Tuesday, October 25, 2011

अंधेरों की हलचलों में रोशनी पैदा करें

रोशनी की शुभकामनाएं
                       
(मजे की बात यह है कि आज अपने 54 साल पूरे हो गए)

अंधेरों की हलचलों में रोशनी पैदा करें
देश के सारे जिलों में रोशनी पैदा करें

जगमगा उठ्ठे जमीनें दीयों सी हर गांव में
अब किसानों के हलों में रोशनी पैदा करें

जहां बढ़ते हैं शिकारी अंधेरों के जाल ले
उन उनींदे जंगलों में रोशनी पैदा करें

बांट लें हर एक की तकलीफ अपनेआप हम
इस कदर अपने दिलों में रोशनी पैदा करें

जिंदगी मुश्किल सही पर ये क्या कम है दोस्तों
हम हमेशा मुश्किलों में रोशनी पैदा करें
                
                     (बरसों पहले एक दिवाली पर)
रोशनी को और क्या क्या चाहिए
तेल, बाती और दिया चाहिए

झिलमिलाते रहें दिये आंगनों में
और लइया की पुटरिया चाहिए

जगमगा उट्ठे रंगोली के रंग
आज इस आंगन को बिटिया चाहिए

घर के माथे पर चमकती जुगनुएं
और पांवों में पैजनिया चाहिए

तेज होती है अब दिये की लौ
और क्या तुझको सजनिया चाहिए

                                 26 अक्टूबर, 2011

Thursday, October 20, 2011

राम नाम की लूट

             कुछ लोग भारत भ्रमण पर निकलते हैं सामाजिक-साम्प्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए लेकिन कुछ नेता वैमनस्यता बढ़ाने के लिए भी रथयात्रा जैसा प्रोप्रोगंडा करते हैं। बीस साल पहले राम जन्मभूमि के नाम पर देश में बवाल पैदा करने के लिए एक वीर पुरुष ने रथयात्रा करके देश के अमन चैन को खतरे में डाल दिया था। अब वह वयोवृद्ध नेता फिर भारत भ्रमण पर निकले हैं। इस बार उनका मुद्दा भ्रष्टाचार है हालांकि वे अपनी पार्टी शासित राज्यों में होने वाले भ्रष्टाचार पर चुप हैं।
            जिन दिनों राम के नाम पर एक दल विशेष के लोग आग उगल रहे थे। कथित सन्यासिनें ऐसी भाषा बोल रही थीं जिसे सुनकर किसी भी संवेदनशील और समझदार इनसान को शर्म आने लगे। ऐसे मौके पर मैंने दुर्गा स्तुति करने वाली लोक धुन जस पर एक गीत लिखा था। वह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। उन दिनों पिपरिया में इस मुद्दे पर किशन पटनायक की सभा में कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया था। कट्टरपंथियों से लोहा लेकर हमने किशनजी की सभा पूरी करवाई थी।
            सन तो याद नहीं, उस साल दिल्ली में लेखक, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने मानव श्रंखला बनाकर कट्टरपंथियों की करतूतों के प्रति विरोध जताया था। इस आयोजन में कई बड़े सेलिब्रिटी शामिल हुए थे। भीष्म साहनी भी मौजूद थे। बड़ा आयोजन था। वहां मैंने यह गीत सुनाया था। उसके तुरंत बाद ही शमशुल इस्लाम आए और यह गीत नोट कर ले गए थे।

यहां प्रस्तुत है वह गीत और साथ में एक गजल-

चला धरम का डंडा

राम जनम हथकंडा, चला धरम का डंडा

तथ्य आंकड़े कुछ भी मानें
ये इतिहास के पंडा, चला धरम का डंडा

कितने मरे भइया, कितने उजड़ गये
इनका जी नई ठंडा, चला धरम का डंडा

धरम के ठेकेदार, दंगे करायें
सूफी संत हैं गुण्डा, चला धरम का डंडा

छोड़ गरीबी भइया, महंगाई को
इनका एक अजंडा, चला धरम का डंडा

आने वाला कल भइया देखेगा तुमको
फोड़ दे सारा भंडा, चला धरम का डंडा

गजल

क्यों धरम के झगड़े तू बेवजह फंसे है
राम तो प्यारे यहां कण कण में बसे है

धरम तो इंसानियत की तरह दिल में है
ईंटों की इमारत में कहीं धरम बसे है

हम रोज गड़े मुरदे उखाड़ेंगे, लड़ेंगे
दुनिया भी फिर ऐसे तमाशे पे हंसे है

उनके मुंह से झाग फिर निकले जुनून में
जिनको सांप फिरकापरस्ती का डसे है

चल अब के मोहब्बत के बीज बोएं दिलों में
नफरत की इस दलदल में कहां यार धंसे है

Monday, October 3, 2011

किसान मजदूर संगठन के नेता पर पुलिसिया हमला बनाम मार न डंडा रे

           यह संभवतः 1989 की घटना है। जब जुन्हैटा में पुलिस ने किसान मजदूर संगठन के लोगों पर हमला कर दिया था। पुलिस ने मोहम्मद आजाद को बंदूक का कुंदा मारा था और हरगोविंद को गिरफ्तार कर लिया था। गांव के लोगों ने पुलिस को घेर लिया, तब हरगोविंद ने लोगों को समझाया और संघर्ष जारी रखने का एलान किया। यह शाम की घटना थी। हम रात भर पता करते रहे कि हरगोविंद को पुलिस ने कहां रखा है, लेकिन पता नहीं चला, होशंगाबाद के दोस्तों ने बताया पुलिस उसे लेकर वहां नहीं पहुंची। हम सब मित्र रात भर परेशान रहे। सुबह पता चला कि पुलिस ने हरगोविंद को रात भर सोहागपुर थाने की हवालात में रखा था।
          इस मुद्दे को लेकर समता संगठन और किसान मजदूर संगठन ने प्रदर्शन किया और पिपरिया के मंगलवारा चैराहे पर थाने के सामने आमसभा की। इस मौके के लिए मैंने एक गीत लिखा जो बहुत लोकप्रिय हुआ। प्रदर्शन के दिन इस गीत का बोलबाला रहा। आमसभा शुरू होने से पहले मंच से यह गीत सुनाया गया और गजब हो गया। लोग गीत दोहराने लगे। दस मिनट का गीत करीब आधे घंटे तक गाया गया। थाने के सामने पानी का टैंकर खड़ा था। लोग उस पर चढ़ गए और नाच-नाचकर लगातार मार न डंडा रे गाते रहे। बड़ी मुश्किल से लोगों को रोका और आमसभा की कार्यवाही शुरू हो पाई।

यहां प्रस्तुत है वह गीत -

मार न डंडा रे
मार न डंडा रे
पुलिसिये, मार न डंडा रे
फूट गया जनता के सामने
तेरा भंडा रे....
जुल्मिये मार न डंडा रे.......

तू इस मेहनतकश को जनता को लूटे, मारे, खाये
बनते देख के इनका एका तू कैसे घबराये
भरने लगा है देख तेरे अब पाप का हंडा रे......

देखो सत्ताधारी डाकू जंगल में घुस आयें
भोली भाली जनता को ये देख देख गुर्रायें
सच की छाती पे मारें बंदूक का कुंदा रे......

तेरे झूठ का इक दिन हम मिलकर जवाब दे देंगे
तेरे इक इक अन्याय का गिनकर बदला लेंगे
तेरे डंडे में बांधेंगे अपना झंडा रे.....

मार न डंडा रे जुल्मिये
मार न डंडा रे
फूट गया जनता के सामने
तेरा भंडा रे........

Sunday, September 11, 2011

अनशन: 12 दिन और 11 साल

   कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे, रामलीला मैदान की यही हालत है। 13 दिन तक झंडा, टोपी और आंदोलनकारियों के शरीर पर तिरंगा पोतने वालों का अन्ना मेला खत्म हो गया है। वे फिर पुरानी चीजें बेचने में जुट गए हैं। अन्ना अपने घर चले गए। मैदान में अब भी कुछ पोस्टर बैनर लटके हुए हैं जो उस ऐतिहासिक अनशन की गवाही देते जान पड़ते हैं जिसने देश की सर्वोच्च संस्था संसद को भी दिन में तारे दिखा दिए।
         उधर मणिपुर में एक महिला 11 साल से अनशन पर है उसे सरकार नली के जरिये तरल खाद्य देकर जिंदा रखे हुए है। वह मणिपुर में लागू एक ऐसे कानून को खत्म करने की मांग कर रही है जिसने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है। सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) हटाने के लिए इस लौह महिला ने अनशन करने का रिकार्ड बनाया है।
        1 नवम्बर 2000 को 29 साल की इस युवती ने अपने सामने सैन्य बलों को दस निर्दोष लोगों पर गोलियां बरसाकर मारते देखा था। दूसरे दिन से ही इरोम चानू शर्मिला अनशन पर बैठ गई। तीसरे दिन उन्हें आत्महत्या के प्रयास में गिरफ्तार  कर लिया गया। अब 11 साल हो रहे हैं। लौह महिला का अनशन नहीं टूटा है। कानून के मुताबिक हर 14 दिन बाद उसे अदालत में पेश कर हिरासत अवधि बढ़ाई जाती है। अस्पताल के उस हिस्से को जेल बना दिया गया है जहां इरोम भर्ती है। कानूनन उसे एक साल से ज्यादा कैद नहीं रखा जा सकता इसलिए हर साल दो-तीन दिन की रिहाई का नाटक किया जाता है फिर गिरफ्तार  कर लिया जाता है। इस तरह सबसे ज्यादा गिरफ्तार  और रिहा होने का रिकार्ड भी इरोम के नाम है।
        मणिपुर उत्तर पूर्व का छोटा राज्य है इसलिए न देश के जागरूक लोग इसे लेकर कुछ सोच पा रहे हैं न संसद ही इस पर विचार करने को तैयार है। हमारे माननीय सांसदों ने इरोम चानू शर्मिला के उस अनशन की कीमत नहीं समझी जो मणिपुर की आम जनता के दिलों को आज भी झकझोर रहा है। कैसे लोकतंत्र के पंडित इस जांबाज महिला के अनशन की अनदेखी कर सकते हैं?
        पूरा देश अभी अन्ना के आंदोलन की आधी जीत पर खुश है। संसद के अंहकार को टूटता देखकर सबको जैसे राहत मिली हो। उस दिन हम भी अन्ना की पाठशषाला में हाजिरी लगाकर लौटे थे। अन्ना के अनशन और युवाओं का जोश देखकर अचानक ही इस लौह महिला की याद आ गई। खबर थी कि इरोम ने अन्ना से मदद मांगी है। लेकिन अन्ना या उनकी टीम ने इस बारे में क्या कहा, मालूम नहीं। 
मेट्रो से लेकर रामलीला मैदान तक हमने अनूठा नजारा देखा। लगातार जत्थे आ रहे थे। लोगों के सिर पर अन्ना टोपी और चेहरे, बांह व शरीर पर तिरंगे के रंग नजर आ रहे थे। रामलीला मैदान जैसे प्रषिक्षण स्थल बन गया था। लोग परिवार सहित रामलीला मैदान पहुंच रहे थे। अन्ना हजारे की निष्छल बातें सीधे लोगों के दिल में उतर रही थीं। उनके बोलने का तरीका और सादगी लोगों के दिल को छू गई थी, लेकिन एक सवाल रह रहकर बेचैन कर रहा था क्या अन्ना की तरह देश कभी इरोम चानू शर्मिला के इस अनूठे बलिदान का सम्मान कर पाएगा?

     उस लौह महिला को सलाम करते चंद दोहे -
           गांधी से अन्ना तलक, अनशन के कई रूप
           चले जो 11 साल तक, वह अनशन भी खूब

          12 दिन अनशन चला, देश गया ज्यों जाग
          न बदला 11 साल में, मणिपुरियों का भाग

          मीडिया से सरकार तक, था अन्ना का शोर
          किसको फुरसत थी करे शर्मिला पर गौर

          मरते देखे लोग और गई सनाका खाय
          या बदले कानून अब, या ये जान ही जाय

          एक छोटे से राज्य की वह जांबाज कमाल
          जीते जी जो बन गई सबके लिए मिसाल



Sunday, August 21, 2011

देश बोले अन्ना अन्ना

        कभी सेना में मामूली ड्राइवर रहे एक व्यक्ति ने सारे देश में अलख जगा दी। दिल्ली का रामलीला मैदान ही नहीं, देश के हर कोने में लोग नारे लगा रहे हैं कि अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। 74 साल के ये बुजुर्गवार अचानक युवाओं के दिल की धड़कन बन गए हैं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर उम्र और हर तबके के लोगों को जैसे उनका नायक मिल गया हो। वे उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने को तैयार हैं।
       दिल्ली में अभूतपूर्व नजारा है। रविवार को इंडिया गेट से रामलीला मैदान तक तिल रखने को जगह नहीं थी। लोगों के जोश को देखते यह वाकई आजादी की दूसरी लड़ाई लग रही है। यही हाल देश के दूसरे हिस्सों का भी है। गांवों के किसान और भूमिहीन मजूदर तक अन्ना की जंग में शामिल हो गए हैं। मुस्लिम और अन्य धर्मों के लोग भी आंदोलन में आ गए है। इससे साफ हो गया है कि आरएसएस रामदेव की तरह इस आंदोलन को नहीं कब्जा पाएगा। संघ के प्रवक्ता राममाधव को केजरीवाल ने तुरंत मंच से उतार दिया था।
         बहुत कम समय में ही अन्ना के त्यागमय और निष्कलंक जीवन ने उन्हें सारे का देश का हीरो बना दिया। आज वे परिवर्तन की आवाज बन गए है। निसंदेह इसमें सिविल सोसायटी के अन्य लोगों का भी अहम योगदान है। निराश और अपने में गुम लोगों को भी रोशनी नजर आने लगी है। यह वक्त है कि हमारे रहनुमा सबक लें और जनलोकपाल बिल को पारित करें वर्ना वक्त उन्हें गहरी पटकनी देने वाला है।
            अन्ना और उनके जांबाजों को सलाम करते चंद गीत
1
देश बोले अन्ना, अन्ना

देश बोले अन्ना, अन्ना
देश की तमन्ना अन्ना
गाल बजाएं, चीखे चिल्लाएं
कैसे सत्ताधारी मुन्ना
अन्ना
देश बोले अन्ना, अन्ना

ऐसी अलख जगाए
देश भर को मिलाए
सबको आस बंधाय
दूर होगा अन्याय
ऐसे समझाए
जैसे देश की हो अम्मा
अन्ना
देश बोले अन्ना, अन्ना

कैसी भ्रष्ट व्यवस्था
यहां सूझे नहीं रस्ता
हालत खस्ता और खस्ता
मद में झूमे है सत्ता
एक बूढ़ा कर गया
सरकार को घुटन्ना
अन्ना
देश बोले अन्ना, अन्ना

भ्रष्टाचारी घबराये
मंत्री अफसर बुलाये
कौन अन्ना से बचाये
ये तो लोकपाल लाये
थप्पड़ तो मारा नहीं
गाल गए झन्ना
अन्ना
देश बोले अन्ना, अन्ना
2
बोल बोल बोल...
जनता बोल बोल.....
हम करेंगे विरोध.....
धरना...अनशन....रैली......नारे
सत्ता डावांडोल .........
बोल बोल बोल...
जनता बोल बोल

चुनी हुई सरकार ही रौंदे
तेरे मेरे हक को भाई
वे समझें जनता को बकरा
और बन जाए खुद ही कसाई
हम करेंगे विरोध.....
धरना...अनशन....रैली......नारे
सत्ता डावांडोल .........
बोल बोल बोल...
जनता बोल बोल

कानून है तेरी व्यवस्था
और विरोध हमरा अधिकार
तू कानून की धौंस दिखाए
एका है हमरा हथियार
हम करेंगे विरोध.....
धरना...अनशन....रैली......नारे
सत्ता डावांडोल .........
बोल बोल बोल...
जनता बोल बोल

पहले घोटाले करवाये
फिर जांच की नौटंकी
संसद में ऐसे चीखे हैं
जैसे जंगल में मंकी
हम करेंगे विरोध.....
धरना...अनशन....रैली......नारे
सत्ता डावांडोल .........
बोल बोल बोल...
जनता बोल बोल

3
सरकार लपूझन्ना
तेरी खबर लैहे अन्ना

रिश्वत ने खाई
सारे देश की कमाई
नेता मुटाए और
बढ़ गई महंगाई
आंख वाले मंत्रियों को
पड़े न दिखाई
कांपी सरकार जब...
हुंकार भरे अन्ना
सरकार लपूझन्ना

ए राजा, सी राजा
खूब बजा गए बाजा
संसद में क्या पहंुचे
कर गए वे घोटाला
इसमें लगा दो जन
लोकपाल का ताला
घूसखोर कांपे.......
सरकार गई भन्ना
सरकार लपूझन्ना

संसद में चीखे
चिल्लाए खूब सिब्बल
जनता है पीछे और
संसद है अव्वल
हम बनाएं कानून
हम बांटें कम्बल
चीखा विपक्ष फिर.....
और चूसो गन्ना तुम
और चूसो गन्ना
सरकार लपूझन्ना
तेरी खबर लैहे अन्ना

4
अरा रा रा...

जनलोकपाल बिल ये हमारा
अरा रा रा.... पेश कर दइयो
जन का समझ ले इशारा
अरा रा रा... पेश कर दइयो

चुल्लू भर पानी में डुबकी लगाये
भ्रष्टाचार के कीचड़ में नहाये
कैसी सरकार है जरा न शरमाये
जा कैसी सरकार है जरा न शरमाये
पहचान जनता का नारा
अरा रा रा....पेश कर दइयो
जनलोकपाल बिल ये हमारा
अरा रा रा.... पेश कर दइयो

टोपी पहन देखो फिर आया गांधी
टूटे दिलों को जिसने आस बांधी
गंावों तक जा पहंुची अन्ना की आंधी
क्यों संसद में बैठा नाकारा
अरा रा रा....पेश कर दइयो
जनलोकपाल बिल ये हमारा
अरा रा रा.... पेश कर दइयो

जनता ने तुझको चुना है तू सुन ले
वक्त है जनता की उम्मीद गुन ले
वर्ना समझ तेरी बत्ती ही गुल है
मिलेगा जवाब करारा
अरा रा रा....पेश कर दइयो
जनलोकपाल बिल ये हमारा
अरा रा रा.... पेश कर दइयो




Sunday, March 13, 2011

सुमरना ऐसे दोस्त को जो बिना मिले ही चला गया, बहुत दूर.....


कृष्णमूर्ति
कैसे सुमरें यार अब फटो कलेजा जाय
तूही अब जो ने रहो, आल्हा कौन सुनाय
तेरे संगे बीत गए कितने ही दिन-रात
टेम भी पूरो ने पड़ो, रही अधूरी बात
मिलके खूब उड़ाई है गांव-गैल की धूल
दिन समता - संघर्ष के कैसे जाएं भूल


दोस्तों को ऐसे भी सुमरना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था। कृष्णूमूर्ति अब नहीं है, विश्वास नहीं होता। उम्र में हमसे छोटा, सेहत में बेहतर और जवानी के दिनों की ऊर्जा से लबरेज वह दोस्त अब कभी नहीं मिलेगा, यह कलेजा चीरने वाली बात है। बीच में कई बरस हम नहीं मिले। पिपरिया छूटा तो बहुत से दोस्तों का साथ भी छूट गया। कृष्णमूर्ति भी उनमें से एक था। करीब पांच साल पहले जब मैं सहारा समय साप्ताहिक में बच्चों का पेज देखता था तब एक दिन आफिस में उसका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था, जब मैं बच्चों से कहता हूं कि सहारा समय के बचपन वाले नरेंद्र मौर्य पिपरिया के हैं तो उन्हें आश्चर्य होता है। फिर पिपरिया में गुूलेल कला कांरवा कार्यक्रम में वह पत्नी-बच्चों समेत मौजूद था। उसके बाद एक बार नोएडा भी आया, एक रात रुका। तब ढेरों बातें हुई थीं। बरसों से जो कड़ी टूट गई थी वह फिर जुड़ने लगी। इसमें नया पन्ना जोड़ा सुरजीत ने। उसे इंडिया फाइन आर्ट आॅॅफ बेंगलुरू की फेलोशिप मिली थी। फेलोशिप हमारे 22 साल पुराने एक अनुभव से जुड़ी थी, ‘आल्हा से न्यू मीडिया तक’। कृष्णमूर्ति, वीरेंद्र और मैंने 1988 में एक गांव पर पुलिस अत्याचार की कहानी आल्हा के शिल्प में कही थी। सुरजीत हम तीनों रचनाकारों से इकट्ठे बात करना चाहता था। 29-30 जून 2010 के दो दिन हम चार लोगों ने एक साथ गुजारे। ढेरों बातें की। आगे की योजनाएं भी बनीं।

एक पूरी दोपहर हमने मशहूर चित्रकार और नर्मदा परकम्मावासी अमृतलाल वेगड़ के घर गुजारी। वेगड़जी से बात हुई तो उन्होंने पूछा लोकल का कौन है आपके साथ जिसे वे बताएं कि उनके घर कैसे पहुंचना है। तब कृष्णमूर्ति ने ही वेगड़जी से बात की थी और हमें उनके घर ले गया था। वेगड़जी से ढेरों बातें कीं। उनके काम और परकम्मा के अनुभव सुने। मूर्ति ने हमारे ठहरने का इंतजाम कृषि विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में किया था। वहां हमने बुदनी कांड की आल्हा को लेकर लंबी बातचीत की। हम सभी रोमांचित थे। 22 साल पुराने रचनात्मक अनुभव को मिलकर याद करना बहुत सुखद था। बातचीत चल ही रही थी कि अचानक बाहर तेज बारिश शुरू हो गई। मूर्ति ने कहा, लो हम आल्हा की बात कर रहे हैं और बाहर पानी बरसने लगा। बुंदेलखंड में आल्हा बरसात के दिनों में ही गाई जाती है।

यह भी संयोग हैं कि सबसे पहले हमारा रिश्ता मूर्ति के पिताजी के साथ बना। हम उन्हें जमना काका कहते थे। असल में जमना काका की दुकान पर ललित अग्रवाल बैठते थे। खासकर शाम को वहां बैठक जमती थी। उन दिनों वीरेंद्र, बालेंद्र और हम ललित भाई के साथ साहित्य चर्चा के लिए वहां पहुंच जाते थे। जमना काका का हम तीनों पर ही बहुत स्नेह था। 1980 के बाद जब समता युवजन सभा में हम लोग सक्रिय हुए तो मूर्ति का साथ मिला। उसके बाद दस साल हम लोग लगातार साथ रहे। भगतसिंह पुस्तकालय हम लोगों के मिलने और काम करने का अड्डा बना। जब मूर्ति होशंगाबाद के पास पंवारखेड़ा कृषि फार्म में लेब असिस्टेंट बन गया, तब भी उसका अड्डा भगतसिंह पुस्तकालय ही बना रहा। कितनी ही बार वह पंवारखेड़ा में हाजिरी लगाकर अगली गाड़ी से लौट आता था। फिर देर रात राजनीतिक - सांस्कृतिक गतिविधियों में जुटा रहता।

उस समय हम लोग लोक गीत-संगीत का उपयोग जनसंघर्षों में करने की सोच रहे थे। 25 दिसम्बर, 1985 को केसला में आदिवासी मजदूर संगठन का पहला सम्मेलन हुआ। उसके लिए हमने ‘एका ऐसो बनाएं’ नाम से जन गीतों का प्रकाशन किया था। इसके बाद जब बुदनी कांड हुआ तो आल्हा लिखने का तय हुआ। इसमें कृष्णमूर्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। असल में उस पूरे आंदोलन में मूर्ति की खास भूमिका थी। वह कितनी ही बार वीरेंद्र के साथ बुदनी गया। फ्रंट लाइन की विशेष संवाददाता वसंता सूर्या तीन-चार दिन के लिए पिपरिया आईं। मूर्ति ही उन्हें बुदनी ले गया था। वे मूर्ति से बहुत प्रभावित थीं। वे 50-55 के आसपास की थीं और उन्हें मूर्ति अपने बेटे जैसा लगता था। उन्होंने 1988 के एक अंक में बुदनी आंदोलन को लेकर पांच पेज की कवर स्टोरी लिखी थी। उन्होंने बुदनी की आल्हा का अंग्रेजी अनुवाद भी किया जो बाद में प्रकाशित भी हुआ। आल्हा को आंदोलन के दिनों में ही पूरा करवाकर छपवाना और फिर रिकार्ड कर गली.मोहल्लों में कैसेट बजवाने तक मूर्ति ने जिस तेजी के साथ काम किया था वह अद्भुत था।

बुदनी की आल्हा के बाद हमने जंगल रामायण लिखने की योजना बनाई। समता का काम जंगल पट्टी में बढ़ रहा था। गोंड-कोरकू आदिवासी लगातार उत्पीड़ित किए जा रहे थे। गांवों में हमारे दौरे बढ़ गए थे। हमने रामचरित मानस की तर्ज पर अलग-अलग कांडों में जंगल की कहानी कहना तय किया। तीनों के बीच विषय बंट गए, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। हम तीनों ने ही जंगल कांड को अलग-अलग हिस्सों में लिखा लेकिन एक-दूसरे को सुनाने का मौका नहीं मिला। हम सब लोगों का पिपरिया से ठियां उजड़ गया। बरसों बाद मेरे हिस्से के जंगल कांड का पाठ 2005 के गुलेल कला कारवां में किया गया। कृष्णमूर्ति ने ठीक ही कहा था, बुदनी की आल्हा इसलिए पूरी होकर अपनी भूमिका निभा पाई क्योंकि उसके साथ आंदोलन चल रहा था। जंगल रामायण के साथ कोई आंदोलन नहीं था इसलिए वह पूरी नहीं हो पाई।

30 जून 2010 को लंबी बातचीत के हमने आल्हा गाई। हमेशा की तरह कृष्णमूर्ति आगे रहा। उसने पूरी आल्हा बहुत मजे के साथ गाई। हम और वीरेंद्र ने तो बीच-बीच में मूर्ति का साथ दिया। मूर्ति फिर पुराने रंग में दिखा। सुरजीत ने पूरे गायन को रिकार्ड कर लिया। यह अनुभव अहसास करवाते रहता है कि मूर्ति यही आसपास है। आप भी सुनिये।


आल्हा

आल्हा: अपनी-तुपनी


आल्हा कि सुमरनी


बुदनी कि कहानी #1


बुदनी कि कहानी #2


बुदनी कि कहानी #3


ना डारे कोई डाका रे



आल्हा (1) 
आल्हा (2)
आल्हा (3)
आल्हा (4)
आल्हा (5)
आल्हा (6)

आल्हा (7)

आल्हा (8)
आल्हा (9)
आल्हा (10)
आल्हा (11)
आल्हा (12)
आल्हा (13)
आल्हा (14)
आल्हा (15)
आल्हा (16)
आल्हा (17)
आल्हा (18)
आल्हा (19)

Wednesday, January 26, 2011

एक पाक साफ इंसान को नहीं मिला इंसाफ

‘जग में बहुत लुटेरा ऊ, केकरा केकरा नाम बतावा? हे जमींदार लूटे.... हे साहूकार लूटे... और लूटे घुसखोरवा हो, केकरा केकरा नाम बतावा’ यह गीत विनायक सेन ने सुनाया था, करीब 30 साल पहले। वह एक हौसलों से भरी हुई शाम थी। हम सब मित्रों ने लगभग विनायक को घेर लिया था कि हमने इतने गीत सुनाए हैं अब उसकी बारी है। तब विनायक ने पूरी लय और ताल में यह गीत सुनाया था। वह हम सबके कुछ कर गुजरने के दिन थे और हम कर भी रहे थे। विनायक डाॅक्टरी की पढ़ाई करके पैसा कमाने की बजाय कुछ अलग करने की धुन में रसूलिया होशंगाबाद पहुंचे और फिर उसी जिले में स्थित किशोर भारती पहुंच गए। लेकिन वे यहां काम नहीं करते थे बल्कि किशोर भारती के कार्यकर्ता की हैसियत से दल्ली राजहरा में नियोगी के साथ काम करने गए थे। इलीना यहां ग्रामीण अध्ययन के बड़े प्रोजेक्ट को लीड कर रही थीं और मैंने भी कालेज की पढ़ाई पूरी करके इलीना के प्रोजेक्ट को ज्वाइन कर लिया था। उसके बाद विनायक से मुलाकात हुई। यह मई 1981 की बात है।

उन दिनों पिपरिया में हम कई मित्र समता युवजन सभा में काम करते थे। पिपरिया के निकट पलिया पिपरिया गांव में किशोर भारती नाम की स्वयंसेवी संस्था थी। इस दौरान कई बार विनायक से बातचीत हुई। विनायक और इलीना विचारों से माक्र्सवादी हैं और हमारा समूह समाजवादियों का था। किशन पटनायक हमारे नेता थे। इसके बावजूद हमें साथ काम करने या बात करने में कभी दिक्कत नहीं हुई। यही विनायक की विशेषता है वह अपने विचार किसी पर थोपते नहीं हैं और बड़े ध्यान से सबकी बात सुनते हैं। विनायक हमसे सीनियर थे और हम लोग बिलकुल नए थे। उनसे बहुत सी बातें जानने-सीखने को मिलीं। नियोगी के काम के बारे में सबसे पहले और सबसे ज्यादा जानकारी विनायक से ही मिली।

देश जानता है कि शंकरगुहा नियोगी पिछली सदी के सबसे कामयाब और वजनदार जननेता थे। वे भी विचारों से माक्र्सवादी थे लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीता भी है। नियोगी ने जनसंघर्ष के लिए उन्हीं औजारों का इस्तेमाल किया जिन्हें गांधी ने स्वाधीनता संघर्ष के दौरान इस्तेमाल किया था। नियोगी के अभियान ने मजदूरों की शराब छुड़वा दी थी। 30 से 50 हजार लोगों ने शराब छोड़ दी थी। नियोगी मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए बुनियादी काम करना चाहते थे इसलिए किशोर भारती के माध्यम से विनायक वहां पहुंचे। शहीद अस्पताल की नींव डालने वालों में से एक विनायक सेन भी हैं। पीयूसीएल से भी हम इसके बाद ही जुड़े। 1982 में दल्ली राजहरा में शराब माफिया ने शराबबंदी मोर्च के बाबूलाल को जान से मारने की कोशिश की थी। इसकी जांच करने पीयूसीएल की टीम गई थी। उसमें मैं भी शामिल था। 1981 और 1982 में किशोर भारती ने मध्यप्रदेश के सक्रिय जन संगठनों और संस्थाओं के साथ तीन बड़ी बैठकें की थीं। इन बैठकों में मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान भी शामिल हुए थे। इसमें विनायक सेन और शंकरगुहा नियोगी भी आए थे। इन सभी लोगों ने गैरबराबरी और नाइंसाफी के खिलाफ अपने रचनात्मक योगदान को लेकर बहस बातचीत की थी।

इसके बाद इलीना और विनायक रायपुर पहुंच गए। इलीना वहां रूपांतर संस्था के तहत काम करने लगीं और विनायक स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में अपना योगदान देने लगे। मैं 1990 तक किशोर भारती से जुड़ा रहा। संस्था के आकस्मिक निधन के बाद मैं दिल्ली आ गया। इस बीच इलीना के साथ कुछ मुलाकातें हुईं, लेकिन विनायक के साथ मिलने का मौका नहीं मिला। 1997 में एक शोध अध्ययन के सिलसिले में रायपुर जाना हुआ। तब विनायक-इलीना से मिलने का मौका मिला। उस समय उनके परिवार में दो बेटियों का आगमन हो चुका था। छोटी शायद पांचवीं और बड़ी आठवीं में थी। पूरे परिवार के साथ मैंने अच्छा खासा समय बिताया था। विनायक में कोई परिवर्तन नहीं आया था। वह वैसे ही कुछ ऊंचा पजामा और साधारण कुर्ता पहने हुए थे। अंदाज वहीं पुराना था। लगा जैसे इतने बरसों न मिलने का कुछ असर ही न पड़ा हो। उन्होंने वहां कुछ जमीन खरीद ली थी और वे खेती में भी समय देने लगे थे। मैं वहां लगभग दो हफ्ते रहा। उनकी दोनों बेटियों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। मैंने उन्हें गुजरे जमाने के कुछ रोचक किस्से भी सुनाए थे।

इसके बाद लंबा समय बीत गया। विनायक से मुलाकात का मौका नहीं मिला। इस बीच इलीना से जरूर मुलाकात हुई। इलीना महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के साथ जुड़ गई थी और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रही थीं। लेख के सिलसिले में कई बार इलीना से फोन पर भी बात हुई है। फिर हम मिले विनायक की गिरफ्तारी के विरोध में 2009 में नई दिल्ली के रवींद्र भवन में आयोजित कार्यक्रम में। इसे लेकर मैंने कुछ लिखा भी था। इसके कुछ समय बाद पता चला कि इलीना को स्तन कैंसर ने घेर लिया है। तब एकाध बार इलीना से बात हुई। समाचार मिलते रहते थे और कहीं से भी ऐसा कुछ सुनने को नहीं मिला कि विनायक या इलीना का माओवादियों से किसी तरह का कोई संपर्क है या उन्होंने माओवादियों की राजनीतिक लाइन को स्वीकार कर लिया है। यह जरूर है कि देश के कुछ लोग मानवाधिकार के मामलों को लेकर ज्यादा संवेदनशील रहते हैं। विनायक ऐसे ही लोगों में शुमार हैं। यह सच भी समझदार लोगों से छिपा नहीं है कि देश में मानवाधिकार हनन के मामले बढ़ते जा रहे हैं। खासकर संवेदनशील क्षेत्रों के मासूम लोगों को बड़ी कुर्बानी देनी पड़ रही है। विनायक ऐसे मामलों को उठाने में सबसे आगे रहते हैें। उन्हें इसी पक्षधरता की कीमत चुकानी पड़ रही है। वर्ना विनायक चाहते तो दूसरे सफल डाॅक्टरों की तरह दौलत और नाम कमा सकते थे लेकिन उन्होंने दूसरी राह पकड़ी। वे सिर्फ नाड़ी देखकर दवा की पर्ची लिखने तक ही अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते थे। वे स्वास्थ्य को लेकर आमजन को जागरूक करना चाहते थे और स्वास्थ्य राजनीति की बखिया उधेड़ने से भी नहीं चूकते थे। दूसरी तरफ वे मानवाधिकार के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी उभर रहे थे। यही बात छत्तीसगढ़ की सरकार को नागवार गुजर रही थी।

विनायक सेन को देशद्रोह में उम्रकैद की सजा की खबर इतने दिन बाद भी एक मजाक लगती है। आखिर कैसे कोई अदालत यह निर्णय दे सकती है? यह सोचना सचमुच मजाक लगता है कि स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए चुपचाप अपना काम करने वाला यह शख्स देहद्रोही हो सकता है। जो लोग विनायक सेन को जानते हैं, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि यह एक राजनीतिक फैसला है जो सरकार के इशारे पर लिया गया है। 2010 ऐसे दो फैसलों की वजह से भी याद किया जाएगा। पहला फैसला रामजन्म भूमि विवाद को लेकर सामने आया था और दूसरा फैसला विनायक को देशद्रोही ठहराने का है। इन दोनों ही फैसलों का असर दूर तक जाएगा। विनायक का फैसला न्याय, बराबरी और मानवाधिकार के लिए काम करने वाले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक चेतावनी है। छत्तीसगढ़ के विशेष कानून से माओवादियों पर अंकुश भले न लगा हो लेकिन वंचित तबकों के साथ काम करने वाले जन संगठन और संस्थाएं जरूर दहशत में आ गई हैं। इसी विशेष कानून के तहत विनायक सेन को लंबे समय तक जेल में रखा गया, फिर सुनवाई शुरू हुई और सुनवाई में क्या हुआ होगा यह फैसला सुनकर ही समझ आ जाता है।

इस फैसले से कई लोग हैरत में हैं। विनायक कभी देश और समाज के लिए खतरनाक नहीं रहे। उन्होंने कभी माओवादियों के हिंसक संघर्ष का समर्थन नहीं किया। वे नागरिक अधिकारों के हिमायती हैं इसलिए हमेशा सजग रहते हैं कि कहीं आम आदमी के इन अधिकारों का हनन तो नहीं किया जा रहा। डाॅक्टर होने के नाते वे जानते हैं कि इलाज कहां से शुरू किया जाना चाहिए। पिछले कई दिनों से मैं यही सोच रहा हूं कि विशाल लोकतंत्र में क्या विनायक सेन जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के काम करने की जगह रहेगी या नहीं। सलवा जुडुम का विरोध और मानवाधिकारो की पैरवी करने से ही विनायक रमन सरकार की आंख की किरकिरी बने हुए थे। छत्तीसगढ़ में माओवादियों पर अंकुश लगाने के नाम पर बनाया गना छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम दरअसल विरोधियों को ठिकाने लगाने का जरिया बन गया है। आज हालत यह है छत्तीसगढ़ में स्वयंसेवी संस्थाओं और जन संगठनों को काम करने में बहुत दिक्कत आ रही है। वे सब लोग जो अपने काम के चलते गरीब आदिवासियों के नजदीक हैं, सरकार की मंशाओं को लेकर बहुत डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने सरकार के काम पर सवाल उठाये तो उन्हें झूठे मामलों मेें फंसाकर विनायक की तरह जेल में ठंूस दिया जाएगा।

विनायक सेन के संघर्ष को सलाम करते दो गीत

1
बोल विनायक बोल
बोल विनायक बोल
  क्यों गरीब का लोकतंत्र में अब तक पत्ता गोल
  बोल विनायक बोल
  बोल कि क्या है सलवा जुडुम, कैसी उसकी मार
  बोल कि कैसे कुचल रहे हैं, लोगों के अधिकार
  बोल कि अंधा शासन क्यों है इतना डावांडोल
  बोल विनायक बोल
  अरे डाॅक्टर बाबू बोलो, क्यों गरीब बीमार
  कहीं रोग है और कहीं का, करे इलाज सरकार
  क्यों गरीब की सुनवाई में होती टालमटोल
  बोल विनायक बोल
  क्या गरीब माओ को समझे, क्या गांधी को भाई
  भूखे पेट ही सोना होगा हुई न अगर कमाई
  वो बैरी सत्ता के मद में आंक न पाए मोल
  बोल विनायक बोल
  जन विशेष कानून बनाए जिसमें न सुनवाई
  राजनीति के पंडित कैसे बन जाते हैं कसाई
  सीधी साधी जनता पिसती, सत्ता पीटे ढोल
  बोल विनायक बोल
  करे कोई और भरे कोई है, ये कैसा दस्तूर
  बेकसूर को सजा मिली और न्याय खड़ा मजबूर
  इक दिन तो इंसाफ मिलेगा, यही सोच अनमोल
  बोल विनायक बोल
बोल विनायक बोल

2
ओ कानून कसाई।
तूने कैसी की सुनवाई।।
बिन सबूत ही संत ने जैसे उमर कैद है पाई।।
अंगरेजों ने जैसे तिलक को सजा सुनाई।
देशद्रोह में गांधी को जेल की हवा खिलाई।
और आज इस लोकतंत्र में फंसे विनायक भाई।।
ओ कानून कसाई......
कैदी से कानूनन मिलने में नहीं बुराई
जेलर ने पहरे में मुलाकात करवाई
अब वे कहते हैं कि तुमने खबर उधर पहुंचाई
ओ कानून कसाई....
रोग को पहचाना और रोगी की करी भलाई
रोग तो सरकारी था, फंसा डाॅक्टर भाई
यह सरकार भी रोगी भैया, इसको भी दो दवाई
ओ कानून कसाई.....

Saturday, January 1, 2011

नए साल की धूप

1
पत्ता पत्ता देखती चिड़िया अपना रूप
आंगन में नाचत फिरी नए साल की धूप

ऊंचे पर्वत पेड़ से, नीचे धरती दूब
सबको दुलराती चली, नए साल की धूप

गली मुहल्ले के सभी, बच्चे खेलें खूब
टप्पा खाए गेंद बन, नए साल की धूप

बीते दिन पत्थर भये, गए नदी में डूब
मछली बन तैरी मगर, नए साल की धूप

बांध के पानी खींचती, रस्सी गहरे कूप
ऐसे मन को बांध ले, नए साल की धूप

हवा चली और उड़ गई, बीते दिन की ऊब
ऐसे कुछ गरमा रही, नए साल की धूप

2
दिल में उतर के प्यार जगाए नया बरस
पिछले बरस के दाग मिटाए नया बरस

आखिर वो उनके चेहरे की मुसकान बन सके
अब मुफलिसों पे जुल्म न ढाए नया बरस

लाशों में ढंढ़ते हैं जो हर मसअलों का हल
उन सिरफिरों को राह बताए नया बरस

मंदिर और मस्जिदें तो यहां बहुत बन चुकीं
गुरदी की झोपड़ी भी बनाए नया बरस

मेरठ न बनारस में फिर इंसानियत जले
दंगाइयों के काम न आए नया बरस

फिर बढ़के अपने हक को ये मजलूम छीन लें
इक इंकलाब मुल्क में लाए नया बरस

नया साल मुबारक

Sunday, December 5, 2010

इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं |

वह एक उजली सुबह थी, जैसे नहा धोकर शहर तैयार हो। गली मोहल्लों से लेकर छोटे-बड़े घर साफ सुथरे और ताजा नजर आ रहे थे। सड़कों पर चहल पहल ज्यादा थी। जिस घर के सामने से गुजरे वहां चमकते हुए आंगन रंगोली के इंतजार में नजर आए। वह दिवाली की सुबह थी, बाकी दिनों से अलग। जैसे त्योहार के लिए उसने भी सफेद झक पोशाक पहन ली हो। मैं अपने छोटे बेटे अमल के साथ समय पर ही जबलपुर पहुंच गया था। यह पहला मौका था जब दिवाली के दिन मैं इस शहर में मौजूद था। बचपन से इस शहर से नाता है। यहां मेरा ननिहाल है और बाद यह मेरी ससुराल भी बना। यहां आने का कारण मेरी पत्नी आरती की छोटी बहन ज्योति है। उसका फोन आते ही आरती और हमारा बड़ा बेटा अबीर फौरन जबलपुर रवाना हो गए। हम आज पहंुचे।

ज्योति का घर दूर से आम घरों की तरह ही नजर आया। हालांकि उसमें वह चमक नहीं थी जो अन्य घरों में नजर आ रही थी, लेकिन बिना लिपा पुता घर भी जिंदा इंसानों की धमक से महक रहा था। मेरे सामने ही ज्योति के छोटे बेटे सोभित ने सामने वाली दीवार की पुताई की थी। ज्योति की शादी के बाद पिछले बीस बरस में मैें यहां कई बार आ चुका हूं। सिविल लाइंस के पास बसे इस कोने को गोविंद भवन कहा जाता है। यह ज्योति और राजकुमार का घर है। राजकुमार घासीराम विश्वविद्यालय बिलासपुर में नौकरी करता है। घर के बगल में ही एक पुरानी बावड़ी के खंडहर हैं। वह सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी तो होगी ही। घर में दाखिल होते ही एक बड़ा हाॅल है। उसके एक कोने मे ज्योति का बिस्तर है। वह बात करने की हालत में नहीं है। लगातार कराह रही है। दर्द उसे एक पल चैन नहीं लेने दे रहा है। उसने एक बार नजर उठाकर देखा जरूर, कुछ कहना चाहती थी लेकिन जुबान से शब्दों की जगह बस कराह ही निकली। बेबसी में उसने आंखें भींच लीं।

ज्योति स्तन कैंसर से जूझ रही है। पांच साल से भी ज्यादा समय हो गया, वह कैंसर से हार मानने को तैयार नहीं है। इतने बरस टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई में उसका इलाज चला। पांच साल पहले की बात है। आरती जबलपुर में थी। उसका फोन आया कि ज्योति के सीने में गांठ है। मैंने फौरन जांच की सलाह दी। जांच में कैंसर की पुष्टि हो जाने के बाद आरती उसे मुंबई ले गई। बरसों पहले उनके पिता उन्हें मुंबई घुमाने ले गए थे और इतने बरस बाद वह अपनी बहन का इलाज करवाने उसे मुंबई लाई थी। उसके बाद इलाज का लंबा दौर और कभी न खत्म होने वाले संघर्ष की शुरुआत। ज्योति ने हर कदम पर अदभुत साहस का परिचय दिया। उसके सीने में एक नली डालकर कमर के पास एक बोतल लटका दी गई थी। उसमें से बंूद बूंद काला रक्त टपकता था। ज्योति मुंबई की लोकल ट्रेन में भी वह बोतल संभाले सफर कर लेती थी। जब जरूरत बड़ी हो तो हर कदम पर संभल कर चलना पड़ता है। ज्योति ने कभी शिकायत नहीं की। उसने टाटा मेमोरियल में इलाज करवाने के दौरान एक एनजीओ के लिए सिलाई का काम भी किया है। वह जूझने को तैयार थी। बस उसे यह बात समझ में नहीं आती थी कि उसे स्तन कैंसर क्यों हो गया। आखिर वह ही क्यों?

कीमोथेरेपी का एक दौर खत्म हो चुका था। ज्योति को ठीक होने का भरोसा होने लगा। तभी कैंसर ने फिर करवट ली। कुछ गांठे निकल आईं। वह फिर मुंबई पहुंची। डाॅक्टर आपरेशन की तैयारी करने लगे, लेकिन तब तक गांठे दो से शायद चार-पांच हो गईं। डाॅक्टरों ने आपरेशन नहीं किया। कहा, अब हाईपावर कीमोथेरेपी करना पड़ेगा। उसका खर्च बहुत अधिक था। एक बार में 35 हजार रुपए। तभी दवा बनाने वाली एक अमेरिकन कंपनी आगे आई। उसने खर्च उठाने का जिम्मा लिया। फिर एक साल तक हाईपावर कीमोथेरेपी का दौर चला। कहते हैं हर शरीर हाईपावर कीमोथेरेपी बर्दाश्त नहीं सकता। उसके साइड इफेक्ट बहुत खतरनाक होते हैं। ज्योति का जिस्म भीतर और बाहर छालों से भर गया। नाखून गलकर उतरने लगे। एक दर्द से बचने के लिए दूसरे दर्द को अपनाने के सिवा कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था। ज्योति ने फिर भी हार नहीं मानी। वह उस अवस्था में भी घर के काम करती और अपनी देखभाल भी खुद कर लेती। कई बार सुनकर हमें आश्चर्य होता, लेकिन कैंसर धीरे-धीरे उसे भीतर से तोड रहा था। वह लगातार कमजोर होती जा रही थी। उसने मुंबई जाना बंद कर दिया। एक बार दिल्ली आई। हमने हौजखास में एक होम्योपैथिक महिला डाॅक्टर को दिखाया। वह दवा लेकर लौट गई, लेकिन उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ।

इस बीच उसके बड़े बेटे मोहित ने टीवी पर कृष्णा कैंसर हास्पिटल दिल्ली का एक विज्ञापन देखा। वह अस्पताल कैंसर की अंतिम स्टेज पर दवा देकर ठीक करने का दावा करता है। राजकुमार दिल्ली आया। हम फ्रैंड्स कालोनी स्थित कृष्णा कैंसर हास्पिटल पहुंचे। मुझे ऐसे अस्पतालों पर कतई भरोसा नहीं था, लेकिन राजकुमार को हम निराश नहीं करना चाहते थे इसलिए उनसे दवा ली। एक दिन की दवा हजार रुपए की और न उसकी रसीद मिली और न ही दवा का नाम बताया गया। दो माह दवा खाना जरूरी है यानी 60 हजार रुपए खर्च करने की हिम्मत हो तो इलाज करवाओ अन्यथा रहने दो। यह बात अस्पताल के एक अफसर ने कही। अस्पताल के इस चेहरे ने मुझे अविश्वास से भर दिया, फिर भी हमने दस दिन की दवा ले ली। तीन-चार बार राजकुमार ने जबलपुर से रकम भेजकर कोरियर से भी दवा मंगवाई। शुरू में लगा जैसे दवा से आराम लग रहा है, लेकिन बाद में उसका असर कुछ समझ में ही नहीं आया। जिनके अपने कैंसर से पीड़ित हैं वे अंतिम समय में भी चमत्कार होने की उम्मीद पाले रहते हैं। कुछ लोग हैं जो उम्मीद की इस भावना को भी भुनाने से बाज नहीं आते। 

अब ज्योति पूरी तरह बिस्तर पर है। उसके हाथ-पांवों में जबर्दस्त सूजन है। वह अपना शरीर नहीं संभाल पाती। ज्यादातर समय दर्द से कराहती रहती है। दिवाली की शाम उसने पेनकिलर ली। थोड़ी देर बात भी की। फिर उठी और घर के मंदिर के सामने बैठकर पूजा की तैयारी में कुछ हाथ बंटाया। रंगोली की कुछ लकीरें खींचीं। चंद मिनट में ही वह थक गई। फिर बिस्तर पर बैठकर बच्चों को समझाती रही कि पूजा में क्या और कैसे करना है। पूजा हुई, पल भर के लिए उसके चेहरे पर मुसकान आई, फिर उस पर थकान हावी हो गई। ज्योति का बड़ा बेटा मोहित 11वीं में है। वह जरूरत से ज्यादा सीधा है। हमेशा पढ़ता ही रहता है। छोटा बेटा सोभित छठवीं में है। वह पढ़ने में कमजोर है, लेकिन कबाड़ से जुगाड़ करने का उसमें अदभुत गुण है। वह कुछ न कुछ बनाते रहता है। उसने स्पीकर बनाया है और भी कई चीजें बनाई हैं। दिवाली में उसने थोड़े से पेड़े बनाए थे। वह बताने लगा, मुझे चाकलेट पावडर की जरूरत थी पर वह महंगा था, इसलिए दो डेयरी मिल्क का उपयोग किया। उसने बहुत स्वादिष्ट पेड़े बनाए थे और सुंदर ढंग से डिब्बे में सजाया था। उसने सबको खिलाया और यह बताना भी नहीं भूला कि यह किसने बनाए हैं। पूजा के बाद दीये जलाए गए। हमने भी एक उम्मीद का दीया जलाया।
मेरी पत्नी पांच बहनें और दो भाई हैं। भाई के बेटे की पहली सालगिरह पर 2004 में ज्योति ने खूब डांस किया था। उसकी सीडी है। ज्योति के बच्चे बार-बार वह सीडी देखते हैं, मैंने भी देखी। ज्योति पूरे मूड में नाच रही है। उसका वह अंदाज देखते ही बनता है। बच्चों ने उसके बाद अपनी मां को कभी इतना स्वस्थ नहीं देखा। वे बार-बार सीडी देखकर जैसे पुराने दिनों को फिर ताजा करना चाहते हैं।

ज्यादा देर नहीं लगी, अपने-अपने घर की पूजा करने के बाद ज्योति की बहनों और भाई के बच्चे आ गए। बच्चों के आने से जैसे त्योहार की कोई बड़ी कमी पूरी हो गई हो। सब पहले ज्योति मौसी और ज्योति बुआ से मिले। कुछ फोटो खिचीं, कुछ धमाचैकड़ी हुई। फिर आंगन और बगीचे में बच्चों ने देर तक पटाखे चलाए। इस बीच ज्योति बहुत थक गई थी। वह लेट गई। रात को बाकी बच्चे अपने घर लौट गए। मैं अपने परिवार समेत वहीं रहा। दूसरे दिन अमल और हमें लौटना था। ज्योति बहुत थक गई थी। आज वह देर तक बैठी और बात भी की। देर रात अंधेरे में उसकी कराहटें गूंजती रहीं।

सुबह हुई। फिर सूरज निकला और उजाला फैल गया। रात के शोर शराबे के बाद सुबह बहुत शांत और चुप सी लगी। एक बीमार के लिए तो यह एक और दर्द भरी सुबह थी। कितना अजीब लगता है जब आप किसी का दर्द नहीं बांट पाते। उसे कराहते देखकर भी कुछ न कर पाने की टीस हमेशा सालती रहेगी। जब हम वहां से चले तो वह विदा करने की स्थिति में भी नहीं थी। उसके हाथों को अपने हाथ में लिया तो दर्द से बोझल पलकें उठीं। मुसकुराहट होठों तक आते आते रह गई। और फिर दर्द की तीखी लहर। ट्रेन में भी जैसे वह दर्द हमारे साथ यात्रा कर रहा था। वही बेबसी, वही कराहटें, एक रात - एक सुबह के सफर में बहुत कुछ ऐसा है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।

इस दौरान मुझे अपनी अम्मा की बहुत याद आई। 1993 में स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी। उसी साल नवम्बर में आरती के पिता की मौत भी कैंसर से हुई थी। अगले बरस दोनों को गए 18 साल हो जाएंगे। इस बीच कितने दोस्त, कितने साथी और कितने परिचित कैंसर ने छीन लिए हैं, सोचने लगो तो बेचैनी बढ़ जाती है। कुछ दर्द कितने स्थायी होते हैं।
परिवार के साथ  ज्योति |
1
लड़ियां बांधी हैं न पटाखे चलाएं हैं
इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं
सहम न जाएं कहीं आज उजाले डरकर
घर के कोनों में धुप्प अंधेरे छिपाए हैं
बार-बार चला कर पटाखे भी बच्चे
गहरी खामोशी को कहां तोड़ पाए हैं
न जाने देवता क्यों उससे खार खाए हैं
उसने बस जिंदगी के चार पल चुराए हैं
2
देखने भर को है जैसे नाम जिस्म
बन गया है दर्द का गोदाम जिस्म
ढेरों सपनों का ठिकाना था कभी
अब दवाओं का बना मुकाम जिस्म
दूसरों के हो गए मोहताज यूं
हो गया लाचार बस नाकाम जिस्म
दर्द, दहशत और हैं सिसकारियां
कैसे कह दें खुदा का इनाम जिस्म
आत्मा बच्चों की मुट्ठी में दबा
कर दिया है कैंसर के नाम जिस्म 
3
दर्द के तोहफे इतने पाए हैं
हौसलों के दीये जलाए हैं
टिमटिमाते दीये की आंखों में
कितने ही ख्वाब झिलमिलाए हैं
मौत के डर के बीच भी हमने
गीत तो जिंदगी के गाए हैं
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