भगाए गए आदिवासियांे को भी यहां ठिकाना मिला। बाद में इन सबको इंदिरा आवास योजना के तहत मकान के लिए 15 सौ रुपए मिले तो इसका नाम इंदिरानगर हो गया। इस बात को जमाना बीत गया लेकिन इंदिरानगर अनहोनी गांव का एक टोला ही बना रहा। अपने गांव से इस टोले की दूरी तीन किलोमीटर है।
        नीमघान के आठ परिवार अब भी इंदिरानगर में हैं। 1981-82 में जब सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के चलते नीमघान उजड़ा तो 150 घरों का गांव बिखर गया। लोगों को जबरन भगाया गया बिना किसी पुनर्वास के। तब 30-40 परिवार इंदिरानगर आ गए थे और दूसरे कई गांवों में बस गए, नांदिया, घोड़ानार, डापका, बिरजूढाना आदि। लखन दादा कुछ परिवारों के साथ इंदिरानगर में ही डटे रहे। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें राजस्व विभाग ने जमीन दी। आज उनके तीनों बेटों के पास पांच-पांच एकड़ जमीन है। इंदिरानगर में सभी के पास एक-दो एकड़ जमीन है। जो उन्हें बहुत बाद में राजस्व विभाग की मेहरबानी से मिली। दूसरी सुविधाओं ंमें एक प्राइमरी स्कूल और तीन सरकारी नलकूप, तीन-चार हैंडपंप और बस। देखकर ही लगता है प्रशासन ने इस गांव की सुध नहीं ली है।
        लखन दादा से बहुत बात हुई। उन्हें अपना पुराना गांव नीमघान सबसे ज्यादा याद था। वे उन अंतिम लोगों में से थे जिन्हें वन विभाग ने घरों में आग लगाकर भगाया था। तीन अप्रैल 2011 की वह यादगार दोपहर मैंने झोपड़े के पीछे खेत में लखन दादा के साथ गुजारी थी। उनकी हालत जर्जर थी। वे बीमार थे। खेत में टपरिया डाले चारपाई पर बैठे थे। उनके एक पैर में तकलीफ थी। उन्होंने उस पैर को रस्सी से बांधकर एक लकड़ी के सहारे लटका रखा था। अजीब दृश्य था। ऐसे पैर बांधकर लटकाने से उन्हें आराम मिल रहा था। मैंने कुछ फोटो भी लीं लेकिन उन्हें एकलव्य के कम्प्यूटर में सेव करना महंगा पड़ गया। तकनीकी  खराबी से सारी फोटो बेकार हो गईं।
        तकलीफ में भी नीमघान के नाम से जैसे लखन दादा खिल उठे। वे देर तक नीमघान के उजड़ने की कहानी सुनाते रहे। वन विभाग से लेकर राजस्व विभाग तक वे कई अधिकारियों से कई बार मिले। उनकी भागदौड़ का फायदा पूरे इंदिरानगर को मिला। आज सबके पास कुछ जमीन है। मैं मंत्रमुग्ध होकर उस बुजुर्ग से किस्से सुनता रहा। उनके बड़े बेटे जबर सिंह और पिपरिया के मित्र मायाराम भी साथ थे।
         लखन दादा शहद तोड़ने मे उस्ताद थे। उन्होंने सतपुड़ा की ऊंची चट्टानों से भी शहद के छत्ते तोड़े हैं जहां जाने की दूसरे सोच भी नहीं पाते। देर तक हम उन्हें सुनते रहे। वे थक गए थे। पैर बहुत दर्द कर रहा था। मैं सोच रहा था एक-दो मुलाकात और हो जाए तो मजा आ जाएगा। पर इसके लिए उनके स्वस्थ होने का इंतजार करना था, लेकिन खबर मिली की दूसरे दिन यानी चार अप्रैल2011 को ही ल खन दादा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
         यह अजीब संयोग था कि मुझे लखन दादा की मौत के बाद के कार्यक्रमों में शामिल होने का मौका मिला। यह सुन रखा था कि कोरकू समाज मृत्यु उत्सव मनाता है। सब मिलकर पीते-खाते और नाचते-गाते हैं, लेकिन कभी नजदीक से कोरकू समाज की इस रस्म को देखने का मौका नहीं मिला था। जैसे हिन्दुओं में मौत के बाद 11वीं पर खाना खिलाते हैं। लखन दादा की ग्यारहवीं भी हुई। हमने भी खाया। उसके दूसरे दिन ‘गाता’ कार्यक्रम हुआ जिसे जागर भी कहा जाता है। यह कोरकू समाज की सबसे महत्वपूर्ण रस्म है। इसमें लोग जरूर पहुंचते हैं। कुल मिलाकर चार-पांच दिन तक यह मृत्यु उत्सव चलता है।
        जबर सिंह ने अपने दो छोटे भाइयों के साथ मिलकर पूरे कार्यक्रम को आयोजित किया था। करीब 20 गांवों के सौ-डेढ सौ लोग इंदिरानगर मंे मौजूद थे। हमने देर तक गाता को गाते-नाचते देखा-सुना। ढोल बाजों के साथ औरत-मर्द सब झूमकर नाच-गा रहे थे। सबने महुआ की शराब छान रखी थी। युवा भी झूम रहे थे और वृद्ध भी। बीच में भोजन भी हुआ जिसमें गोश्त का एक सूखा टुकड़ा भी मिला। फिर नाच-गाना शुरू हो गया।
       सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए थे। उसे एक कपड़े में बांधा गया था। पटिए और कपड़े पर हल्दी लगी थी। एक ग्रामीण उसे अपने कंधे पर लेकर झूम रहा था। बीच में दो बाजे वाले बजा रहे थे और आदिवासी स्त्री-पुरुष गोल घेरे में नाच रहे थे। उनके गीतों में जीवन और मौत का दर्शन था तो जीवन के आनंद की धमक भी थी। पूरे दिन में उन्हें नाचते देखता रहा। नाच इतना तेज था कि कल एक ढोलक टूट गई। अब तक दो ढोल टूट चुके हैं। शराब के बारे में कहा गया कि कमी नहीं होने दी जाएगी। कल रात से लोग नाच रहे हैं और पी रहे हैं। गांव में करीब सौ-डेढ़ सौ लोगों का जमावड़ा था।
सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए हैं।
गाता का एक गीत 
ये जिंदगानी माटी पुतला
पानी गिरे घुल जाएंगे
ये जिंदगानी कागज का पुतला
पानी गिरे गल जाएंगे
       शाम को सब लोग नाचते गाते गांव के बाहर महुआ के पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां पटिए को पेड़ से टिकाकर रख दिया गया। लोग उस पर महुआ छिड़क रहे थे। उसी वक्त मैंने लखन दादा की बेटी को रोते हुए देखा। मुझे पहला कोई व्यक्ति मिला जिसकी आंखों में आंसू थे वर्ना यहां तो सभी झूम रहे हैं और नाच-गा रहे हैं। दूर से कोई शादी का जश्न समझ सकता है लेकिन यह गाता है। बैतूल में कोरकू इसे जागर कहते हैं। 
         रात भर के लिए उस पटिए को महुआ के पेड़ के ऊपर रख दिया। सुबह सब लोग इसे लेकर पगारा रवाना होंगे। पगारा पचमढ़ी के पास है। वहां एक पेड़ के नीचे इस इलाके के कोरकू मृत आत्मा के नाम का सागोन का पटिया गाड़ देते हैं।
अलविदा लखन दादा
          जबर सिंह ने बताया सुबह सब लोग पैदल पगारा जाएंगे। जो यहां से करीब 30-35 किलोमीटर पड़ेगा। उसके बाद शाम तक सब वापस आ जाएंगे। इस तरह मौत के बाद का उत्सव चार-पांच दिन तक चलता है। इसमें समाज के सभी लोगों का आना अनिवार्य है। जबर सिंह ने बताया करीब तीस हजार का खर्चा आया है।
            इंदिरानगर में गाता कार्यक्रम को देखकर मन हल्का हो गया। विस्थापन के बाद भी इंदिरानगर के कोरकू अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोये हुए हैं। अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद ‘गाता’ उन्हें एक दूसरे से जोड़े हुए है।  


          

2 comments:

  1. एक डायरी कितना कुछ कहती है।

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  2. तथाकथित विकास के लिए लगातार बलिदान हो रहे विस्थापित आदिवासियी की कथा और व्यथा को अपने ब्लॉग में स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद l
    हजारों वर्षो से जंगली जानवरों के साथ रहते आये इन आदिवासियों को शेर बचाने और पलने के नाम पर गाँव सहित हटाया गया है , प्रलोभन देकर या जबरदस्ती l
    रेंज्लाल की कहानी तो अपने आप में एक मिसाल है .....फारेस्ट डिपार्टमेंट के शोषण और यौन शोषण की l
    इस आदिवासी व गरीब विरोधी व्यवस्था को बदलने के लिए मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ,हरदा बैतूल जिलो में समाजवादी जनपरिषद ,किसान आदिवासी संगठन ,श्रमिक आदिवासी संगठन
    पिछले पच्चीस साल से लगातार आन्दोलन कर रहे है i
    - गोपाल राठी

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