Monday, June 25, 2012

उजड़े गांवों का राग - दो

(क्राय की फेलोशिप विकास, विस्थापन और बचपन के दौरान रोरीघाट, इंदिरानगर और नये धांई की यात्रा की गई। काम के दौरान लिखी डायरी के कुछ पन्ने यहां सबसे साझा कर रहा हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की दूसरी किस्त)

इंदिरानगर में मृत्यु उत्सव

        इंदिरानगर, न नगर है न गांव, वह तो विस्थापितों का एक मोहल्ला भर है। वहां पर होशंगाबाद और छिंदवाड़ा जिले के कई दुखियारों ने पनाह ली। सब रोजी रोटी की तलाश में भटकते हुए आए और यहां बस गए। रोरीघाट के तीन परिवारों ने भी यहीं पनाह ली और 1981 में नीमघान से भगाए गए आदिवासियांे को भी यहां ठिकाना मिला। बाद में इन सबको इंदिरा आवास योजना के तहत मकान के लिए 15 सौ रुपए मिले तो इसका नाम इंदिरानगर हो गया। इस बात को जमाना बीत गया लेकिन इंदिरानगर अनहोनी गांव का एक टोला ही बना रहा। अपने गांव से इस टोले की दूरी तीन किलोमीटर है।
        नीमघान के आठ परिवार अब भी इंदिरानगर में हैं। 1981-82 में जब सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के चलते नीमघान उजड़ा तो 150 घरों का गांव बिखर गया। लोगों को जबरन भगाया गया बिना किसी पुनर्वास के। तब 30-40 परिवार इंदिरानगर आ गए थे और दूसरे कई गांवों में बस गए, नांदिया, घोड़ानार, डापका, बिरजूढाना आदि। लखन दादा कुछ परिवारों के साथ इंदिरानगर में ही डटे रहे। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें राजस्व विभाग ने जमीन दी। आज उनके तीनों बेटों के पास पांच-पांच एकड़ जमीन है। इंदिरानगर में सभी के पास एक-दो एकड़ जमीन है। जो उन्हें बहुत बाद में राजस्व विभाग की मेहरबानी से मिली। दूसरी सुविधाओं ंमें एक प्राइमरी स्कूल और तीन सरकारी नलकूप, तीन-चार हैंडपंप और बस। देखकर ही लगता है प्रशासन ने इस गांव की सुध नहीं ली है।
        लखन दादा से बहुत बात हुई। उन्हें अपना पुराना गांव नीमघान सबसे ज्यादा याद था। वे उन अंतिम लोगों में से थे जिन्हें वन विभाग ने घरों में आग लगाकर भगाया था। तीन अप्रैल 2011 की वह यादगार दोपहर मैंने झोपड़े के पीछे खेत में लखन दादा के साथ गुजारी थी। उनकी हालत जर्जर थी। वे बीमार थे। खेत में टपरिया डाले चारपाई पर बैठे थे। उनके एक पैर में तकलीफ थी। उन्होंने उस पैर को रस्सी से बांधकर एक लकड़ी के सहारे लटका रखा था। अजीब दृश्य था। ऐसे पैर बांधकर लटकाने से उन्हें आराम मिल रहा था। मैंने कुछ फोटो भी लीं लेकिन उन्हें एकलव्य के कम्प्यूटर में सेव करना महंगा पड़ गया। तकनीकी  खराबी से सारी फोटो बेकार हो गईं।
        तकलीफ में भी नीमघान के नाम से जैसे लखन दादा खिल उठे। वे देर तक नीमघान के उजड़ने की कहानी सुनाते रहे। वन विभाग से लेकर राजस्व विभाग तक वे कई अधिकारियों से कई बार मिले। उनकी भागदौड़ का फायदा पूरे इंदिरानगर को मिला। आज सबके पास कुछ जमीन है। मैं मंत्रमुग्ध होकर उस बुजुर्ग से किस्से सुनता रहा। उनके बड़े बेटे जबर सिंह और पिपरिया के मित्र मायाराम भी साथ थे।
         लखन दादा शहद तोड़ने मे उस्ताद थे। उन्होंने सतपुड़ा की ऊंची चट्टानों से भी शहद के छत्ते तोड़े हैं जहां जाने की दूसरे सोच भी नहीं पाते। देर तक हम उन्हें सुनते रहे। वे थक गए थे। पैर बहुत दर्द कर रहा था। मैं सोच रहा था एक-दो मुलाकात और हो जाए तो मजा आ जाएगा। पर इसके लिए उनके स्वस्थ होने का इंतजार करना था, लेकिन खबर मिली की दूसरे दिन यानी चार अप्रैल2011 को ही ल खन दादा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
         यह अजीब संयोग था कि मुझे लखन दादा की मौत के बाद के कार्यक्रमों में शामिल होने का मौका मिला। यह सुन रखा था कि कोरकू समाज मृत्यु उत्सव मनाता है। सब मिलकर पीते-खाते और नाचते-गाते हैं, लेकिन कभी नजदीक से कोरकू समाज की इस रस्म को देखने का मौका नहीं मिला था। जैसे हिन्दुओं में मौत के बाद 11वीं पर खाना खिलाते हैं। लखन दादा की ग्यारहवीं भी हुई। हमने भी खाया। उसके दूसरे दिन ‘गाता’ कार्यक्रम हुआ जिसे जागर भी कहा जाता है। यह कोरकू समाज की सबसे महत्वपूर्ण रस्म है। इसमें लोग जरूर पहुंचते हैं। कुल मिलाकर चार-पांच दिन तक यह मृत्यु उत्सव चलता है।
        जबर सिंह ने अपने दो छोटे भाइयों के साथ मिलकर पूरे कार्यक्रम को आयोजित किया था। करीब 20 गांवों के सौ-डेढ सौ लोग इंदिरानगर मंे मौजूद थे। हमने देर तक गाता को गाते-नाचते देखा-सुना। ढोल बाजों के साथ औरत-मर्द सब झूमकर नाच-गा रहे थे। सबने महुआ की शराब छान रखी थी। युवा भी झूम रहे थे और वृद्ध भी। बीच में भोजन भी हुआ जिसमें गोश्त का एक सूखा टुकड़ा भी मिला। फिर नाच-गाना शुरू हो गया।
       सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए थे। उसे एक कपड़े में बांधा गया था। पटिए और कपड़े पर हल्दी लगी थी। एक ग्रामीण उसे अपने कंधे पर लेकर झूम रहा था। बीच में दो बाजे वाले बजा रहे थे और आदिवासी स्त्री-पुरुष गोल घेरे में नाच रहे थे। उनके गीतों में जीवन और मौत का दर्शन था तो जीवन के आनंद की धमक भी थी। पूरे दिन में उन्हें नाचते देखता रहा। नाच इतना तेज था कि कल एक ढोलक टूट गई। अब तक दो ढोल टूट चुके हैं। शराब के बारे में कहा गया कि कमी नहीं होने दी जाएगी। कल रात से लोग नाच रहे हैं और पी रहे हैं। गांव में करीब सौ-डेढ़ सौ लोगों का जमावड़ा था।
सागौन के पटिए पर सूर्य-चद्र और मृत आत्मा के चित्र उकेरे गए हैं।
गाता का एक गीत 
ये जिंदगानी माटी पुतला
पानी गिरे घुल जाएंगे
ये जिंदगानी कागज का पुतला
पानी गिरे गल जाएंगे
       शाम को सब लोग नाचते गाते गांव के बाहर महुआ के पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां पटिए को पेड़ से टिकाकर रख दिया गया। लोग उस पर महुआ छिड़क रहे थे। उसी वक्त मैंने लखन दादा की बेटी को रोते हुए देखा। मुझे पहला कोई व्यक्ति मिला जिसकी आंखों में आंसू थे वर्ना यहां तो सभी झूम रहे हैं और नाच-गा रहे हैं। दूर से कोई शादी का जश्न समझ सकता है लेकिन यह गाता है। बैतूल में कोरकू इसे जागर कहते हैं। 
         रात भर के लिए उस पटिए को महुआ के पेड़ के ऊपर रख दिया। सुबह सब लोग इसे लेकर पगारा रवाना होंगे। पगारा पचमढ़ी के पास है। वहां एक पेड़ के नीचे इस इलाके के कोरकू मृत आत्मा के नाम का सागोन का पटिया गाड़ देते हैं।
अलविदा लखन दादा
          जबर सिंह ने बताया सुबह सब लोग पैदल पगारा जाएंगे। जो यहां से करीब 30-35 किलोमीटर पड़ेगा। उसके बाद शाम तक सब वापस आ जाएंगे। इस तरह मौत के बाद का उत्सव चार-पांच दिन तक चलता है। इसमें समाज के सभी लोगों का आना अनिवार्य है। जबर सिंह ने बताया करीब तीस हजार का खर्चा आया है।
            इंदिरानगर में गाता कार्यक्रम को देखकर मन हल्का हो गया। विस्थापन के बाद भी इंदिरानगर के कोरकू अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोये हुए हैं। अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद ‘गाता’ उन्हें एक दूसरे से जोड़े हुए है।  


          

Wednesday, June 6, 2012

उजड़े गांवों का राग-एक

(क्राय की फेलोशिप के तहत विकास, विस्थापन और बचपन पर होशंगाबाद जिले के तीन गांवों में अध्ययन किया गया रोरीघाट, इंदिरानगर और नया धांई। रोरीघाट अभी विस्थापित नहीं हुआ है पर 30 साल से विस्थापन की राह देख रहा है। गांवों की यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी के कुछ पन्ने यहां आप सब से साझा करना चाहता हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की पहली किस्त)

तब से अब तक रोरीघाट

        रोरीघाट जाते हुए सचमुच में मैं रोमांचित था। इतने बरसों बाद फिर उस गांव की यात्रा। रोरीघाट में 1981-82 में बहुत समय गुजरा है। उन दिनों की डायरी ने हमेशा मेरी स्मृतियों में इस गांव को ताजा रखा। हर माह एक हफ्ता, साल भर तक। वह मेरी उम्र का 25वां साल था। जंगल-पहाड़ और आदिवासियांे के जीवन में झांकने का पहला मौका। किशोर भारती के एक शोध अध्ययन कार्यक्रम के तहत यह यात्राएं की गई थीं। इसका नेतृत्व इलीना सेन कर रही थीं। 29 साल बाद क्राय की फेलोशिप ने एक बार फिर रोरीघाट जाने का मौका दे दिया। सचमुच यह सपने जैसा लग रहा था। श्रीगोपाल की बाइक के पीछे बैठा में जैसे सतपुड़ा के जंगलों में खो गया था।
         उस जमाने में गांव के एक बुजुर्ग परसन सिंह जिन्हें नेत्रहीन होने के कारण सब सूरदास कहते थे, मैं उनके झोपड़े में ठहरता था। बीच में हमेशा अलाव जलता रहता था। उसी में मैं अपना और सूरदास का खाना बनाता था। सुबह-शाम आदिवासियों से चर्चा होती और दोपहर को मैं सतपुड़ा के जंगलों की खाक छानता रहता।  पहली बार इलीना सेन के साथ जीप से गांव तक गए थे। उसके बाद साल भर तक पचमढ़ी से पैदल आना-जाना ही हुआ। रास्ते में तुलतुला पड़ता था। वहां चट्टान से पानी रिसता था और नीचे कटोरेनुमा चट्टान के टुकड़े में भर जाता था। राहगीर उसी से पानी पीते थे। वे पत्तों से गिलास का काम लेते।
         श्रीगोपाल ने बताया उस तुलतुले से ही सिद्धबाबा तक पानी पहुंचाया गया है। सिद्धबाबा एक ऊंची पहाड़ी पर है। वहां वन विभाग की चैकी है। हमारी बाइक जिन रास्तों पर गुजर रही थी वहां बाइक चलाना सचमुच बड़ी बात थी। ऊबड़ खाबड़ पंगडंडी, कहीं-कहीं तो जैसे रास्ते में चट्टानें ही उग आई हों। पचमढ़ी से सीधा उतार। कितने ही पहाड़ों की चोटी पर खड़े होकर हमने रोरीघाट को देखा। बरसों पुराना गांव, वैसे ही पहाड़ों और हरियाली से घिरा हुआ।
        आज के रोरीघाट में कदम रखते हुए पुराने दिनों की स्मृतियां ताजा हो गईं। वहीं पथरीली राह, चार मोहल्ले और नई बात सभी मोहल्लों में सोलर लाइट, घर में भी और हर मोहल्ले में एक रास्ते पर। बड़ाढाना में अब पहाड़ी झरने चवनार से पानी आ गया है। दूसरे मोहल्ले वाले अब भी नदी से ही पानी लाते हैं। चवनार पहाड़ी पर हमने कई दोपहर गुजारी हैं। कुछ लिखते पढ़ते या अपनी डायरी ही पूरी करते और झरने में जमकर नहाते। होशंगाबाद के हमारे मित्र सुशील जोशी ने भी उस झरने में खूब नहाया है। उन दिनों कई दोस्तों ने मेरे साथ रोरीघाट की यात्रा की है, अशेष, अरविंद सरदाना,  मीरा, सुशील जोशी, जोगेन सेनगुप्ता, रामवचन दुबे आदि। थोड़ी देर तक तो जैसे मैं नए रोरीघाट में पुराने को ढूंढते रहा। गांव का स्कूल और आंगनबाड़ी दूर से दिखाई देते हैं।
      हम पहंुचे तो गांव सूना लगा। गुरुवार को पचमढ़ी में बाजार लगता है और रोरीघाट के लोग  पचमढ़ी गए हुए थे। सम्मर सिंह अपनी झोपड़ी में मिले। उनसे घुलने-मिलने में ज्यादा देर नहीं लगी। जब मैंने तार सिंह दादा के बारे में पूछा तो वे बोले तार सिंह मेरे दादा थे। मेरी डायरी में तार सिंह से लंबी बातचीत दर्ज है। लेकिन सम्मर सिंह को मैं नही पहचान पाया। सम्मर सिंह बोले मैं अपने दादा से बहुत डरता था। वे जहां होते थे वहां फटकता भी नहीं था इसलिए उस समय आपसे सामना नहीं हो पाया होगा। सम्मर सिंह के साथ उनकी बेटी और दामाद भी रहते हैं। उनके बच्चे हमारे आसपास घूमते रहे। मीना सम्मर सिंह की बेटी है। पांचवीं में पढ़ती है। उसी ने हमारे खाने-पीने की व्यवस्था की।

पुरानी डायरी में तार सिंह दादा
‘शाम तक पांच परिवारों के उनके कामधंधे को लेकर बातचीत हुई। इन्हीं में से एक हैं तार सिंह, उनकी उम्र 75 साल के लगभग है। एक पैर से अपंग हैं। कान में पीतल का बड़ा सा छल्ला डाले हैं। यहां के इतिहास को कुरेदते हुए उन्होंने राजा बलवंत सिंह का नाम बताया। जो पहले पचमढ़ी का कोरकू आदिवासी राजा था। उसके राज्य में 52 गांव थे। बाद में अंग्रेजों ने उससे पचमढ़ी छीन ली और पांच गांव दे दिए, रोरीघाट, काजीघाट, चूरनी, घुटकेरा और नादिया। यह नाम परसन सिंह ने बताए। बलवंत सिंह शिव का भक्त था। अंग्रेजों ने इस इलाके में खूब शिकार किया है और अच्छी बख्शीश के बदले आदिवासियों की खूब सेवा ली है। तार सिंह ने यह सब अपनी आंखों से देखा है। अंग्रेज गांव से अलग रहते थे और उनकी मेम उनसे अच्छा निशाना साध लेती थी।’
                                                                                                                                   
 22 नवम्बर 1981

           सम्मर सिंह से मैंने इकतार सिंह और रोनी बाई के बारे में पूछा, उनकी बेटी सुनीता। पता चला अब उनके परिवार में कोई नहीं हैं। अतर सिंह नाम के जिस बच्चे के साथ मैंने जंगल के खेत पर मचान में रात बिताई थी, वह बालक भी नहीं है। उसकी बीमारी में मौत हुई। कितने ही लोग उस जमाने के अब नहीं है। सम्मर सिंह ने बताया सूरदास का झोपड़ा कुछ आगे था जहां अब भी खाली जगह पड़ी है। उनके पोते दुलार और अधार ने भी बरसों पहले रोरीघाट छोड़ दिया। वे चाटुआचांदकाल गांव में बस गए। उस परिवार का अब कोई भी यहां नहीं है। कैलाश का जवान बेटा भी बीमारी में चल बसा। 15 दिन पचमढ़ी के अस्पताल में भर्ती भी रहा। कैलाश को पता ही नहीं है कि किस बीमारी से उसकी मौत हुई।
         श्यामलाल दादा की भी मौत हो गई। मेरी याददाश्त में श्यामलाल वह नौजवान है जिसने उस साल जंगल से सबसे ज्यादा रामबुहारी तोड़ी थी। उस नौजवान को ही आज की पीढ़ी श्याम दादा कहा रह रही थी। उनकी बेटी सरस्वती से मुलाकात हुई। सरस्वती सातवीं में पचमढ़ी छात्रावास मे रहकर पढ़़ाई करती है। वह श्यामलाल के बड़े बेटे रामप्रकाश के साथ रहती है। उनके तीन बेटे हैं। देखने-सुनने में बीमारियों से मौतों की बात सामने आ रही है। श्याम दादा की मौत टीबी से हो चुकी है। सुनने में आया है कि गांव में टीबी के दो-चार मरीज हैं लेकिन न वे जागरूक हैं और न व्यवस्था ही संवेदनशील है। 
          और फिर आए कुंजीलाल। वे मुझे पहचान गए। जब बात चली तो उन्हें बहुत कुछ याद आ गया। उन्हें सूरदास के घर में चलने वाले स्कूल की याद थी। तब हुआ यह था कि होशंगाबाद के जिला शिक्षा अधिकारी बशीर साहब ने कुंजीलाल से कहा था वह गांव के बच्चों को पढ़ाए उसे पक्का कर देंगे। कुछ महीने सूरदास के झोपड़े में स्कूल चला। बाद में साहब ने कुछ नहीं किया और कुंजीलाल ने पढ़ाना छोड दिया। कुंजीलाल ने बताया कि कितने ही लोग बीमारी और हादसों में चल बसे। गांव वालों की जिंदगी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। खेती वैसे ही कमजोर है। मजदूरी, मेला और वन उपज का ही सहारा है। खुद कुंजीलाल शिक्षक तो नहीं बन पाए पर वन विभाग के वाचर बन गए हैं। 
कुंजीलाल 

उनका बेटा सुखलाल भी वाचर है, लेकिन ऐसी किस्मत सबकी नहीं है। ज्यादातर लोग वैसे ही मशक्कत कर रहे हैं। वन विभाग के लोगेां की धौंस जारी है। उन्हें कुछ दिए बिना झोपड़े की मरम्मत तक नहीं कर सकते।
         तभी चतर सिंह पर नजर पड़ी। मैं उसे फौरन पहचान गया। उसका चेहरा परिपक्व हो गया था लेकिन उसमें बचपन के चतर सिंह की झलक थी। उसे मेरी कुछ भी याद नहीं थी। वह उस समय दस साल का रहा होगा। आज 38-39 साल का होगा। मैंने उसे डायरी का वह हिस्सा पढ़कर सुनाया जिसमें उसके साथ मेरी बातचीत दर्ज थी। अफसोस, उसे कुछ भी याद नहीं आया। लेकिन इससे मेरे रोमांच पर फर्क नहीं पड़ा। मैं जवान चतर सिंह से मिलकर सचमुच बहुत उत्साहित था। चतर सिंह के दो बच्चे हैं।

पुरानी डायरी में चतर सिंह

चतर सिंह

‘मैं चतर सिंह के यहां आकर बैठ गया। चतर सिंह 10-12 साल का लड़का है। घर में अकेला आग के पास बैठा था। घर के अन्य सदस्य जंगल में कुटकी की कटाई के कारण वहीं हैं। चतर सिंह सड़क निर्माण कार्य में मजदूरी करने जाता है। वह बहुत मासूमियत के साथ ठहर-ठहर कर बात करता है। उसकी बातचीत में नयापन और गहरी निश्छलता होती है। उसने पूछा तुम्हारा कितना काम हो गया, कितना रह गया है। इसके बाद कहां जाओगे। मैंने उसे सब बताया। उसने कहा हां पिपरिया और बनखेड़ी का नाम सुना है पर उधर गया नहीं।  
                                                                                24 नवम्बर, 1981

         दो-तीन घर आगे ही गनपत सिंह का मकान है। हम उनसे भी मिले। गनपत सिंह, 60-65 के बीच की उम्र के हैं। उनका पुत्र संपत सिंह गांव का सरपंच है। पचमढ़ी में रहता है। एक पुत्र की हाल ही में मौत हो गई। वह रेंजर के यहां घरेलू नौकर था। तबादले के बाद रेंजर उसे साथ ले गए, छोड़ नहीं रहे थे। फिर एक दिन उसकी आत्महत्या की खबर आई। संपत का कहना है कि यह आत्महत्या नहीं है। मामले की जांच होनी चाहिए। एक अखबार में उसका बयान भी प्रमुखता से छपा है। गनपत सिंह झ्स मुद्दे पर बात करना नहीं चाहते। वे उदास निगाहों से सतपुड़ा के पहाड़ों को निहारते हैं। फिर उदास लहजे मंे कहते हैं ‘क्या करें, पड़े हैं इस गड्ढे में।’ पहाड़ों से घिरे होने के कारण उन्होंने रोरीघाट को गड्ढे की उपमा दी और यह भी उजागर कर दिया कि यहां मौके नहीं हैं। उन्होंने बताया कि लोग तो यहां से जाना चाहते हैं लेकिन सरकार कुछ करती ही नहीं। यहां क्या है? सिर्फ मेहनत, मशक्कत और अभाव। रोरीघाट में पानी और लाइट के आने को उन्होंने कोई खास तवज्जो नहीं दी। 
          हम उनके घर के पीछे आंगन में बैठे थे। उसके सामने ही सतपुड़ा के पहाड़ हैं। गनपत दादा की उदासी टूट नहीं पाती हैं। यह शायद पूरे रोरीघाट की उदासी भी है। जंगल से निकलने के लिए नौजवानो के सामने वन विभाग की चैकीदारी की नौकरी या बड़े अधिकारियों के घर काम करने का ही रास्ता बचता है। गांव के दो-तीन युवक अब भी पचमढ़ी में अफसरों के घर काम कर रहे हैं। गनपत सिंह के बेटे की मौत के पीछे भी कोई कहानी है, लेकिन उस तक पहुंचना इतना आसान नहीं है।
          यह हैरत की बात है कि बहुत कम लोग ही लोग ही यहां से निकल पाए हैं। 30 साल पहले एक भी बच्चा पचमढ़ी या मटकुली में नहीं पढ़ता था। आज चार बच्चे मटकुली और दो पढ़मढ़ी में पढ़ रहे है। पहले पचमढ़ी से नीचे उतरने वाले इक्का दुक्का ही थे। रेलगाड़ी देखने और उसमें बैठने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे। आज यह संख्या बढ़ी हैं। कुंजीलाल बेटे के साथ पोते को डाॅक्टर को दिखाने के लिए बाइक से पिपरिया गए थे। तब भी यह हैरत की बात है कि गांव की आधी आबादी आज भी पचमढ़ी से नीचे नहीं उतरी है।
          रात को सोलर लाइट का महत्व समझ में आता है। महुआ ढाना में हम गजराज सिंह के झोपड़े के सामने आंगन में बैठे थे। मोहल्ले के कई लोग जमा हो गए थे। चंद कदम दूर ही स्ट्रीट लाइट जल रही थी। उसकी रोशनी आंगन के एक हिस्से पर पड़ रही थी। लोगों ने माना इससे सहूलियत हो गई है। सम्मर सिंह के झोपड़ी में एक बल्व जल रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे तक वह जला। इसके बाद चिमनी से काम लेना पड़ा। लोगो ंकी छतों पर रखे सोलर लाइट के पैनल दूर से चमकते हैं।
            स्कूल और आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों के चेहरों पर मुसकान है। वे कम बोलते हैं पर हमेशा खिले रहते हैं। दो बच्चों के हाथ में तीन कमान थे। इसे उन्होंने सफाई से बनाया था। थोड़ी देर निशानेबाजी का खेल भी चला। कम बच्चे ही अपने अनुभव लिख पाए, लेकिन छोटे बच्चों ने बहुत मौज ली। स्कूल और आंगनबाड़ी ने बच्चों की जिंदगी पर असर डाला है। यह दिखाई देता है, लेकिन प्राइमरी के बाद सब कुछ बदल जाता है। सिर्फ दो-चार फीसद बच्चे ही आगे पढ़ने पचमढ़ी या मटकुली जा पाते हैं। 90-95 फीसद बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। इस स्कूल को आठवीं तक करने की मांग हो रही है। आदिवासियों को उम्मीद है कि इस साल यह आठवीं तक हो जाएगा। उसके
 बाद पचमढ़ी में इन बच्चों के लिए अलग से इंतजाम किए जाने चाहिए। कई बच्चे इकट्ठे हो गए। आंगनबाड़ी और स्कूल वाले बच्चों ने थोड़ी देर के लिए माहौल को खुशगवार बना दिया था। छोटे बच्चों के खिले चेहरे और कुछ बड़े बच्चों के जुझारूपन से रोरीधाट अब भी चमक रहा है। इस नये रोरीघाट की ताकत भी यही हैं। कई चिंताएं भी हैं मगर इनके हौसले बुलंद हैं।
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