उत्तराखंड की त्रासदी को सभी नेता और अफसर प्राकृतिक आपदा बताते
नहीं थक रहे हैं, लेकिन यह सच सभी जानते हैं कि अगर कथित विकास के चलते
पहाड़ को खोखला नहीं किया होता तो यह त्रासदी इतनी भयानक नहीं होती। आपको
याद होगा भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री निशंक को घोटालों के आरोपों के बाद हटा
दिया था। उन पर खनन माफिया से गठजोड़ के आरोप थे और बात अरबों रुपए के
घोटाले की थी।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार काबीना मंत्री जयराम रमेश को इसलिए
लताड़ लगाई थी कि वे पर्यावरण के नाम पर कई विकास योजनाओं को स्वीकृति नहीं
दे रहे थे। तब मनमोहन सिंह ने कहा था कि ऐसे में तो विकास रुक जाएगा। उन
विकास योजनाओं में से कई उत्तराखंड की भी थी। जिन्हें बाद में भाजपा सरकार
ने भी हाथोंहाथ लिया। इस आपदा में करीब 50 हजार से लेकर एक लाख लोगों के
मरने के कयास लगाए जा रहे हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ा हजार तक भी नहीं पहुंच
रहा है। जब तक हमारे नुमाइंदे सच्चाई को स्वीकार नहीं करते और उन कारणों को
नहीं समझते जो त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं, तब तक आप ऐसे हादसों को
झेलने के लिए तैयार रहिए।
संकट की घड़ी में भी लोग कमाने से नहीं चूके। पांच सौ रुपए का एक प्लेट चावल था। 180 रुपए की एक रोटी बिकी। पांच सौ रुपए वाले कमरे के तीन हजार रुपए वसूले गए। लूट की घटनाएं भी कम नहीं हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जब स्थानीय लोगों ने फंसे हुए लोगों को खाना खिलाया और उनकी जिंदगी बचाई। सेना के जवान भी शानदार काम कर रहे हैं। ऐसे संकटमोचक जांबाजों को सलाम, लेकिन जो घडि़याली आंसू बहाकर धंधा बढ़ाने की फिराक में हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
उत्तराखंड में करीब 60 गांव बह गए हैं। केदारनाथ में 90 धर्मशालाएं भी बह गईं। इस आपदा ने हमारे विकास पुरुषों के लिए रास्ता साफ कर दिया है। अब तो उस खाली जमीन का कोई माई-बाप भी नहीं रह गया है। उस पर अब नेता, नौकरशाह और बिल्डर विकास की इमारत खड़ी करेंगे। आखिर उत्तराखंड को इस आपदा से उबारना भी तो है।
दुख में दोहे
खेल ये कुदरत का नहीं, इंसानी करतूत
मोहना तेरे विकास का ये है असली रूप
पीटे ढोल विकास का, खोदे रोज पहाड़
कुदरत भी कितना सहे, तेरा ये खिलवाड़़
बड़ी मशीनें देखकर, रोये खूब पहाड़
कैसे झेलेगा भला जब आएगी बाढ़
खनन माफिया से हुआ सत्ता का गठजोड़
पैसा खूब कमाएंगे, धरती का दिल तोड़
खंड खंड बहता रहा हाय उत्तराखंड
मलबा बन गई जिंदगी, रुका नहीं पाखंड
आपदा राहत कोष से, होंगे कई अमीर
जनता बिन राहत मरे, वे खाएंगे खीर
धरम करम के चोचले, दान पुण्य भी खूब
भक्त बचे कैसे भला, खुद भगवन गए डूब
गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन
बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन
नरेंद्र कुमार मौर्य
संकट की घड़ी में भी लोग कमाने से नहीं चूके। पांच सौ रुपए का एक प्लेट चावल था। 180 रुपए की एक रोटी बिकी। पांच सौ रुपए वाले कमरे के तीन हजार रुपए वसूले गए। लूट की घटनाएं भी कम नहीं हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जब स्थानीय लोगों ने फंसे हुए लोगों को खाना खिलाया और उनकी जिंदगी बचाई। सेना के जवान भी शानदार काम कर रहे हैं। ऐसे संकटमोचक जांबाजों को सलाम, लेकिन जो घडि़याली आंसू बहाकर धंधा बढ़ाने की फिराक में हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
उत्तराखंड में करीब 60 गांव बह गए हैं। केदारनाथ में 90 धर्मशालाएं भी बह गईं। इस आपदा ने हमारे विकास पुरुषों के लिए रास्ता साफ कर दिया है। अब तो उस खाली जमीन का कोई माई-बाप भी नहीं रह गया है। उस पर अब नेता, नौकरशाह और बिल्डर विकास की इमारत खड़ी करेंगे। आखिर उत्तराखंड को इस आपदा से उबारना भी तो है।
दुख में दोहे
खेल ये कुदरत का नहीं, इंसानी करतूत
मोहना तेरे विकास का ये है असली रूप
पीटे ढोल विकास का, खोदे रोज पहाड़
कुदरत भी कितना सहे, तेरा ये खिलवाड़़
बड़ी मशीनें देखकर, रोये खूब पहाड़
कैसे झेलेगा भला जब आएगी बाढ़
खनन माफिया से हुआ सत्ता का गठजोड़
पैसा खूब कमाएंगे, धरती का दिल तोड़
खंड खंड बहता रहा हाय उत्तराखंड
मलबा बन गई जिंदगी, रुका नहीं पाखंड
आपदा राहत कोष से, होंगे कई अमीर
जनता बिन राहत मरे, वे खाएंगे खीर
धरम करम के चोचले, दान पुण्य भी खूब
भक्त बचे कैसे भला, खुद भगवन गए डूब
गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन
बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन
नरेंद्र कुमार मौर्य
जयराम रमेश पर्यावरण संतुलन के साथ विकास के पक्षधर हो, ऐसा दिखता तो नहीं.क्या पहाड, क्या मैदान, सब जगह लूट मची है. व्यापारी, नेता और अफसरों का गठ्जोर है, जो मिलकर काम कर रहा है, इसमे इंसान, प्रक्रिति और पर्यावरण को एक कोने में रख दिया जा रहा है. नतीजा हैं ये त्रासदियॉ-
ReplyDeleteआज के समय में प्रसांगिक
उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा की यह कविता
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"बोल व्योपारी तब क्या होगा -- ??"
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,
उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बूँद-बूँद को तरसोगे जब -
बोल व्योपारी – तब क्या होगा ?
नगद – उधारी – तब क्या होगा ??
आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो,
लेकिन डोलेगी जब धरती – बोल व्योपारी – तब क्या होगा ?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी – तब क्या होगा ?
योजनकारी – तब क्या होगा ?
नगद-उधारी तब क्या होगा ?
(सौजन्य = संध्या नवोदिता )
जनकवि गिर्दा की शानदार रचना। सभी जनप्रतिनिधियों को सोचने की जरूरत है कि ‘फिर क्या होगा’।
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