एक बार पिपरिया रेलवे स्टेशन पर हरिशंकर परसाई दो रात और तीन दिन अटके रहे। बुक स्टाल वाले गौतम ने बताया कि गाड़ी रात ढाई बजे आती है, तब तक परसाईजी पीकर टुल्ल हो जाते हैं और गाड़ी छूट जाती है। गौतम तो परसाईजी से इतना घबराता था कि उन्हें देखते ही स्टाल छोड़कर भाग जाता था। असल में गौतम परसाईजी को पहचानता था। पहले ही दिन उन्हें बुक स्टाल में बैठाकर आवभगत की। परसाईजी वहां दो-तीन घंटे तक बैठे रहे और लगातार बतियाते रहे। इस बीच गौतम के बुक स्टाल पर धंधा ठप रहा।
एक शाम मैं अपने दोस्त नवल अग्रवाल के साथ रेलवे स्टेशन के गेस्ट हाउस में उनसे मिलने जा पहंुचा। परसाईजी बाथरूम में थे। मेज पर नोटबुक खुली थी जिसमें कुछ लाइनें लिखी थीं। बेड के पास एक स्टूल पर प्लेट में डबलरोटी के कुछ स्लाइस रखे थे। उसके पास कांच का गिलास गुलाबी रंग की शराब से भरा रखा था। यह देसी शराब दोबारा थी। मैं चकित रह गया, मुझे डबलरोटी और शराब का मेल समझ नहीं आया। थोड़ी देर में परसाईजी बाथरूम से बाहर निकले। कुछ थके हुए से लग रहे थे। उन्होंने हमें गौर से देखा। हमने अपना परिचय दिया कि हम उनके कितने बड़े प्रशंसक हैं। परसाईजी सुनते रहे और फिर बोले, प्रशंसक तो हो, पर तुम्हें यह ख्याल नहीं आया कि परसाई यहां भूखा होगा। उसके लिए कुछ खाने को ले चलें। परसाईजी ने हमारी जमकर क्लास ली। हम हड़बड़ा गए। हमें यह उम्मीद नहीं थी। हमने कहा, बताएं क्या लाना है, हम अभी ले आते हैं। परसाईजी फिर शुरू हो गए, क्या लगता है मैं कुछ अनोखा खाता हूं। अरे जो सब इंसान खाते हैं, वहीं मैं भी खाऊंगा। हम और नवल तुरंत निकले और एक ढाबे से सब्जी-रोटी लेकर वापस आए। परसाईजी ने दोने से सारी सब्जी खा ली। रोटियों को उन्होंने छुआ तक नहीं। फिर वे हमसे बिना कुछ कहे सो गए। हम और नवल अपने को कोसते हुए बाहर निकले कि पहले ही खाने का कुछ सामान लेकर आना था। यह 1980 से कुछ पहले की बात है। परसाईजी तीसरे दिन किसी तरह जबलपुर की ट्रेन पकड़ पाए।
इसके बाद हम परसाईजी से 1980 में मिले। उस साल हम प्रेमचंद की जन्म शताब्दी मनाना चाहते थे। इस मौके पर नवलेखन शिविर आयोजित करने की योजना थी। इसे लेकर पिछले कई माह से हम पूरे क्षेत्र का दौरा कर रहे थे और नवरचनाकारों से मुलाकात कर रहे थे। हमारे झोले में पहल, साक्षात्कार जैसी कई लघु पत्रिकाएं और साहित्यिक सामग्री होती थी। हम परसाईजी को शिविर में आमंत्रित करना चाहते थे। परसाईजी उन दिनों कुछ अस्वस्थ थे। उन्होंने विनम्रता से हमें मना कर दिया। हमने जबलपुर मे उनके घर पर ही उनसे मुलाकात की थी। इसके बाद तीसरी और अंतिम बार हम उनसे 1981 में जबलपुर में हुए प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में मिले थे। तब मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने मंच पर आकर उनका सम्मान किया था। परसाईजी के एक पैर में फैक्चर था इसलिए वे कुर्सी पर बैठे थे और अर्जुन सिंह ने खड़े होकर उनका सम्मान किया था। उन दिनों सुना था परसाईजी ने शराब से तौबा कर ली है।
1981 में जबलपुर में हुए प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में हम और बालेंद्र शरीक हुए थे। हमने कविताओं के करीब बीस पोस्टर बनाए थे। वे हमारे पढ़ाकू दिन थे। ज्ञानरंजन की दो किताबें हम पढ़ चुके थे। और सम्मेलन में जो स्टार कवि-लेखक आने वाले थे उनमें से ज्यादातर को हम पढ़ चुके थे या पढ़ रहे थे। हम बहुत रोमांचित थे। हम बिना टिकट जबलपुर गए और बिना टिकट ही आए, लेकिन उस दिन पिपरिया में फ्लाइंग स्काॅट की टीम थी इसलिए धर लिए गए। फिर राकेश जैन को फोन किया गया। वह खाना खाने बैठा ही था कि हमारा फोन आ गया और उसे स्टेशन आना पड़ा, तब कहीं हम छूटे।
सच तो यह है कि हमने उस सम्मेलन का पूरा आनंद लिया। सम्मेलन शुरू होने की पूर्व संध्या को हम जबलपुर के एक कालेज में बीच मैदान में बैठे थे। ज्ञानरंजन और दूसरे कार्यकर्ता मौजूद थे। कइ्र्र कवि-लेखक आ चुके थे। कुछ देर रात और कुछ तड़के आने वाले थे। कुछ इसी तरह की बातें हो रही थीं कि एक आदमी दौड़ता हुआ वहां आया। वह कुछ घबराया हुआ था। उसने कहा, राजथान भवन में (विभिन्न राज्यों के आगंतुकों को जिस कमरे में ठहरा गया था उसे उनके राज्य का नाम दे दिया गया था।) कुमार विकल ने दरवाजा बंद कर दिया है और न किसी को बाहर जाने दे रहे हैं और न सोने दे रहे हैं। उन्होंने सबको उठा दिया है और सबको अपनी कविताएं सुना रहे हैं। उन्होंने एलान कर दिया है कि सबको उनकी कविता सुनना पड़ेगा जो सोने या भागने की कोशिश करेगा उसकी खैर नहीं। मैं बहुत मुश्किल से भागकर आपको बताने आया हूं। सब बहुत परेशान हैं और घबराये हुए हैं। आखिर ज्ञानजी को वहां जाकर कुमार विकल को संभालना पड़ा था। दूसरे दिन सुबह हमने उन्हें कालेज के पास बने एक मिल्क बूथ में देखा। वे वहां सुबह से ही शुरू हो गए थे।
यहीं मैंने शमशेर बहादुर सिंह को अपनी कई गजलें सुनाई थीं। वे धैर्यपूवर्क सुनते रहे और मुझे उर्दू सीखने की सलाह दी। एक रात नागार्जुन को कविता सुनाने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने कई कविताएं सुनाई। इंदूजी इंदूजी वाली कविता तो पूरे हाव भाव के साथ नाचकर सुनाई। अमृत राय, एके हंगल, कामतानाथ, काशीनाथ सिंह और न जाने कितने राष्ट्रीय स्तर के कवि-लेखकों और कलाकारों को वहां देखने, सुनने और मिलने का मौका मिला। प्रवीण अटलूरी उस समय सीपीआई का बहुत जुझारू कार्यकर्ता था। सम्मेलन को सफल बनाने में उसकी टीम का बड़ा योगदान था। वह रूस की यात्रा भी कर आया था। उससे कई बरस बाद नोएडा में राष्ट्रीय सहारा के दफ्तर में अचानक मुलाकात हो गई थी। वह किसी से मिलने आया था। उस समय उसकी हालत बहुत खराब थी। मेरे लिए यह चैंकाने वाली बात थी। उस और इस प्रवीण अटलूरी में बहुत फर्क था। कहां वह जोश से भरा हुआ चहकता नौजवान और कहां केंटीन में मेरे साथ बैठा उदास और कमजोर व्यक्ति। उसके पास समय कम था इसलिए ज्यादा बात नहीं हो पाई। इस बात को भी जमाना बीत गया। अब पता नहीं वह कहां और किस हाल में है। लेकिन उस घटना से इतना तो साफ हो गया कि वामपंथी आंदोलन की टूट का असर स्थानीय कार्यकर्ताओं पर कितना गहरा होता है।
यह अच्छी बात है कि नरेन्द्र तुम बिलकुल अनौपचारिक ही हो। शायद इसी में बहुत से ऐसे पहलू सामने आते हैं जो औपचारिकता के आवरण में छुपे रह जाते हैं।
ReplyDeleteप्रिय नरेंद्र
ReplyDeleteतुम्हारा ब्लॉग आखिर शरू हो ही गया | बधाई मेरे दोस्त |
अपना शहर और अपना अतीत सबको अच्छा लगता है | मेरा
चश्मदीद गवाह के नाते पढ़कर रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है |
स्व .ललित अग्रवाल के निधन के कारण स्थगित हुए नवलेखन
शिविर के ज़माने से अब तक की सारी घटनाये चलचित्र की तरह
स्मृति पटल पर उभर रही है | खैर ..........|
रपटे वाली मछ्वासा और पुल वाली पासा अलग अलग नदी नहीं है
एक ही नदी के दो नाम है |आगे जाकर अजेरा के पास यह नदी कुब्जा के
नाम से नर्मदा में मिलती है |जिसे सरस्वती की साधना स्थली के रूप में
मान्यता मिल रही है | एक बार फिर से शुभकामनाये |
गोपाल राठी
सांडिया रोड, पिपरिया 461775
नरेंद्र भाई, जबलपुर के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में तुम्हारे और बालेंद्र के साथ मुझे भी शामिल होने का सौभाग्य मिला था| बाबा नागार्जुन का नाच-नाच कर कविता पाठ करना मेरे लिए अविस्मरणीय अनुभव था| ए के हन्गल की नाट्य संस्था "इप्टा" के प्रदर्शन के दौरान तुम्हारे हाथों पहली बार मधुर मुन्नकका का सेवन करने के बाद मेरी जो दुर्गति हुई थी वो मुझे हमेशा याद रहेगी...
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