जयप्रकाश शाला और कस्तूरबा कन्या शाला को अपनी जगह खाली करनी पड़ रही है। जिस जगह दोनों स्कूल चल रहे थे वह बाजार के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वहां अब नगरपालिका बेसमेंट में पार्किंग और ऊपर शापिंग काम्पलेक्स का निर्माण करवाएगी। इससे नगरपालिका की आमदनी बढे़गी और कस्बे को एक खूबसूरत बाजार मिलेगा। शहर के व्यापारियों का भी भला होगा और कस्बे के विकास में भी चार चांद लग जाएंगे। और इन दो स्कूलों के बारे में कोर्इ सोचे भी क्यों? सबके बच्चे तो पबिलक स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इन दोनों स्कूलों में छात्र या छात्राओं की संख्या 20-25 ही रह गर्इ है। जाहिर है इनमें गरीबों से भी गरीब और कमजोरों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं। भला कमजोरों की फिक्र आजकल कौन करता है?
बेचारे दोनों प्राइमरी स्कूल, कस्बे के बीच में बसने की सजा पा रहे हैं। हालांकि उस समय आबादी कम थी और सोचा यह गया था कि छोटे बच्चों का स्कूल कस्बे के बीच में ही होना चाहिए ताकि घर से उनकी दूरी ज्यादा न हो। जमाना बदलते ही कल की सहूलियत आज भारी पड़ने लगी। दोनों स्कूल चारों तरफ दुकानों से घिर गए थे। स्कूल के सामने की पतली गली में कर्इ दुकानों के दरवाजे खुलते हैं। गुजरे जमाने में इतनी दुकाने नहीं थीं। तब गली में नन्हे मुन्नों की भीड़ ही दिखती थी। वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। अब ये दोनों स्कूल मोहता प्लाट में शिफ्ट हो जाएंगे। जाहिर है इनमें अब पुराने दिनों जैसी चमक नहीं होगी। दोनों स्कूलों में बच्चे घटने से नगरपालिका निशिंचत है। मामूली सुविधाएं और तंग जगह में भी कमजोरों के बच्चे पढ़ सकते हैं।
ये दोनों स्कूल सटे हुए थे। पहले जयप्रकाश शाला और उसकी दीवार से सटी कस्तूरबा कन्या शाला। मेरा इन दोनों स्कूलों से गहरा नाता रहा है। जयप्रकाश शाला में पांचवीं तक पढ़़े हैं और कस्तूरबा कन्या शाला में अम्मा शिक्षिका थीं इसलिए वहां भी खूब आना-जाना होता था। पहली-दूसरी में तो साथी लड़कियों के साथ खेले-कूदे भी हैं। अम्मा की साथी बहनजियों से भी बहुत स्नेह मिला। उन दिनों दोनों स्कूलों में बच्चों की भीड़ होती थी। कस्बे में प्राइमरी स्कूल तो सात-आठ थे लेकिन इन दोनों स्कूलों की बात ही कुछ और थी। ये घर के निकट थे और सबसे सम्मानित स्कूल माने जाते थे। स्कूल के बाहर पतली गली में लबदो, बेर, गोल मिठार्इ लेकर दुकानदार बैठते थे। मूंछ वाले शंकर की गोल मिठार्इ प्रसिद्ध थी। वह आवाज भी जोरदार लगाता था, गो...ल...मिठार्इ.....। यहीं लक्ष्मी सोनी की मां लबदो की टोकनी लेकर बैठती थीं। बाद में जयप्रकाश शाला के एक हिस्से में अशोक प्राथमिक शाला भी कुछ साल तक चली। इस स्कूल में राजा और रंक दोनों के बच्चे पढ़ते थे। कस्बे के धन्ना सेठों के बच्चों के साथ फुटपाथी दुकानदार या मजदूरों के बच्चों की भी दोस्ती हुआ करती थी। खेलकूद या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सब मिलजुलकर हिस्सा लेते थे।
मैंने अपने जीवन का पहला नाटक जयप्रकाश शाला में ही किया था। शायद पांचवीं कक्षा में, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान। कहानी तो याद नहीं लेकिन उसमें मैंने कम्पाउंडर का रोल किया था। डाक्टर गोपाल मालपानी बना था और दो मरीज बने थे वेणुगोपाल काबरा और मधुसूदन काबरा। इसके वर्षों बाद किशोर भारती में शम्शुल इस्लाम और नीलिमा शर्मा ने हमें नुक्कड़ नाटक का प्रशिक्षण दिया। इस दौरान तीन नाटक तैयार किए गए। इन नाटकों का प्रदर्शन भी जयप्रकाश शाला के परिसर में ही किया गया था। भगतसिंह नाटक में ओमप्रकाश रावल के बेटे असीम ने भगत सिंह का रोल किया था। पिपरिया से इन नाटकों में किशन व्यास, मुकेश पुरोहित, श्रीगोपाल, लक्ष्मी सोनी और कुछ होशंगाबाद के साथियों ने भी भूमिका निभार्इ थी। इसके बाद भगतसिंह पुस्तकालय की कुछ पोस्टर प्रदर्शनियां और कार्यक्रम भी इस शाला में हुए।
जयप्रकाश शाला की पहली मंजिल पर कभी एक बड़ा हाल था जिसमें जनता वाचनालय चलता था। पिछले साल दीवाली पर जनता वाचनालय में किसी पटाखे से आग लग गर्इ। जनता वाचनालय का पुराना रिकार्ड और किताबें राख हो गर्इं। उसके बाद से जयप्रकाश शाला के एक कमरे में जनता वाचनालय चल रहा था। अब जनता वाचनालय का क्या होगा, खबर नहीं है। जनता वाचनालय 1965 के आसपास क्षेत्र के समाजवादी नेता और नगरपालिका अध्यक्ष जग्गू उस्ताद ने शुरू करवाया था। जनता वाचनालय सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए भी दिया जाता था, इसलिए भगत सिंह पुस्तकालय की कर्इ विचार गोषिठयां और कार्यक्रम वहां हुए। पुस्तकालय की शुरुआत के पहले दिन शाम को आयोजित विचार गोष्ठी जनता वाचनालय में ही हुर्इ थी जिसे नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंæ माथुर ने संबोधित किया था। इसके बाद विजय बहादुर सिंह, चंडीप्रसाद भटट, अदम गोंडवी, हरजीत, एमपी परमेश्वरम, विनोद रैना, दीनानाथ मनोहर, माइज रस्सीवाला आदि कर्इ विद्धानों ने यहां जनता को संबोधित किया था। यहीं समता युवजन सभा और समता संगठन की सभाएं भी हुर्इं। रामजन्म भूमि के मुददे पर यहां आयोजित किशन पटनायक की सभा में कटटरपंथियों ने हमला कर दिया था।
नए जमाने के बच्चों का इन दोनों स्कूलों से कोर्इ लेना देना नहीं है, लेकिन हम जैसे पुराने लोगों की स्मृति में ये हमेशा रहेंगे। पहली बार स्लेट पर मिटटी वाली कलम से लिखना और क ख ग घ से लेकर हिज्जे करके हिन्दी पढ़ना। नीचे टाट की फटिटयों पर बैठना और खूब धमाचौकड़ी मचाना भला कैसे भूला जा सकता है?
बेचारे दोनों प्राइमरी स्कूल, कस्बे के बीच में बसने की सजा पा रहे हैं। हालांकि उस समय आबादी कम थी और सोचा यह गया था कि छोटे बच्चों का स्कूल कस्बे के बीच में ही होना चाहिए ताकि घर से उनकी दूरी ज्यादा न हो। जमाना बदलते ही कल की सहूलियत आज भारी पड़ने लगी। दोनों स्कूल चारों तरफ दुकानों से घिर गए थे। स्कूल के सामने की पतली गली में कर्इ दुकानों के दरवाजे खुलते हैं। गुजरे जमाने में इतनी दुकाने नहीं थीं। तब गली में नन्हे मुन्नों की भीड़ ही दिखती थी। वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। अब ये दोनों स्कूल मोहता प्लाट में शिफ्ट हो जाएंगे। जाहिर है इनमें अब पुराने दिनों जैसी चमक नहीं होगी। दोनों स्कूलों में बच्चे घटने से नगरपालिका निशिंचत है। मामूली सुविधाएं और तंग जगह में भी कमजोरों के बच्चे पढ़ सकते हैं।
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और यह हैं हम |
मैंने अपने जीवन का पहला नाटक जयप्रकाश शाला में ही किया था। शायद पांचवीं कक्षा में, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान। कहानी तो याद नहीं लेकिन उसमें मैंने कम्पाउंडर का रोल किया था। डाक्टर गोपाल मालपानी बना था और दो मरीज बने थे वेणुगोपाल काबरा और मधुसूदन काबरा। इसके वर्षों बाद किशोर भारती में शम्शुल इस्लाम और नीलिमा शर्मा ने हमें नुक्कड़ नाटक का प्रशिक्षण दिया। इस दौरान तीन नाटक तैयार किए गए। इन नाटकों का प्रदर्शन भी जयप्रकाश शाला के परिसर में ही किया गया था। भगतसिंह नाटक में ओमप्रकाश रावल के बेटे असीम ने भगत सिंह का रोल किया था। पिपरिया से इन नाटकों में किशन व्यास, मुकेश पुरोहित, श्रीगोपाल, लक्ष्मी सोनी और कुछ होशंगाबाद के साथियों ने भी भूमिका निभार्इ थी। इसके बाद भगतसिंह पुस्तकालय की कुछ पोस्टर प्रदर्शनियां और कार्यक्रम भी इस शाला में हुए।
जयप्रकाश शाला की पहली मंजिल पर कभी एक बड़ा हाल था जिसमें जनता वाचनालय चलता था। पिछले साल दीवाली पर जनता वाचनालय में किसी पटाखे से आग लग गर्इ। जनता वाचनालय का पुराना रिकार्ड और किताबें राख हो गर्इं। उसके बाद से जयप्रकाश शाला के एक कमरे में जनता वाचनालय चल रहा था। अब जनता वाचनालय का क्या होगा, खबर नहीं है। जनता वाचनालय 1965 के आसपास क्षेत्र के समाजवादी नेता और नगरपालिका अध्यक्ष जग्गू उस्ताद ने शुरू करवाया था। जनता वाचनालय सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए भी दिया जाता था, इसलिए भगत सिंह पुस्तकालय की कर्इ विचार गोषिठयां और कार्यक्रम वहां हुए। पुस्तकालय की शुरुआत के पहले दिन शाम को आयोजित विचार गोष्ठी जनता वाचनालय में ही हुर्इ थी जिसे नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंæ माथुर ने संबोधित किया था। इसके बाद विजय बहादुर सिंह, चंडीप्रसाद भटट, अदम गोंडवी, हरजीत, एमपी परमेश्वरम, विनोद रैना, दीनानाथ मनोहर, माइज रस्सीवाला आदि कर्इ विद्धानों ने यहां जनता को संबोधित किया था। यहीं समता युवजन सभा और समता संगठन की सभाएं भी हुर्इं। रामजन्म भूमि के मुददे पर यहां आयोजित किशन पटनायक की सभा में कटटरपंथियों ने हमला कर दिया था।
नए जमाने के बच्चों का इन दोनों स्कूलों से कोर्इ लेना देना नहीं है, लेकिन हम जैसे पुराने लोगों की स्मृति में ये हमेशा रहेंगे। पहली बार स्लेट पर मिटटी वाली कलम से लिखना और क ख ग घ से लेकर हिज्जे करके हिन्दी पढ़ना। नीचे टाट की फटिटयों पर बैठना और खूब धमाचौकड़ी मचाना भला कैसे भूला जा सकता है?