वह एक उजली सुबह थी, जैसे नहा धोकर शहर तैयार हो। गली मोहल्लों से लेकर छोटे-बड़े घर साफ सुथरे और ताजा नजर आ रहे थे। सड़कों पर चहल पहल ज्यादा थी। जिस घर के सामने से गुजरे वहां चमकते हुए आंगन रंगोली के इंतजार में नजर आए। वह दिवाली की सुबह थी, बाकी दिनों से अलग। जैसे त्योहार के लिए उसने भी सफेद झक पोशाक पहन ली हो। मैं अपने छोटे बेटे अमल के साथ समय पर ही जबलपुर पहुंच गया था। यह पहला मौका था जब दिवाली के दिन मैं इस शहर में मौजूद था। बचपन से इस शहर से नाता है। यहां मेरा ननिहाल है और बाद यह मेरी ससुराल भी बना। यहां आने का कारण मेरी पत्नी आरती की छोटी बहन ज्योति है। उसका फोन आते ही आरती और हमारा बड़ा बेटा अबीर फौरन जबलपुर रवाना हो गए। हम आज पहंुचे।
ज्योति का घर दूर से आम घरों की तरह ही नजर आया। हालांकि उसमें वह चमक नहीं थी जो अन्य घरों में नजर आ रही थी, लेकिन बिना लिपा पुता घर भी जिंदा इंसानों की धमक से महक रहा था। मेरे सामने ही ज्योति के छोटे बेटे सोभित ने सामने वाली दीवार की पुताई की थी। ज्योति की शादी के बाद पिछले बीस बरस में मैें यहां कई बार आ चुका हूं। सिविल लाइंस के पास बसे इस कोने को गोविंद भवन कहा जाता है। यह ज्योति और राजकुमार का घर है। राजकुमार घासीराम विश्वविद्यालय बिलासपुर में नौकरी करता है। घर के बगल में ही एक पुरानी बावड़ी के खंडहर हैं। वह सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी तो होगी ही। घर में दाखिल होते ही एक बड़ा हाॅल है। उसके एक कोने मे ज्योति का बिस्तर है। वह बात करने की हालत में नहीं है। लगातार कराह रही है। दर्द उसे एक पल चैन नहीं लेने दे रहा है। उसने एक बार नजर उठाकर देखा जरूर, कुछ कहना चाहती थी लेकिन जुबान से शब्दों की जगह बस कराह ही निकली। बेबसी में उसने आंखें भींच लीं।
ज्योति स्तन कैंसर से जूझ रही है। पांच साल से भी ज्यादा समय हो गया, वह कैंसर से हार मानने को तैयार नहीं है। इतने बरस टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई में उसका इलाज चला। पांच साल पहले की बात है। आरती जबलपुर में थी। उसका फोन आया कि ज्योति के सीने में गांठ है। मैंने फौरन जांच की सलाह दी। जांच में कैंसर की पुष्टि हो जाने के बाद आरती उसे मुंबई ले गई। बरसों पहले उनके पिता उन्हें मुंबई घुमाने ले गए थे और इतने बरस बाद वह अपनी बहन का इलाज करवाने उसे मुंबई लाई थी। उसके बाद इलाज का लंबा दौर और कभी न खत्म होने वाले संघर्ष की शुरुआत। ज्योति ने हर कदम पर अदभुत साहस का परिचय दिया। उसके सीने में एक नली डालकर कमर के पास एक बोतल लटका दी गई थी। उसमें से बंूद बूंद काला रक्त टपकता था। ज्योति मुंबई की लोकल ट्रेन में भी वह बोतल संभाले सफर कर लेती थी। जब जरूरत बड़ी हो तो हर कदम पर संभल कर चलना पड़ता है। ज्योति ने कभी शिकायत नहीं की। उसने टाटा मेमोरियल में इलाज करवाने के दौरान एक एनजीओ के लिए सिलाई का काम भी किया है। वह जूझने को तैयार थी। बस उसे यह बात समझ में नहीं आती थी कि उसे स्तन कैंसर क्यों हो गया। आखिर वह ही क्यों?
कीमोथेरेपी का एक दौर खत्म हो चुका था। ज्योति को ठीक होने का भरोसा होने लगा। तभी कैंसर ने फिर करवट ली। कुछ गांठे निकल आईं। वह फिर मुंबई पहुंची। डाॅक्टर आपरेशन की तैयारी करने लगे, लेकिन तब तक गांठे दो से शायद चार-पांच हो गईं। डाॅक्टरों ने आपरेशन नहीं किया। कहा, अब हाईपावर कीमोथेरेपी करना पड़ेगा। उसका खर्च बहुत अधिक था। एक बार में 35 हजार रुपए। तभी दवा बनाने वाली एक अमेरिकन कंपनी आगे आई। उसने खर्च उठाने का जिम्मा लिया। फिर एक साल तक हाईपावर कीमोथेरेपी का दौर चला। कहते हैं हर शरीर हाईपावर कीमोथेरेपी बर्दाश्त नहीं सकता। उसके साइड इफेक्ट बहुत खतरनाक होते हैं। ज्योति का जिस्म भीतर और बाहर छालों से भर गया। नाखून गलकर उतरने लगे। एक दर्द से बचने के लिए दूसरे दर्द को अपनाने के सिवा कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था। ज्योति ने फिर भी हार नहीं मानी। वह उस अवस्था में भी घर के काम करती और अपनी देखभाल भी खुद कर लेती। कई बार सुनकर हमें आश्चर्य होता, लेकिन कैंसर धीरे-धीरे उसे भीतर से तोड रहा था। वह लगातार कमजोर होती जा रही थी। उसने मुंबई जाना बंद कर दिया। एक बार दिल्ली आई। हमने हौजखास में एक होम्योपैथिक महिला डाॅक्टर को दिखाया। वह दवा लेकर लौट गई, लेकिन उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ।
इस बीच उसके बड़े बेटे मोहित ने टीवी पर कृष्णा कैंसर हास्पिटल दिल्ली का एक विज्ञापन देखा। वह अस्पताल कैंसर की अंतिम स्टेज पर दवा देकर ठीक करने का दावा करता है। राजकुमार दिल्ली आया। हम फ्रैंड्स कालोनी स्थित कृष्णा कैंसर हास्पिटल पहुंचे। मुझे ऐसे अस्पतालों पर कतई भरोसा नहीं था, लेकिन राजकुमार को हम निराश नहीं करना चाहते थे इसलिए उनसे दवा ली। एक दिन की दवा हजार रुपए की और न उसकी रसीद मिली और न ही दवा का नाम बताया गया। दो माह दवा खाना जरूरी है यानी 60 हजार रुपए खर्च करने की हिम्मत हो तो इलाज करवाओ अन्यथा रहने दो। यह बात अस्पताल के एक अफसर ने कही। अस्पताल के इस चेहरे ने मुझे अविश्वास से भर दिया, फिर भी हमने दस दिन की दवा ले ली। तीन-चार बार राजकुमार ने जबलपुर से रकम भेजकर कोरियर से भी दवा मंगवाई। शुरू में लगा जैसे दवा से आराम लग रहा है, लेकिन बाद में उसका असर कुछ समझ में ही नहीं आया। जिनके अपने कैंसर से पीड़ित हैं वे अंतिम समय में भी चमत्कार होने की उम्मीद पाले रहते हैं। कुछ लोग हैं जो उम्मीद की इस भावना को भी भुनाने से बाज नहीं आते।
अब ज्योति पूरी तरह बिस्तर पर है। उसके हाथ-पांवों में जबर्दस्त सूजन है। वह अपना शरीर नहीं संभाल पाती। ज्यादातर समय दर्द से कराहती रहती है। दिवाली की शाम उसने पेनकिलर ली। थोड़ी देर बात भी की। फिर उठी और घर के मंदिर के सामने बैठकर पूजा की तैयारी में कुछ हाथ बंटाया। रंगोली की कुछ लकीरें खींचीं। चंद मिनट में ही वह थक गई। फिर बिस्तर पर बैठकर बच्चों को समझाती रही कि पूजा में क्या और कैसे करना है। पूजा हुई, पल भर के लिए उसके चेहरे पर मुसकान आई, फिर उस पर थकान हावी हो गई। ज्योति का बड़ा बेटा मोहित 11वीं में है। वह जरूरत से ज्यादा सीधा है। हमेशा पढ़ता ही रहता है। छोटा बेटा सोभित छठवीं में है। वह पढ़ने में कमजोर है, लेकिन कबाड़ से जुगाड़ करने का उसमें अदभुत गुण है। वह कुछ न कुछ बनाते रहता है। उसने स्पीकर बनाया है और भी कई चीजें बनाई हैं। दिवाली में उसने थोड़े से पेड़े बनाए थे। वह बताने लगा, मुझे चाकलेट पावडर की जरूरत थी पर वह महंगा था, इसलिए दो डेयरी मिल्क का उपयोग किया। उसने बहुत स्वादिष्ट पेड़े बनाए थे और सुंदर ढंग से डिब्बे में सजाया था। उसने सबको खिलाया और यह बताना भी नहीं भूला कि यह किसने बनाए हैं। पूजा के बाद दीये जलाए गए। हमने भी एक उम्मीद का दीया जलाया।
मेरी पत्नी पांच बहनें और दो भाई हैं। भाई के बेटे की पहली सालगिरह पर 2004 में ज्योति ने खूब डांस किया था। उसकी सीडी है। ज्योति के बच्चे बार-बार वह सीडी देखते हैं, मैंने भी देखी। ज्योति पूरे मूड में नाच रही है। उसका वह अंदाज देखते ही बनता है। बच्चों ने उसके बाद अपनी मां को कभी इतना स्वस्थ नहीं देखा। वे बार-बार सीडी देखकर जैसे पुराने दिनों को फिर ताजा करना चाहते हैं।
ज्यादा देर नहीं लगी, अपने-अपने घर की पूजा करने के बाद ज्योति की बहनों और भाई के बच्चे आ गए। बच्चों के आने से जैसे त्योहार की कोई बड़ी कमी पूरी हो गई हो। सब पहले ज्योति मौसी और ज्योति बुआ से मिले। कुछ फोटो खिचीं, कुछ धमाचैकड़ी हुई। फिर आंगन और बगीचे में बच्चों ने देर तक पटाखे चलाए। इस बीच ज्योति बहुत थक गई थी। वह लेट गई। रात को बाकी बच्चे अपने घर लौट गए। मैं अपने परिवार समेत वहीं रहा। दूसरे दिन अमल और हमें लौटना था। ज्योति बहुत थक गई थी। आज वह देर तक बैठी और बात भी की। देर रात अंधेरे में उसकी कराहटें गूंजती रहीं।
सुबह हुई। फिर सूरज निकला और उजाला फैल गया। रात के शोर शराबे के बाद सुबह बहुत शांत और चुप सी लगी। एक बीमार के लिए तो यह एक और दर्द भरी सुबह थी। कितना अजीब लगता है जब आप किसी का दर्द नहीं बांट पाते। उसे कराहते देखकर भी कुछ न कर पाने की टीस हमेशा सालती रहेगी। जब हम वहां से चले तो वह विदा करने की स्थिति में भी नहीं थी। उसके हाथों को अपने हाथ में लिया तो दर्द से बोझल पलकें उठीं। मुसकुराहट होठों तक आते आते रह गई। और फिर दर्द की तीखी लहर। ट्रेन में भी जैसे वह दर्द हमारे साथ यात्रा कर रहा था। वही बेबसी, वही कराहटें, एक रात - एक सुबह के सफर में बहुत कुछ ऐसा है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।
इस दौरान मुझे अपनी अम्मा की बहुत याद आई। 1993 में स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी। उसी साल नवम्बर में आरती के पिता की मौत भी कैंसर से हुई थी। अगले बरस दोनों को गए 18 साल हो जाएंगे। इस बीच कितने दोस्त, कितने साथी और कितने परिचित कैंसर ने छीन लिए हैं, सोचने लगो तो बेचैनी बढ़ जाती है। कुछ दर्द कितने स्थायी होते हैं।
परिवार के साथ ज्योति | |
1
लड़ियां बांधी हैं न पटाखे चलाएं हैं
इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं
सहम न जाएं कहीं आज उजाले डरकर
घर के कोनों में धुप्प अंधेरे छिपाए हैं
बार-बार चला कर पटाखे भी बच्चे
गहरी खामोशी को कहां तोड़ पाए हैं
न जाने देवता क्यों उससे खार खाए हैं
उसने बस जिंदगी के चार पल चुराए हैं
इस दिवाली दिये उम्मीद के जलाए हैं
सहम न जाएं कहीं आज उजाले डरकर
घर के कोनों में धुप्प अंधेरे छिपाए हैं
बार-बार चला कर पटाखे भी बच्चे
गहरी खामोशी को कहां तोड़ पाए हैं
न जाने देवता क्यों उससे खार खाए हैं
उसने बस जिंदगी के चार पल चुराए हैं
2
देखने भर को है जैसे नाम जिस्म
बन गया है दर्द का गोदाम जिस्म
ढेरों सपनों का ठिकाना था कभी
अब दवाओं का बना मुकाम जिस्म
दूसरों के हो गए मोहताज यूं
हो गया लाचार बस नाकाम जिस्म
दर्द, दहशत और हैं सिसकारियां
कैसे कह दें खुदा का इनाम जिस्म
आत्मा बच्चों की मुट्ठी में दबा
कर दिया है कैंसर के नाम जिस्म
देखने भर को है जैसे नाम जिस्म
बन गया है दर्द का गोदाम जिस्म
ढेरों सपनों का ठिकाना था कभी
अब दवाओं का बना मुकाम जिस्म
दूसरों के हो गए मोहताज यूं
हो गया लाचार बस नाकाम जिस्म
दर्द, दहशत और हैं सिसकारियां
कैसे कह दें खुदा का इनाम जिस्म
आत्मा बच्चों की मुट्ठी में दबा
कर दिया है कैंसर के नाम जिस्म
3
दर्द के तोहफे इतने पाए हैं
हौसलों के दीये जलाए हैं
दर्द के तोहफे इतने पाए हैं
हौसलों के दीये जलाए हैं
टिमटिमाते दीये की आंखों में
कितने ही ख्वाब झिलमिलाए हैं
कितने ही ख्वाब झिलमिलाए हैं
मौत के डर के बीच भी हमने
गीत तो जिंदगी के गाए हैं
गीत तो जिंदगी के गाए हैं