Wednesday, June 6, 2012

उजड़े गांवों का राग-एक

(क्राय की फेलोशिप के तहत विकास, विस्थापन और बचपन पर होशंगाबाद जिले के तीन गांवों में अध्ययन किया गया रोरीघाट, इंदिरानगर और नया धांई। रोरीघाट अभी विस्थापित नहीं हुआ है पर 30 साल से विस्थापन की राह देख रहा है। गांवों की यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी के कुछ पन्ने यहां आप सब से साझा करना चाहता हूं। प्रस्तुत है संस्मरण की पहली किस्त)

तब से अब तक रोरीघाट

        रोरीघाट जाते हुए सचमुच में मैं रोमांचित था। इतने बरसों बाद फिर उस गांव की यात्रा। रोरीघाट में 1981-82 में बहुत समय गुजरा है। उन दिनों की डायरी ने हमेशा मेरी स्मृतियों में इस गांव को ताजा रखा। हर माह एक हफ्ता, साल भर तक। वह मेरी उम्र का 25वां साल था। जंगल-पहाड़ और आदिवासियांे के जीवन में झांकने का पहला मौका। किशोर भारती के एक शोध अध्ययन कार्यक्रम के तहत यह यात्राएं की गई थीं। इसका नेतृत्व इलीना सेन कर रही थीं। 29 साल बाद क्राय की फेलोशिप ने एक बार फिर रोरीघाट जाने का मौका दे दिया। सचमुच यह सपने जैसा लग रहा था। श्रीगोपाल की बाइक के पीछे बैठा में जैसे सतपुड़ा के जंगलों में खो गया था।
         उस जमाने में गांव के एक बुजुर्ग परसन सिंह जिन्हें नेत्रहीन होने के कारण सब सूरदास कहते थे, मैं उनके झोपड़े में ठहरता था। बीच में हमेशा अलाव जलता रहता था। उसी में मैं अपना और सूरदास का खाना बनाता था। सुबह-शाम आदिवासियों से चर्चा होती और दोपहर को मैं सतपुड़ा के जंगलों की खाक छानता रहता।  पहली बार इलीना सेन के साथ जीप से गांव तक गए थे। उसके बाद साल भर तक पचमढ़ी से पैदल आना-जाना ही हुआ। रास्ते में तुलतुला पड़ता था। वहां चट्टान से पानी रिसता था और नीचे कटोरेनुमा चट्टान के टुकड़े में भर जाता था। राहगीर उसी से पानी पीते थे। वे पत्तों से गिलास का काम लेते।
         श्रीगोपाल ने बताया उस तुलतुले से ही सिद्धबाबा तक पानी पहुंचाया गया है। सिद्धबाबा एक ऊंची पहाड़ी पर है। वहां वन विभाग की चैकी है। हमारी बाइक जिन रास्तों पर गुजर रही थी वहां बाइक चलाना सचमुच बड़ी बात थी। ऊबड़ खाबड़ पंगडंडी, कहीं-कहीं तो जैसे रास्ते में चट्टानें ही उग आई हों। पचमढ़ी से सीधा उतार। कितने ही पहाड़ों की चोटी पर खड़े होकर हमने रोरीघाट को देखा। बरसों पुराना गांव, वैसे ही पहाड़ों और हरियाली से घिरा हुआ।
        आज के रोरीघाट में कदम रखते हुए पुराने दिनों की स्मृतियां ताजा हो गईं। वहीं पथरीली राह, चार मोहल्ले और नई बात सभी मोहल्लों में सोलर लाइट, घर में भी और हर मोहल्ले में एक रास्ते पर। बड़ाढाना में अब पहाड़ी झरने चवनार से पानी आ गया है। दूसरे मोहल्ले वाले अब भी नदी से ही पानी लाते हैं। चवनार पहाड़ी पर हमने कई दोपहर गुजारी हैं। कुछ लिखते पढ़ते या अपनी डायरी ही पूरी करते और झरने में जमकर नहाते। होशंगाबाद के हमारे मित्र सुशील जोशी ने भी उस झरने में खूब नहाया है। उन दिनों कई दोस्तों ने मेरे साथ रोरीघाट की यात्रा की है, अशेष, अरविंद सरदाना,  मीरा, सुशील जोशी, जोगेन सेनगुप्ता, रामवचन दुबे आदि। थोड़ी देर तक तो जैसे मैं नए रोरीघाट में पुराने को ढूंढते रहा। गांव का स्कूल और आंगनबाड़ी दूर से दिखाई देते हैं।
      हम पहंुचे तो गांव सूना लगा। गुरुवार को पचमढ़ी में बाजार लगता है और रोरीघाट के लोग  पचमढ़ी गए हुए थे। सम्मर सिंह अपनी झोपड़ी में मिले। उनसे घुलने-मिलने में ज्यादा देर नहीं लगी। जब मैंने तार सिंह दादा के बारे में पूछा तो वे बोले तार सिंह मेरे दादा थे। मेरी डायरी में तार सिंह से लंबी बातचीत दर्ज है। लेकिन सम्मर सिंह को मैं नही पहचान पाया। सम्मर सिंह बोले मैं अपने दादा से बहुत डरता था। वे जहां होते थे वहां फटकता भी नहीं था इसलिए उस समय आपसे सामना नहीं हो पाया होगा। सम्मर सिंह के साथ उनकी बेटी और दामाद भी रहते हैं। उनके बच्चे हमारे आसपास घूमते रहे। मीना सम्मर सिंह की बेटी है। पांचवीं में पढ़ती है। उसी ने हमारे खाने-पीने की व्यवस्था की।

पुरानी डायरी में तार सिंह दादा
‘शाम तक पांच परिवारों के उनके कामधंधे को लेकर बातचीत हुई। इन्हीं में से एक हैं तार सिंह, उनकी उम्र 75 साल के लगभग है। एक पैर से अपंग हैं। कान में पीतल का बड़ा सा छल्ला डाले हैं। यहां के इतिहास को कुरेदते हुए उन्होंने राजा बलवंत सिंह का नाम बताया। जो पहले पचमढ़ी का कोरकू आदिवासी राजा था। उसके राज्य में 52 गांव थे। बाद में अंग्रेजों ने उससे पचमढ़ी छीन ली और पांच गांव दे दिए, रोरीघाट, काजीघाट, चूरनी, घुटकेरा और नादिया। यह नाम परसन सिंह ने बताए। बलवंत सिंह शिव का भक्त था। अंग्रेजों ने इस इलाके में खूब शिकार किया है और अच्छी बख्शीश के बदले आदिवासियों की खूब सेवा ली है। तार सिंह ने यह सब अपनी आंखों से देखा है। अंग्रेज गांव से अलग रहते थे और उनकी मेम उनसे अच्छा निशाना साध लेती थी।’
                                                                                                                                   
 22 नवम्बर 1981

           सम्मर सिंह से मैंने इकतार सिंह और रोनी बाई के बारे में पूछा, उनकी बेटी सुनीता। पता चला अब उनके परिवार में कोई नहीं हैं। अतर सिंह नाम के जिस बच्चे के साथ मैंने जंगल के खेत पर मचान में रात बिताई थी, वह बालक भी नहीं है। उसकी बीमारी में मौत हुई। कितने ही लोग उस जमाने के अब नहीं है। सम्मर सिंह ने बताया सूरदास का झोपड़ा कुछ आगे था जहां अब भी खाली जगह पड़ी है। उनके पोते दुलार और अधार ने भी बरसों पहले रोरीघाट छोड़ दिया। वे चाटुआचांदकाल गांव में बस गए। उस परिवार का अब कोई भी यहां नहीं है। कैलाश का जवान बेटा भी बीमारी में चल बसा। 15 दिन पचमढ़ी के अस्पताल में भर्ती भी रहा। कैलाश को पता ही नहीं है कि किस बीमारी से उसकी मौत हुई।
         श्यामलाल दादा की भी मौत हो गई। मेरी याददाश्त में श्यामलाल वह नौजवान है जिसने उस साल जंगल से सबसे ज्यादा रामबुहारी तोड़ी थी। उस नौजवान को ही आज की पीढ़ी श्याम दादा कहा रह रही थी। उनकी बेटी सरस्वती से मुलाकात हुई। सरस्वती सातवीं में पचमढ़ी छात्रावास मे रहकर पढ़़ाई करती है। वह श्यामलाल के बड़े बेटे रामप्रकाश के साथ रहती है। उनके तीन बेटे हैं। देखने-सुनने में बीमारियों से मौतों की बात सामने आ रही है। श्याम दादा की मौत टीबी से हो चुकी है। सुनने में आया है कि गांव में टीबी के दो-चार मरीज हैं लेकिन न वे जागरूक हैं और न व्यवस्था ही संवेदनशील है। 
          और फिर आए कुंजीलाल। वे मुझे पहचान गए। जब बात चली तो उन्हें बहुत कुछ याद आ गया। उन्हें सूरदास के घर में चलने वाले स्कूल की याद थी। तब हुआ यह था कि होशंगाबाद के जिला शिक्षा अधिकारी बशीर साहब ने कुंजीलाल से कहा था वह गांव के बच्चों को पढ़ाए उसे पक्का कर देंगे। कुछ महीने सूरदास के झोपड़े में स्कूल चला। बाद में साहब ने कुछ नहीं किया और कुंजीलाल ने पढ़ाना छोड दिया। कुंजीलाल ने बताया कि कितने ही लोग बीमारी और हादसों में चल बसे। गांव वालों की जिंदगी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। खेती वैसे ही कमजोर है। मजदूरी, मेला और वन उपज का ही सहारा है। खुद कुंजीलाल शिक्षक तो नहीं बन पाए पर वन विभाग के वाचर बन गए हैं। 
कुंजीलाल 

उनका बेटा सुखलाल भी वाचर है, लेकिन ऐसी किस्मत सबकी नहीं है। ज्यादातर लोग वैसे ही मशक्कत कर रहे हैं। वन विभाग के लोगेां की धौंस जारी है। उन्हें कुछ दिए बिना झोपड़े की मरम्मत तक नहीं कर सकते।
         तभी चतर सिंह पर नजर पड़ी। मैं उसे फौरन पहचान गया। उसका चेहरा परिपक्व हो गया था लेकिन उसमें बचपन के चतर सिंह की झलक थी। उसे मेरी कुछ भी याद नहीं थी। वह उस समय दस साल का रहा होगा। आज 38-39 साल का होगा। मैंने उसे डायरी का वह हिस्सा पढ़कर सुनाया जिसमें उसके साथ मेरी बातचीत दर्ज थी। अफसोस, उसे कुछ भी याद नहीं आया। लेकिन इससे मेरे रोमांच पर फर्क नहीं पड़ा। मैं जवान चतर सिंह से मिलकर सचमुच बहुत उत्साहित था। चतर सिंह के दो बच्चे हैं।

पुरानी डायरी में चतर सिंह

चतर सिंह

‘मैं चतर सिंह के यहां आकर बैठ गया। चतर सिंह 10-12 साल का लड़का है। घर में अकेला आग के पास बैठा था। घर के अन्य सदस्य जंगल में कुटकी की कटाई के कारण वहीं हैं। चतर सिंह सड़क निर्माण कार्य में मजदूरी करने जाता है। वह बहुत मासूमियत के साथ ठहर-ठहर कर बात करता है। उसकी बातचीत में नयापन और गहरी निश्छलता होती है। उसने पूछा तुम्हारा कितना काम हो गया, कितना रह गया है। इसके बाद कहां जाओगे। मैंने उसे सब बताया। उसने कहा हां पिपरिया और बनखेड़ी का नाम सुना है पर उधर गया नहीं।  
                                                                                24 नवम्बर, 1981

         दो-तीन घर आगे ही गनपत सिंह का मकान है। हम उनसे भी मिले। गनपत सिंह, 60-65 के बीच की उम्र के हैं। उनका पुत्र संपत सिंह गांव का सरपंच है। पचमढ़ी में रहता है। एक पुत्र की हाल ही में मौत हो गई। वह रेंजर के यहां घरेलू नौकर था। तबादले के बाद रेंजर उसे साथ ले गए, छोड़ नहीं रहे थे। फिर एक दिन उसकी आत्महत्या की खबर आई। संपत का कहना है कि यह आत्महत्या नहीं है। मामले की जांच होनी चाहिए। एक अखबार में उसका बयान भी प्रमुखता से छपा है। गनपत सिंह झ्स मुद्दे पर बात करना नहीं चाहते। वे उदास निगाहों से सतपुड़ा के पहाड़ों को निहारते हैं। फिर उदास लहजे मंे कहते हैं ‘क्या करें, पड़े हैं इस गड्ढे में।’ पहाड़ों से घिरे होने के कारण उन्होंने रोरीघाट को गड्ढे की उपमा दी और यह भी उजागर कर दिया कि यहां मौके नहीं हैं। उन्होंने बताया कि लोग तो यहां से जाना चाहते हैं लेकिन सरकार कुछ करती ही नहीं। यहां क्या है? सिर्फ मेहनत, मशक्कत और अभाव। रोरीघाट में पानी और लाइट के आने को उन्होंने कोई खास तवज्जो नहीं दी। 
          हम उनके घर के पीछे आंगन में बैठे थे। उसके सामने ही सतपुड़ा के पहाड़ हैं। गनपत दादा की उदासी टूट नहीं पाती हैं। यह शायद पूरे रोरीघाट की उदासी भी है। जंगल से निकलने के लिए नौजवानो के सामने वन विभाग की चैकीदारी की नौकरी या बड़े अधिकारियों के घर काम करने का ही रास्ता बचता है। गांव के दो-तीन युवक अब भी पचमढ़ी में अफसरों के घर काम कर रहे हैं। गनपत सिंह के बेटे की मौत के पीछे भी कोई कहानी है, लेकिन उस तक पहुंचना इतना आसान नहीं है।
          यह हैरत की बात है कि बहुत कम लोग ही लोग ही यहां से निकल पाए हैं। 30 साल पहले एक भी बच्चा पचमढ़ी या मटकुली में नहीं पढ़ता था। आज चार बच्चे मटकुली और दो पढ़मढ़ी में पढ़ रहे है। पहले पचमढ़ी से नीचे उतरने वाले इक्का दुक्का ही थे। रेलगाड़ी देखने और उसमें बैठने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे। आज यह संख्या बढ़ी हैं। कुंजीलाल बेटे के साथ पोते को डाॅक्टर को दिखाने के लिए बाइक से पिपरिया गए थे। तब भी यह हैरत की बात है कि गांव की आधी आबादी आज भी पचमढ़ी से नीचे नहीं उतरी है।
          रात को सोलर लाइट का महत्व समझ में आता है। महुआ ढाना में हम गजराज सिंह के झोपड़े के सामने आंगन में बैठे थे। मोहल्ले के कई लोग जमा हो गए थे। चंद कदम दूर ही स्ट्रीट लाइट जल रही थी। उसकी रोशनी आंगन के एक हिस्से पर पड़ रही थी। लोगों ने माना इससे सहूलियत हो गई है। सम्मर सिंह के झोपड़ी में एक बल्व जल रहा था। करीब साढ़े ग्यारह बजे तक वह जला। इसके बाद चिमनी से काम लेना पड़ा। लोगो ंकी छतों पर रखे सोलर लाइट के पैनल दूर से चमकते हैं।
            स्कूल और आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों के चेहरों पर मुसकान है। वे कम बोलते हैं पर हमेशा खिले रहते हैं। दो बच्चों के हाथ में तीन कमान थे। इसे उन्होंने सफाई से बनाया था। थोड़ी देर निशानेबाजी का खेल भी चला। कम बच्चे ही अपने अनुभव लिख पाए, लेकिन छोटे बच्चों ने बहुत मौज ली। स्कूल और आंगनबाड़ी ने बच्चों की जिंदगी पर असर डाला है। यह दिखाई देता है, लेकिन प्राइमरी के बाद सब कुछ बदल जाता है। सिर्फ दो-चार फीसद बच्चे ही आगे पढ़ने पचमढ़ी या मटकुली जा पाते हैं। 90-95 फीसद बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। इस स्कूल को आठवीं तक करने की मांग हो रही है। आदिवासियों को उम्मीद है कि इस साल यह आठवीं तक हो जाएगा। उसके
 बाद पचमढ़ी में इन बच्चों के लिए अलग से इंतजाम किए जाने चाहिए। कई बच्चे इकट्ठे हो गए। आंगनबाड़ी और स्कूल वाले बच्चों ने थोड़ी देर के लिए माहौल को खुशगवार बना दिया था। छोटे बच्चों के खिले चेहरे और कुछ बड़े बच्चों के जुझारूपन से रोरीधाट अब भी चमक रहा है। इस नये रोरीघाट की ताकत भी यही हैं। कई चिंताएं भी हैं मगर इनके हौसले बुलंद हैं।

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