Tuesday, June 24, 2014

देर से ही सही पर सुमरनी में वापसी अपनी ताजा ग़ज़ल से

खुदाया जिंदगानी क्या
मिरे होने के मानी क्या

क्यों दुनिया में हम आए
है किस्सा कहानी क्या

है दिल का धड़कना भी
कोई धुन पुरानी क्या

हयात ओ क़जा है खेल
इसमें मेहरबानी क्या

कातिल जान ही लेगा
उसकी मेजबानी क्या

मकसद है न महबूबा
करे जोश ए जवानी क्या

हम गूंगे हैं जन्मों के
कहेंगे मुंहजुबानी क्या

शजर गुजरे दिनांे का हूं
मिलेगा खाद-पानी क्या


घुप्प अंधेरे में जैसे चिमनी काम करती है वैसे ही कभी-कभी लफ़्ज भी करते हैं। चंद अशआर आपस में मिल कर ऐसा ताना बाना बुन लेते हैं कि मन खुश हो जाता है। कितनी मामूली खुशी है यह, लेकिन इतनी कीमती कि मुुफलिसी भी शर्मा जाए।

नरेंद्र कुमार मौर्य

Sunday, September 8, 2013

बंधु, अब तो अंखियें खोलो



(1)
बंधु, संत नहीं वह संता
बापू, बाबा, गुरू बनाकर भक्त हुआ है अंधा
ढोंगी संत कहावे संता, कई उनके गोरखधंधे
अंधियारे में रख भक्तों को उचकाएं बस कंधे
कथा सुनाएं, नाचे-गाएं, थिरकत हैं बेढंगे
जाने कितने हो गए बंधु बीच बजरिया नंगे
तंत्र मंत्र और भूत भगाने की हैं बातें कोरी
भरमाए सब भक्तों को, बकबक करे अघोरी
राम को नाम रखे से होए न कोई अवतारी
पोंगा पंडित न कर पाए देर तलक मक्कारी

(2)
बंधु, कैसे गुरूघंटाल
भक्त बिचारे चना चबाएं और वे रगड़ें माल
राम नाम की लूट कहें और बन जाएं लुटेरे
बात करें उजियारों की और भर जाएं अंधेरे
गुरू दीक्षा उसे मिलेगी जो चुकाएगा दाम
पैसा दो तो ठुमक के गाएं जै जै सीताराम
खूब खुपडि़या में मलता है जैसे गंजा तेल
बाबाजी भी खूब चलाएं धरम करम की रेल
भजन-कीर्तन, कथा-प्रवचन ऐसी रेलमपेल
बुड्ढा ऐसे मटके जैसे हवा में झूमत बेल

(3)
बंधु, संता कहे ऊ ला ला
भक्तिन के जो गले पड़ी है वह फेरेंगे माला
भक्त हैं सारे सेवक उसके भक्तिन हैं मधुबाला
खुद बन जाए कृष्ण कंहैया रास रचाए आला
संता कहते सुनो गोपियो ओ मेरी चितचोर
घोर बुढ़ौती में भी काया कहवे है वन्स मोर
गुरू बनाया है तो सौंपो जल्दी अपनी देह
गुरू अगर संतृप्त हुआ तो बरसेगा फिर नेह
बाबाजी के भोग विलास को कुटिया है तैयार
हुश्न को लेकर हाजिर होगा जल्दी सेवादार

(4)
बंधु, राम मिले न आशा
भक्त बिचारे भौचक ठाड़े, छाई घोर निराशा
गुरू बनाया था जिसको वो निकला व्यभिचारी
इक नाबालिग पर ही बुड्ढा चला़ गया है आरी
चाय पिलाने वाला कैसे बन बैठा गुरू ज्ञानी
सत्संग की आड़ में उसकी छिपी नहीं शैतानी
गुरुकुल को भी बाबाजी ने बना दिया है मंडी
मुश्किल में हैं मोड़ा-मोड़ी और हंसे पाखंडी
आखिर एक बहादुर बच्ची ने कर दिया खुलासा
सत्संग के नाम पे होता था हर रोज तमाशा

(5)
बंधु, समझो बाबागीरी
उसका भाई बड़ा बलशाली, नाम है दादागीरी
नेता-अफसर चाकर उसके, राजनीति है खेला
दौलत, शोहरत, अय्याशी का रोज लगाए मेला
भूमि हड़पी, दौलत हड़पी, बन गए कारोबारी
खूब कमाई के ढेरों धंधे,, बाबा है व्यापारी
गाल बजाए, नाचे-खाए, भक्तों को लतियाय
ऐसा कपटी बाबा है ये, खुदई गया बौराय
कब तक ऐसे लंपट बाबा को चुकाओगे दाम
उसके मन में हैं ढकोसले, मुट्ठी में न राम

(6)
बंधु, छोड़ो अंधविश्वास
तंत्र मंत्र ओ जादू टोना के मत बनियो दास
झाड़ा फूंकी, अटरम सटरम और गंडा तावीज
इनसे कोई बला टले न, भगवन जाएं खीज
जैसी करमगति है वैसा ही पाओगे फल
आज करोगे जैसा भी तुम वैसा होगा कल
एैरे गैरे को गुरु बना न होगी कम मुश्किल
खुद पर कर विश्वास तभी मिल पाएगी मंजिल
बाबाओं के चक्कर में जीवन हो जाए झंड
मन में है भगवान तो काहे कीजे फिर पाखंड


 नरेंद्र कुमार मौर्य

Monday, June 24, 2013

उत्तराखंड त्रासदी के मायने

उत्तराखंड की त्रासदी को सभी नेता और अफसर प्राकृतिक आपदा बताते नहीं थक रहे हैं, लेकिन यह सच सभी जानते हैं कि अगर कथित विकास के चलते पहाड़ को खोखला नहीं किया होता तो यह त्रासदी इतनी भयानक नहीं होती। आपको याद होगा भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री निशंक को घोटालों के आरोपों के बाद हटा दिया था। उन पर खनन माफिया से गठजोड़ के आरोप थे और बात अरबों रुपए के घोटाले की थी।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार काबीना मंत्री जयराम रमेश को इसलिए लताड़ लगाई थी कि वे पर्यावरण के नाम पर कई विकास योजनाओं को स्वीकृति नहीं दे रहे थे। तब मनमोहन सिंह ने कहा था कि ऐसे में तो विकास रुक जाएगा। उन विकास योजनाओं में से कई उत्तराखंड की भी थी। जिन्हें बाद में भाजपा सरकार ने भी हाथोंहाथ लिया। इस आपदा में करीब 50 हजार से लेकर एक लाख लोगों के मरने के कयास लगाए जा रहे हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ा हजार तक भी नहीं पहुंच रहा है। जब तक हमारे नुमाइंदे सच्चाई को स्वीकार नहीं करते और उन कारणों को नहीं समझते जो त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं, तब तक आप ऐसे हादसों को झेलने के लिए तैयार रहिए।
संकट की घड़ी में भी लोग कमाने से नहीं चूके। पांच सौ रुपए का एक प्लेट चावल था। 180 रुपए की एक रोटी बिकी। पांच सौ रुपए वाले कमरे के तीन हजार रुपए वसूले गए। लूट की घटनाएं भी कम नहीं हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जब स्थानीय लोगों ने फंसे हुए लोगों को खाना खिलाया और उनकी जिंदगी बचाई। सेना के जवान भी शानदार काम कर रहे हैं। ऐसे संकटमोचक जांबाजों को सलाम, लेकिन जो घडि़याली आंसू बहाकर धंधा बढ़ाने की फिराक में हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
उत्तराखंड में करीब 60 गांव बह गए हैं। केदारनाथ में 90 धर्मशालाएं भी बह गईं। इस आपदा ने हमारे विकास पुरुषों के लिए रास्ता साफ कर दिया है। अब तो उस खाली जमीन का कोई माई-बाप भी नहीं रह गया है। उस पर अब नेता, नौकरशाह और बिल्डर विकास की इमारत खड़ी करेंगे। आखिर उत्तराखंड को इस आपदा से उबारना भी तो है।

दुख में दोहे

खेल ये कुदरत का नहीं, इंसानी करतूत
मोहना तेरे विकास का ये है असली रूप

पीटे ढोल विकास का, खोदे रोज पहाड़
कुदरत भी कितना सहे, तेरा ये खिलवाड़़

बड़ी मशीनें देखकर, रोये खूब पहाड़
कैसे झेलेगा भला जब आएगी बाढ़

खनन माफिया से हुआ सत्ता का गठजोड़
पैसा खूब कमाएंगे, धरती का दिल तोड़

खंड खंड बहता रहा हाय उत्तराखंड
मलबा बन गई जिंदगी, रुका नहीं पाखंड

आपदा राहत कोष से, होंगे कई अमीर
जनता बिन राहत मरे, वे खाएंगे खीर

धरम करम के चोचले, दान पुण्य भी खूब
भक्त बचे कैसे भला, खुद भगवन गए डूब

गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन
बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन

नरेंद्र कुमार मौर्य

Saturday, March 30, 2013

बाजार की भेंट चढे़ दो स्कूल

       जयप्रकाश शाला और कस्तूरबा कन्या शाला को अपनी जगह खाली करनी पड़ रही है। जिस जगह दोनों स्कूल चल रहे थे वह बाजार के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। वहां अब नगरपालिका बेसमेंट में पार्किंग और ऊपर शापिंग काम्पलेक्स का निर्माण करवाएगी। इससे नगरपालिका की आमदनी बढे़गी और कस्बे को एक खूबसूरत बाजार मिलेगा। शहर के व्यापारियों का भी भला होगा और कस्बे के विकास में भी चार चांद लग जाएंगे। और इन दो स्कूलों के बारे में कोर्इ सोचे भी क्यों? सबके बच्चे तो पबिलक स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इन दोनों स्कूलों में छात्र या छात्राओं की संख्या 20-25 ही रह गर्इ है। जाहिर है इनमें गरीबों से भी गरीब और कमजोरों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं। भला कमजोरों की फिक्र आजकल कौन करता है?
       बेचारे दोनों प्राइमरी स्कूल, कस्बे के बीच में बसने की सजा पा रहे हैं। हालांकि उस समय आबादी कम थी और सोचा यह गया था कि छोटे बच्चों का स्कूल कस्बे के बीच में ही होना चाहिए ताकि घर से उनकी दूरी ज्यादा न हो। जमाना बदलते ही कल की सहूलियत आज भारी पड़ने लगी। दोनों स्कूल चारों तरफ दुकानों से घिर गए थे। स्कूल के सामने की पतली गली में कर्इ दुकानों के दरवाजे खुलते हैं। गुजरे जमाने में इतनी दुकाने नहीं थीं। तब गली में नन्हे मुन्नों की भीड़ ही दिखती थी। वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। अब ये दोनों स्कूल मोहता प्लाट में शिफ्ट हो जाएंगे। जाहिर है इनमें अब पुराने दिनों जैसी चमक नहीं होगी। दोनों स्कूलों में बच्चे घटने से नगरपालिका निशिंचत है। मामूली सुविधाएं और तंग जगह में भी कमजोरों के बच्चे पढ़ सकते हैं।

और यह हैं हम
          ये दोनों स्कूल सटे हुए थे। पहले जयप्रकाश शाला और उसकी दीवार से सटी कस्तूरबा कन्या शाला। मेरा इन दोनों स्कूलों से गहरा नाता रहा है। जयप्रकाश शाला में पांचवीं तक पढ़़े हैं और कस्तूरबा कन्या शाला में अम्मा शिक्षिका थीं इसलिए वहां भी खूब आना-जाना होता था। पहली-दूसरी में तो साथी लड़कियों के साथ खेले-कूदे भी हैं। अम्मा की साथी बहनजियों से भी बहुत स्नेह मिला। उन दिनों दोनों स्कूलों में बच्चों की भीड़ होती थी। कस्बे में प्राइमरी स्कूल तो सात-आठ थे लेकिन इन दोनों स्कूलों की बात ही कुछ और थी। ये घर के निकट थे और सबसे सम्मानित स्कूल माने जाते थे। स्कूल के बाहर पतली गली में लबदो, बेर, गोल मिठार्इ लेकर दुकानदार बैठते थे। मूंछ वाले शंकर की गोल मिठार्इ प्रसिद्ध थी। वह आवाज भी जोरदार लगाता था, गो...ल...मिठार्इ.....। यहीं लक्ष्मी सोनी की मां लबदो की टोकनी लेकर बैठती थीं। बाद में जयप्रकाश शाला के एक हिस्से में अशोक प्राथमिक शाला भी कुछ साल तक चली। इस स्कूल में राजा और रंक दोनों के बच्चे पढ़ते थे। कस्बे के धन्ना सेठों के बच्चों के साथ फुटपाथी दुकानदार या मजदूरों के बच्चों की भी दोस्ती हुआ करती थी। खेलकूद या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सब मिलजुलकर हिस्सा लेते थे।
       मैंने अपने जीवन का पहला नाटक जयप्रकाश शाला में ही किया था। शायद पांचवीं कक्षा में, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान। कहानी तो याद नहीं लेकिन उसमें मैंने कम्पाउंडर का रोल किया था। डाक्टर गोपाल मालपानी बना था और दो मरीज बने थे वेणुगोपाल काबरा और मधुसूदन काबरा। इसके वर्षों बाद किशोर भारती में शम्शुल इस्लाम और नीलिमा शर्मा ने हमें नुक्कड़ नाटक का प्रशिक्षण दिया। इस दौरान तीन नाटक तैयार किए गए। इन नाटकों का प्रदर्शन भी जयप्रकाश शाला के परिसर में ही किया गया था। भगतसिंह नाटक में ओमप्रकाश रावल के बेटे असीम ने भगत सिंह का रोल किया था। पिपरिया से इन नाटकों में किशन व्यास, मुकेश पुरोहित, श्रीगोपाल, लक्ष्मी सोनी और कुछ होशंगाबाद के साथियों ने भी भूमिका निभार्इ थी। इसके बाद भगतसिंह पुस्तकालय की कुछ पोस्टर प्रदर्शनियां और कार्यक्रम भी इस शाला में हुए।
       जयप्रकाश शाला की पहली मंजिल पर कभी एक बड़ा हाल था जिसमें जनता वाचनालय चलता था। पिछले साल दीवाली पर जनता वाचनालय में किसी पटाखे से आग लग गर्इ। जनता वाचनालय का पुराना रिकार्ड और किताबें राख हो गर्इं। उसके बाद से जयप्रकाश शाला के एक कमरे में जनता वाचनालय चल रहा था। अब जनता वाचनालय का क्या होगा, खबर नहीं है। जनता वाचनालय 1965 के आसपास क्षेत्र के समाजवादी नेता और नगरपालिका अध्यक्ष जग्गू उस्ताद ने शुरू करवाया था। जनता वाचनालय सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए भी दिया जाता था, इसलिए भगत सिंह पुस्तकालय की कर्इ विचार गोषिठयां और कार्यक्रम वहां हुए। पुस्तकालय की शुरुआत के पहले दिन शाम को आयोजित विचार गोष्ठी जनता वाचनालय में ही हुर्इ थी जिसे नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंæ माथुर ने संबोधित किया था। इसके बाद विजय बहादुर सिंह, चंडीप्रसाद भटट, अदम गोंडवी, हरजीत, एमपी परमेश्वरम, विनोद रैना, दीनानाथ मनोहर, माइज रस्सीवाला आदि कर्इ विद्धानों ने यहां जनता को संबोधित किया था। यहीं समता युवजन सभा और समता संगठन की सभाएं भी हुर्इं। रामजन्म भूमि के मुददे पर यहां आयोजित किशन पटनायक की सभा में कटटरपंथियों ने हमला कर दिया था। 
       नए जमाने के बच्चों का इन दोनों स्कूलों से कोर्इ लेना देना नहीं है, लेकिन हम जैसे पुराने लोगों की स्मृति में ये हमेशा रहेंगे। पहली बार स्लेट पर मिटटी वाली कलम से लिखना और क ख ग घ से लेकर हिज्जे करके हिन्दी पढ़ना। नीचे टाट की फटिटयों पर बैठना और खूब धमाचौकड़ी मचाना भला कैसे भूला जा सकता है? 
पीछे बोर्ड बेशक अशोक प्राथमिक शाला का है लेकिन यह जयप्रकाश शाला के दूसरी कक्षा के बच्चों का ग्रुप फोटो है। इसमें शिक्षक हरिशंकर अग्रवाल और उनके साथ खड़े हैं अशोक तोषनीवाल। इस तस्वीर में पिपरिया की कर्इ नामी हसितयां हैं वेणुगोपाल काबरा, मधुसूदन काबरा, गोपाल मालपानी, गोविंद वल्लभ, सुरेश गुप्ता, मोहन, केशव, मनोहर और कर्इ नाम तो मैं भी भूल गया। यह तस्वीर संभवत: 1966-67 की होगी।


Friday, March 15, 2013

दादू ...दादू...दादू

हम पर भी जंचती है दादू की टोपी
दादू उठो, गौरव आ गया न
दादू समझा करो न।
सुबह निहायत ही मीठी आवाज के साथ मेरी नींद खुलती है। वह नन्हा फरिश्ता जोर से आवाज लगाता है दादू...दादू... दादू....। कभी मेरी नींद खुल गई तो मैं दरवाजा खोल देता हूं या उसके चाचू या आंटी दरवाजा खोल देती हैं। वह सीधे मेरे दीवान के बगल में रखी कुर्सी पर बैठता है और फिर कहता है दादू गौरव आ गया। उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही नींद गायब हो जाती है।
मोबाइल पर खेल, अमल चाचू के साथ
उस नन्हे चेहरे पर फूल सी मुसकान और आवाज में ऐसा मीठा जादू कि वक्त भी ठहर कर सुनने को मजबूर हो जाए। वह लगातार बोलता है। मुसकान शरारत की तरह उसकी आंखों से झांकती रहती है। वह फिर सुर लगाता है जूता उतार दो न। वह मेरे बिस्तर पर आना चाहता है। दूसरी तरफ एक खिड़की है। वह खिड़की के पास खड़ा होता है और खुशी से चहकता है दादू कबूतर आ गया। कई बार मैं गहरी नींद में होता हूं और वह मेरी सवारी करता हुआ मुझे जगाता है ‘दादू गौरव आ गया न।’
अबीर चाचू के साथ मस्ती
कुछ हमको भी तो बताओ दादू
ढाई साल का यह बच्चा जैसे सचमुच मेरा पोता बन गया है। मेरे घर का नया सदस्य। वह पूरे अधिकार के साथ बात करता है। और मुझे तो वह नन्हे फरिश्ते की तरह लगता है। उसके लिए वह सब कुछ करने को मन करता है जिससे उसकी आंखों की चमक बढ़ जाए। उसकी बातें परीलोक जैसी लगती है। लगता है वह बोलता रहे और हम सुनते रहें। मजे की बात यह है कि वह इस बात को जानता है  इसलिए लगातार बतियाते रहता है। उस वक्त मुझे लगता है मैं कुदरत का सबसे मीठा गीत सुन रहा हूं। जीवन का यह संगीत मुझे दूसरी ही दुनिया में ले जाता है।
आंटी ने बांध दी चोटी
यह नन्हा फरिश्ता मेरे सामने वाले फ्लैट में रहता है। उसका नाम गौरव है। वह अभी कुल ढाई साल का है। उसकी आवाज में गजब की मिठास है। वह धीरे धीरे कुछ तुतलाकर कुछ साफ मगर पूरे मनोयोग से बात करता है। मेरी पत्नी को वह आंटी कहता है। मेरे बेटे उसके अबीर चाचू और अमल चाचू हैं। वह अपना नाम बताता है ‘गौरव मिचला (मिश्रा) पापा का नाम धर्मवीर मिचला और मम्मी का नाम आरती मिचला।
उसकी दादी गांव में रहती है। उसकी मम्मी का कहना है कि गौरव के दादू नहीं है, लेकिन उसे दादू का प्यार मिलना था इसलिए अंकल मिल गए। ये लोग मिथिलांचल, बिहार के हैं। मां मधुबनी की और पिता सीतामढ़ी के। घर में गौरव से मम्मी-पापा मैथिली में बात करते हैं और दादू के यहां सब हिन्दी में बात करते हैं। अब गौरव बातचीत में मैथिली और हिन्दी दोनों का इस्तेमाल करता है। आंटी ने उसे मछली रानी और मुर्गी मां वाले दो गीत याद करवा दिए हैं। वह दोनों गीत इतने दिलकश अंदाज से सुनाता है कि आप निहाल हो जाएं। उसका डांस भी उतना ही दिलकश होता है। कई बार वह मुझे अपने दोनों बेटों का बचपन याद दिला देता है।
आप भी अखबार पढ़ो दादू और हम भी पढ़ेंगे 






Sunday, February 10, 2013

यारब तराना हराम कैसे

कश्मीर में गीत-संगीत के खिलाफ एक मुफ्ती के फतवे का विरोध
और लड़कियों के प्रगाश बैंड के समर्थन में खुदा के बंदों से सवाल


गाना बजाना हराम कैसे
यारब तराना हराम कैसे

दिल को मेरे सुकून आए
तो गुनगुनाना हराम कैसे
 
दिल दुखाना गुनाह बेशक
पर गीत गाना हराम कैसे

कव्वाली, ठुमरी, राई, राक
ये सब खजाना हराम कैसे

मौसि़की है खुदा की नेमत
तो सुर सजाना हराम कैसे

मंजूर दिल की धड़कनें तो
ठुमके लगाना हराम कैसे

साज ए दिल भी पूछता है
धुनें बनाना हराम कैसे

हराम हो बेबस को नचाना
खुद नाच गाना हराम कैसे

गाल बजाना जायज है तो
ढोल बजाना हराम कैसे

आंखें चुराना ग़लत यकीनन
नजरें मिलाना हराम कैसे

कदमों की फितरत थिरकना
फिर चहचहाना हराम कैसे

 

Sunday, December 30, 2012

दर्द के दोहे

दिसम्बर जाते जाते बहुत जख्म दे गया। नए साल का स्वागत करने के लिए मेरे पास सिर्फ दर्द के दोहे ही हैं। जुल्म की शिकार उस अनाम लड़की को हम दर्द के सिवा कुछ नहीं दे पाए। क्या वक्त हमें माफ कर पाएगा?

फिर वहशत के सामने टूट गई उम्मीद
देश जगाकर सो गई बिटिया गहरी नींद

देह में गहरे घाव थे, दिल था लहूलुहान
हैवानों से जूझती, कब तक नाजुक जान

अबके दब पाई नहीं, उस लड़की की आह
जुल्म के नंगे नाच का, सड़कें बनी गवाह

वह लड़की बेनाम सी, बन गई बड़ी मिसाल
सड़क पे उतरे लोग फिर गुस्से में हो लाल

दिल में सबके आग थी, आंखें थीं अंगार
औरत क्यों सहती रहे, मर्द के अत्याचार

खूब बढ़ी ये गंदगी, कर न पाए साफ
हम भी हैं दोषी बड़े, बिटिया करना माफ

इनको कैसे झेलता यह सारा संसार
इन नामर्दांे के लिए औरत सिर्फ शिकार

मानवता को नोंचते, जुल्मी के नाखून
बस डंडा फटकारता, नपुंसक कानून

सबको आजादी मिली, इतना रहा मलाल
औरत कब आजाद हुई, भारत मां बेहाल

शोकाकुल हैं लोग सब, सदमे में है देश
जाते जाते दे गई सबको बिटिया संदेश

दुनिया सुंदर है बहुत, वहशी आंखें खोल
हमला मत कर किसी पर आजादी अनमोल

 

Wednesday, December 12, 2012

घनघोर तरक्की

महंगाई की बन गई है सिरमोर तरक्की
क्या खूब हुई देश की घनघोर तरक्की

शातिरों ने पैसे को पावर में जो बदला
क्या हो गई है और सीनाजोर तरक्की

आगे जो बढ़ना है तो फिर दाम चुकाओ
जाने कहां ले जाएगी घुसखोर तरक्की

घर गया, जमीन गई, गांव भी गया
सुख चैन तक तो ले उड़ी ये चोर तरक्की

कुछ हुए अमीर, कई हो गए कंगाल
कितनों को भरमाये है चितचोर तरक्की

अफसर अगर चाटेंगे चापलूसी की चटनी
पा जाएंगे जल्दी ही चुगलखोर तरक्की

कुछ लोग है विकास की ही चाशनी में तर
गंावों के किनारे खड़ी कमजोर तरक्की

न जाने कभी आएगा क्या ऐसा जमाना
उस ओर तरक्की हो तो इस ओर तरक्की

Monday, November 19, 2012

कौन बुरा है, अच्छा कौन

कौन बुरा है, अच्छा कौन
अपनी धुन का पक्का कौन

दुनिया इक बाजार है प्यारे
सब महंगे हैं, सस्ता कौन

आंखों पर जो पड़ा हुआ है
यार हटाए पर्दा कौन

सारी जनता को मालूम है
नेता और उचक्का कौन

हम झूठों की नगरी में ही
खोज रहे हैं सच्चा कौन

जिसने थामा, याद रहा
मगर दे गया धक्का कौन
सुनने वाले कबके सो गए
और सुनाए किस्सा कौन

शहर में जा अंकल बन बैठे
भूले गांव का कक्का कौन

रंगी सियासत सब जाने है
कौन मशीन है, पुर्जा कौन

कौन उठाता है दीवारें
और बनाए रस्ता कौन

साबित तो करना ही होगा
कौन है जि़न्दा, मुर्दा कौन

Thursday, October 18, 2012

कतरा कतरा जिंदगी लगे

इन दिनों सिर्फ दर्द का दरिया ही है। डुबकी लगाते रहिए या डूब कर मर जाइए। बीते दिनों बहुत कुछ लिखा गया, यात्राएं हुईं,  मगर इस दिल को तसल्ली न हुई। दर्द कुछ ऐसे बयान होता है -

कतरा कतरा जिंदगी लगे
दर्द की तन्हा नदी लगे

मेहमान बनके आई है खुशी
और उधार की हंसी लगे

अपने से लगें ये अंधेरे
क्यों पराई रोशनी लगे

ढह गए यकीन के किले
दिलफरेब आशिकी लगे

है वही जमीन ओ आस्मां
बदला बदला आदमी लगे

झूठ और गवाह पर टिका
इंसाफ भी तेरा ठगी लगे

पीछा करना भी ख्वाब का
क्यों उन्हें आवारगी लगे

सहमा सहमा सा है ये समा
और उदास चांदनी लगे

तेरी रहनुमाई भी कमाल
रहबरी भी राहजनी लगे

झूठ बोलना गुनाह है
सच कहूं तो दिल्लगी लगे

मुझको देगा क्या खुदा पनाह
उसमें भी तो पैरवी लगे
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